टूट के शाख से पत्ते कभी शजर नहीं होते
इस शहर में किसी मजदूर के घर नहीं होते
हवाई प्रवासी के पैरों में छाले नहीं होते
किस्मत में मजदूरों के ऐसे मंजर नहीं होते
गर मुझे ही पैदल चलना था इन रास्तों पर
काश बनाने में खून-पसीने बहाये मेरे नहीं होते
पगडंडियों से जुड़ा है गांव मेरा पहुंच फिर भी जाता
गर तूने ये रास्ते ये पुल बनाए नहीं होते
तेरे संसाधनों से बहुत दूर, मेरे इरादों के करीब है गांव मेरा
पहुंचकर गांव के घर बहाए मैंने आंसू नहीं होते
पूर्वज भी रोए होंगे, बहाएंगी आंसू पीढ़ियां
काश जमाने ने मासूमों को भूख और छाले दिए नहीं होते
लौट रहा हूं उदास बसाकर अमीरे शहर तेरा
बनाता जन्नत ये शहर गर निवालो के लाले नहीं होते
वाणी वासना में लिप्त राजनेता यह जान ले
मेरे घर के आंगन तेरे राजनीति के अखाड़े नहीं होते
बुझते ही ‘दीपक’ घर से आती है सिसकियौ की आवाज
फरिश्तों क्यों दर पर तुम गरीबों के खड़े नहीं होते ।