9 मार्च से चल रहे बजट सत्र में सब कुछ शांत चल रहा था। हाल के कई सत्रों में भाजपा विधायक दल ने सदन में जमकर हंगामा किया था। पहली बार सदन के काम-काज में विपक्षी विधायक सामान्य अवरोध भी पैदा नहीं कर रहे थे। लेकिन इस शांति में ऐसा तूफान पल रहा था इसका भान किसी को नहीं था। 18 मार्च को बजट के 22 मदों में से 21 शांति से पास हो गए। 22वें मद के रूप में विनियोग विधेयक पास करते समय भाजपा विधायक अचानक मत-विभाजन की मांग करने लगे मगर विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल ने ध्वनिमत से वित्त विधेयक को पास मान कर सदन को 28 अप्रैल तक स्थगित कर दिया।
भाजपा विधायक जब मत विभाजन की मांग के साथ वेल में पहुंचे तो इसे सभी सामान्य प्रतिरोध मान रहे थे लेकिन कुछ ही क्षणों में अचानक उनके साथ मंत्री हरक सिंह के नेतृत्व में पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा सहित कांग्रेस के कुल 9 विधायक भी मत विभाजन की मांग करने के साथ वित्त विधेयक के पास नहीं होने का दावा करते हुए धरने पर बैठ गए। दरअसल दिन की शुरुआत में ही ऐसी खबरें आने लगी थीं कि कांग्रेस के 12 विधायक बजट पर वोटिंग के समय दल बदल कर सकते हैं मगर दोपहर तक कांग्रेस के राज्य नेतृत्व ने इन असंतुष्ट विधायकों को मना लेने का दावा करते हुए सब कुछ ठीक होने की घोषणा कर दी थी इसलिए इस अप्रत्याशित पाला बदल से सत्ता पक्ष हैरान हो गया। सदन में हंगामे के अगले दो घंटे में भाजपा के 27 और कांग्रेस के 9 बागी विधायक राज्यपाल से मिलकर सरकार के अल्पमत में आने के कारण उसे बर्खास्त करने की मांग के साथ चार्टर्ड विमान में दिल्ली कूच कर गए। मंत्री हरक सिंह का दावा था कि सरकार के वित्त विधेयक का विरोध करने वाले 35 विधायक थे इसलिए वित्त विधेयक पास नहीं हुआ है और सरकार अल्पमत में है। उन्होंने सरकार बनाने का भी दावा किया। रात को ही ये विधायक गुड़गांव के लीला होटल पहुंच कर अमित शाह से मुलाकात का इंतजार करते हुए आगे की रणनीति बनाने में लग गए थे।
यह सब अचानक नहीं हुआ था, पूरे घटनाक्रम को ध्यान से देखा जाए तो यह सब पूरी रणनीति के साथ रचा गया मिशन था जिसके लिए उत्तराखंड में भाजपा प्रभारी श्याम जाजू कही दिनों से उत्तराखंड में डेरा जमाए थे। ठीक एक दिन पहले राष्ट्रीय महामंत्री कैलाश विजयवर्गीय, अमित शाह के राजनीतिक सलाहकार एस.के. नरवर और राष्ट्रीय संगठन सह महामंत्री शिव प्रकाश भी पहुंच गए थे। जब सदन में पाला-बदली का खेल चल रहा था तो जाजू और विजयवर्गीज दर्शक दीर्घा से सारे घटनाक्रम पर नजर रखे हुए थे। बगावत के एक दिन पहले मंत्री हरक सिंह ने भाजपा के इन दिग्गजों से भेंट की थी पर सरकार ने इस मुलाकात को हल्के में लिया। दरअसल कांग्रेस इन भाजपा दिग्गजों के देहरादून पहुंचने के पीछे कुछ दिन पहले भाजपा के विधानसभा घेराव के दौरान ‘शक्तिमान घोडे’ की टांग टूटने के बाद भाजपा विधायक गणेश जोशी की गिरफ्तारी के साथ देश-दुनिया में हुई बदनामी से बैक-फुट पर आई पार्टी को दिशा-निर्देश देना मान रही थी।
वरिष्ठ पत्रकार राजीव नयन बहुगुणा कहते हैं, ‘यह उत्तराखंड के लोकतांत्रिक इतिहास का सबसे काला दिन था।’ पूर्व मंत्री और विधायक नवप्रभात बताते हैं कि ‘मंत्री हरक सिंह ने उस दिन दो बिल पास करवाए और अपने 3 विभागों के बजट पारित कराने के साथ विपक्ष के कटौती प्रस्ताव का भी विरोध किया।’ वे कहते हैं, ‘यदि विरोध था तो राज्यपाल के अभिभाषण से ही विरोध करना शुरू कर देते। यह कैसी संसदीय नैतिकता है कि वित्त विधेयक के बड़े हिस्से में आप सरकार और बजट के पक्ष में बोल रहे थे लेकिन ध्वनिमत से बजट पास होते ही आप उसे जनविरोधी बजट बताने लगे। सदन के बाहर आने पर मीडिया के सामने मंत्री हरक सिंह ने कहा था कि बजट गरीब विरोधी है इसलिए हमने इसका विरोध किया है।
राज्य बनने के बाद पहली बार इस तरह के दलबदल के जरिए सरकार पलटने की कोशिश हुई है। इससे पहले 2007 के विधानसभा चुनावों के बाद तब मुख्यमंत्री बने ले.जनरल खंडूड़ी को विधानसभा सदस्य बनने के लिए कांग्रेस के विधायक ले.जनरल टी.पी.एस. रावत ने अप्रत्याशित रूप से अपनी सीट छोड़ी थी। बाद में 2012 में कांग्रेस ने भी यही किया। विजय बहुगुणा मुख्यमंत्री बनते समय विधानसभा के सदस्य नहीं थे। उनके लिए भाजपा के किरन मंडल ने सीट छोड़ कर विधानसभा पहुंचने का रास्ता साफ किया था।
उत्तराखंड विधानसभा के सदन से लेकर लीला होटल तक कांग्रेस से बगावत करने वाले 9 विधायकों के नेता मंत्री हरक सिंह रावत दिखाई दिए। इन नौ विधायकों में से पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के पिता हेमवती नंदन बहुगुणा न केवल उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे बल्कि केंद्र में कांग्रेस के ताकतवर मंत्रियों में से एक थे। खुद विजय बहुगुणा उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनने से पहले केवल एक बार मध्यावधि लोकसभा चुनाव जीत कर दो सालों के लिए सांसद बने थे। अब वे कुमाऊं के तराई क्षेत्र के जिले उधमसिंह नगर के सितारगंज से विधायक हैं। मंत्री हरक सिंह का पुराना इतिहास भी दलों से निष्कासन और एक दल से दूसरे में कूदने-फांदने का रहा है। राज्य बनने से पहले वे उत्तर प्रदेश में भाजपा की कल्याण सिंह सरकार में मंत्री रहे थे। तब पौड़ी में भाजपा के एक पार्टी सम्मेलन में निशंक से मारपीट करने के आरोप में उन्हें भाजपा से बाहर का रास्ता दिखाया गया था। उसके बाद जनता दल और बसपा होते हुए वे कांग्रेस में आए। कांग्रेसी परिवार के विधायक सुबोध उनियाल विजय बहुगुणा के सबसे नजदीकी हैं। इनके भाई यू.के. उनियाल राज्य के महाअधिवक्ता थे। हरीश रावत और बहुगुणा में मतभेद का एक कारण सुबोध उनियाल को मंत्री पद नहीं दिया जाना भी है। दो बार के विधायक उनियाल को मंत्री बनाने की मांग बहुगुणा हमेशा करते रहे हैं। तीन बार के बिधायक डा. शैलेन्द्र मोहन सिंघल पुराने कांग्रेसी परिवार से हैं। बागियों में एक कुंवर प्रणव सिंह ‘चैपियन’ भी तीन बार के बिधायक हैं। रुड़की के विधायक प्रदीप बत्रा, देहरादून से विधायक उमेश शर्मा ‘काऊ’ तथा केदारनाथ की विधायक शैलारानी रावत पहली बार की विधायक हैं। काऊ विजय बहुगुणा और शैलारानी रावत, हरक सिंह और सतपाल महाराज की नजदीकी हैं।
नौवीं विधायक अमृता रावत रामनगर से विधायक हैं। वे धर्म गुरु और भाजपा नेता सतपाल महाराज की पत्नी है। केंद्र सरकार में राज्य मंत्री रह चुके महाराज राज्य के गढ़वाल संभाग में मजबूत माने जाते हैं। सतपाल महाराज कांग्रेस में रहते हुए स्वयं को हमेशा मुख्यमंत्री पद का स्वाभाविक उम्मीदवार मानते रहे। एक ही राजपूत बिरादरी के होने के कारण महाराज और हरीश रावत हमेशा शीर्ष पदों के लिए एक-दूसरे के लिए चुनौती थे। 2002 का विधानसभा चुनाव हरीश रावत के नेतृत्व में लड़ा गया और कांग्रेस को बहुमत भी मिला लेकिन आलाकमान ने हरीश रावत को मुख्यमंत्री बनाने के बदले नारायण दत्त तिवारी को मुख्यमंत्री बना दिया था। मुख्यमंत्री पद पर संकट आने पर तिवारी ने हमेशा हरीश रावत के सामने सतपाल महाराज को ढाल बनाया। कांग्रेस की राजनीति को जानने वाले बताते हैं कि 2012 के चुनावों के बाद भी आलाकमान के सामने मुख्यमंत्री के रूप में विजय बहुगुणा और हरीश रावत में से एक के चुनाव के समय सतपाल महाराज ने विजय बहुगुणा को प्राथमिकता दी थी।
केदारनाथ आपदा के बाद जब विजय बहुगुणा को हटाने की सुगबुहाट हुई तो सतपाल महाराज भी मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार थे। लेकिन तब बाजी हरीश रावत ने जीती। महाराज को हरीश रावत का मुख्यमंत्री बनना कभी नहीं भाया। इसलिए लोकसभा चुनाव से ठीक पहले वे कांग्रेस छोड़कर भाजपा में चले गए। परंतु सरकार में मंत्री उनकी पत्नी अमृता रावत कांग्रेस में ही रहीं। लोकसभा चुनाव के बाद हरीश रावत ने उन्हें अपने विधानसभा क्षेत्र रामनगर में भाजपा प्रत्याशी के पक्ष में चुनाव प्रचार करने के आरोप में मंत्री पद से बर्खास्त कर दिया था।
सतपाल महाराज कुछ पारिवारिक कारणों से भी हरीश रावत से खुन्नस में थे। इसलिए वे महीनों से सरकार गिराने का ताना-बाना बुन रहे थे। बताते हैं कि कुछ महीनों पहले उन्होंने इस काम के लिए हरक सिंह को साध लिया था। कांग्रेस में रहते हुए हरक सिंह और सतपाल महाराज एक-दूसरे के धुर विरोधी थे। भाजपा के केंद्रीय नेताओं और व्यक्तिगत रूप से सतपाल महाराज के अलावा बगावत के इस अभियान में सबसे अप्रत्याशित चेहरा विजय बहुगुणा के पुत्र साकेत बहुगुणा थे। एक बड़ी कंपनी के उपाध्यक्ष रहे साकेत पिता के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद पहली बार सार्वजनिक रूप से विजय वर्गीज के साथ बैठे दिखाई दिए। वे अपने पिता के मुख्यमंत्रित्व काल में राज्य में शक्ति का केंद्र माने जाते थे। पिता विजय बहुगुणा के मुख्यमंत्री पद से हटने के कारणों में से एक साकेत को भी माना जाता है।
हरक सिंह ने आरोप लगाया कि मुख्यमंत्री हरीश रावत ने राज्य की सारी सत्ता अपने हाथों में केंद्रीकृत कर दी है। मुख्यमंत्री बनने के बाद हरीश रावत लगभग 40 दिनों तक मंत्रियों को विभाग नहीं बांटने से लेकर आज तक अधिकारियों के जरिए हर विभाग में अपनी धमक दिखाते रहे हैं। कहा जाता है कि मुख्यमंत्री हरीश रावत ने विजय बहुगुणा से कुछ भी करा लेने का दंभ भरने वाले हरक सिंह की मनमानी पर लगाम लगाई थी। कुछ लोग अचानक हुए इस विद्रोह के पीछे बजट सत्र में अवैध संपत्ति को जब्त करने वाले कानून का पास होना भी मान रहे हैं। राज्य के अधिकांश नेताओं का मोटा धन बेनामी जमीनों में लगे होने की अफवाहें उड़ती रहती हैं।
उठापटक और असमंजस के बीच राज्यपाल ने हरीश रावत को 28 मार्च तक सदन में बहुमत सिद्ध करने का आदेश दिया है। इस बीच कांग्रेस ने अपने सारे विधायक रामनगर पहुंचा दिए हैं। बताया जा रहा है कि हरीश रावत किसी भी हाल में विजय बहुगुणा, हरक सिंह, सुबोध उनियाल और अमृता रावत को कांग्रेस में वापस लेने को तैयार नहीं हैं। सतपाल महाराज के भाजपा में जाने के बाद यदि विजय बहुगुणा और हरक सिंह कांग्रेस से बाहर हो जाते हैं तो उत्तराखंड में मुख्यमंत्री हरीश रावत वरिष्ठता और अनुभव दोनों आधार पर कांग्रेस के निर्विवाद नेता होंगे।