असम के मुख्यमंत्री तरुण गगोई ने इस बारे में खुलकर कहा है कि जिस तरह से यह समझौता चुपचाप किया गया और इसका ब्यौरा सार्वजनिक नहीं किया गया, उससे आशंकाएं बलवती हो रही हैं कि कहीं पड़ोसी राज्यों को कुछ खोना न पड़े। हालांकि उन्होंने स्पष्ट किया कि अगर इस समझौते में असम से जरा भी नाइंसाफी की गई होगी, तो वह असम के पक्ष में अंतिम दम तक लड़ेंगे। बहरहाल, इस बहु-प्रतीक्षित समझौते को पूरी खामोशी से अंजाम देकर केंद्र सरकार ने बढ़त हासिल की है। इसमें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल की महत्वपूर्ण भूमिका है। उत्तर पूर्व, म्यांमार, चीन से सटे इलाकों, नेपाल आदि पर अजीत डोवाल ने खासा ध्यान दे रखा है। उनकी इस क्षेत्र में भूमिका पर सिर्फ चीन, म्यांमार, नेपाल की सत्ताओं की ही निगाह नहीं टिकी है बल्कि उत्तर पूर्वी राज्यों के नगा तथा अन्य जनजातीय समूहों का भविष्य टिका हुआ है।
नगा समझौते को करने में केंद्र सरकार ने एक सकारामत्क पहलकदमी यह भी की कि उसने इसके बारे में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह औऱ माकपा महासचिव सीताराम येचुरी से सलाह ली। हालांकि इस समझौते के बारे में उन तमाम दावेदारों को नहीं बताया गया, जिनके हित इससे सीधे-सीधे जुड़े हुए हैं। जैसे मुख्यधारा के गुट, नगा के दूसरे समूह, मणिपुर और असम के मुख्यमंत्री आदि। शायद इसका कारण यह भी हो कि ब्योरों पर अभी भारत सरकार और एनएससीएन (आई एम) के बीच सहमति बाकी हो।
चूंकि इस शांति समझौते का कोई ठोस ब्यौरा सामने नहीं है इसलिए नगालैंड में भी कोई इसके बारे में खुलकर बोलने को तैयार नहीं है। वे सब इंतजार कर रहे हैं कि उन्हें समझौते के भीतर लिखी बातों-प्रावधानों के बारे में जानकारी मिले। यहां तक कि नगालैंड के मुख्यमंत्री टीआर जेलियांग ने भी यह कहा कि बिना समझौते के ब्यौरे को देखे इस पर प्रतिक्रिया करना ठीक नहीं है। नगालैंड के आदिवासी समुदायों की शीर्ष संस्था नगा होहो के अध्यक्ष चुबा ओजुकुम ने कहा कि केंद्र सरकार के मुख्य वार्ताकार आरएन रवि के साझा संप्रुता के सिद्धांत वाले कथन के बाद समझौते के पूरे विस्तृत स्वरूप को समझना जरूरी है।
इतनी दुविधा नीचे तक है। शायद यही वजह है नगालैंड के बिजनेस सेंटर दीमापुर में इस समझौते के बाद किसी भी तरह की कोई खुशी का संकेत नहीं मिला। दिल्ली में नगा स्टूडैंट यूनियन के पूर्व अध्यक्ष एस. मुवियाह ने आउटलुक को बताया, ‘यह ध्यान रखने की जरूरत है कि किसी नगा अलगाववादी गुट के साथ यह पहला समझौता नहीं है, इससे पहले भी समझौते हुए हैं। ये आंशिक रूप से ही सफल हुए हैं। इनकी वजह से कुछ नगा जनजातियां मुख्यधारा में आईं तो अन्य अलग-थलग हो गईं। अच्छी बात यह है कि एक बार फिर एक समझौता हुआ है औऱ जब तक इसका विस्तृत ब्यौरा सार्वजनिक नहीं होता है तब तक कुछ भी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता। एक बात मुझे समझ नहीं आ रही कि इसे इतना छुपाया क्यों जा रहा है।
अभी इस समझौते के बारे में जो जानकारियां बाहर आई हैं उनमें मणिपुर नगा बहुल इलाकों के लिए स्वायत्त प्रशासनिक जिलों का प्रस्ताव है। कमोबेश असम के कॉर्बी लॉन्ग स्वायत्त परिषद जैसा। इस बारे में केंद्र की तरफ से वार्ताकार आर.एन. रवि ने भी संकेत दिए है।
भारतीय स्वतंत्रता पूर्व से ही नगा आंदोलनकारियों की मांग स्वतंत्र नगालैंड की रही है। आजादी के इतने साल बाद भी यह मांग किसी न किसी गुट के जरिये तमाम उतार-चढाव और जोड़ घटाव के साथ बनी रही। अनेक धड़े आए और उनके अंदर भी जबर्दस्त टकराव रहा है। हालांकि 1975 में सबसे बड़े और करिश्माई नगा नेता फिजो और इंदिरा गांधी के बीच समझौते के बाद दशकों तक नगालैंड अपेक्षाकृत सामान्य रहा। ताजा समझौते की जल्दबाजी के पीछे एनएससीएन (आईएम) पर हाल में सुमिले नगा जनजाती समूह द्वारा किए गए हमले को भी देखा जा सकता है। इस हमले के बाद से एनएससीएन (आईएम) बैकफुट पर गया और उस पर केंद्र सरकार से समझौता करने का दबाव बना। अब एक बड़ा सवाल यह है कि केंद्र सरकार के साथ समझौता करने वाला एनएससीएन (आईएम) अपनी बृहत्तर नगालिम की मांग से समझौता करने को तैयार हुआ है या नहीं। गौरतलब है कि एनएससीएन (आईएम) ने जिस बृहत्तर नगालिम की कल्पना की है, उसमें असम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और म्यांमार के नगा बहुल इलाके आते हैं। इस संगठन के बृहत्तर नगालिम के नक्शे के अनुसार यह पूरा इलाका 1,20,000 वर्गकिलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है, जबकि अभी नगालैंड सिर्फ 16,527 वर्गकिलोमीटर में है। इस मांग को लेकर उपरोक्त राज्यों और देशाों की बेहद उग्र प्रतिक्रिया रही है। अब भी वे इसे लेकर बेहद चिंतित हैं।
चूंकि एनएससीएन (आईएम) सहित अन्य अलगाववादी नगा समूह हथियारों से लैस हैं और सशस्त्र संघर्ष में विश्वास रखते हैं, इसलिए यह शांति समझौता नगालैंड सहित आसपास के राज्यों पर प्रभाव डालेगा। ईस्टर्न नगालैंड पीपुल्स ऑर्गेनाइजेशन के अध्यक्ष एस. कोइवैंग का इस समझौते के बारे में मूल्यांकन बहुत कुछ सटीक लगता है। वह कहते हैं, अगर यह समझौता सभी नगा समुदायों के लोगों को स्वीकार होगा, तभी लागू हो पाएगा और तभी हम भी इसका स्वागत करेंगे। अगर नहीं तो पहले की तरह इसे भी रद्द कर दिया जाएगा।
नगा विवाद का इतिहास
अंग्रेजों ने 1826 में असम को कब्जे में लिया और नगा हिल्स 1881 में बिट्रिश साम्राज्य का हिस्सा बना। वर्ष 1918 में नगा विद्रोह नगा क्लब के रूप में सामने आया। वर्ष 1946 में नगा नेशनल काउंसिल (एनएनसी) का गठन हुआ। नेशनल काउंसिल ने 14 अगस्त 1947 में एनएनसी के नेता अंगामी जापू फिजो के नेतृत्व में नगालैंड को एक स्वतंत्र राज्य घोषित किया। सिर्फ इतना ही नहीं, 1951 में एनएनसी ने कथित जनमत संग्रह भी कराया, जिसमें 99 फीसदी लोगों ने स्वतंत्र नगालैंड के पक्ष में मतदान किया।
सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत
वर्ष 1952 में फिजो ने नगा फेडरल गवर्नमेंट (एनएफजी) और नगा फेडरल आर्मी (एनएफए) बनाई, जिसे दबाने के लिए भारत सरकार ने 1958 में सेना भेजी और सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (एएफएसपीए-आफस्पा) बनाया। उस समय तक नगा हिल्स असम का हिस्सा था और उसे 1963 में अलग राज्य बनाया गया। संघर्ष विराम की कई कोशिशें चलती रहीं, लेकिन नगा समूह अशांत रहे।
शांति प्रयास
एनएनसी के एक हिस्से के नेताओं ने 11 नवंबर 1975 में समझौता किया जिसमें एनएनसी औऱ एनएफजी हथियार डालने के लिए तैयार हो गए। शिलांग समझौते के नाम से चर्चित इस समझौते को थुएगिलैंड मुइवाह ने मानने से इनकार कर दिया। और 1980 में एनएनसी हिसंक टकराव के बाद दो फाड़ हो गई- एनएससीएन (आईएम) और एनएससीएन (के)। एनएनसी धीरे-धीरे खत्म हो गई और एनएससीएन (आईएम) इस क्षेत्र में तमाम हिंसक गतिविधियों और विद्रोही तेवर का केंद्रक बन गई।
क्या ग्रेटर नगालिम की मांग जिंदा है
नगालैंड विधानसभा ने ग्रेटर नगालिम की मांग यानि सभी नगा बहुल इलाकों को एक प्रशासनिक छतरी के भीतर लाने के रूप में अब तक पांच बार मंजूर किया है। यह प्रक्रिया 1964, 1970, सितंबर 1994, 2003 और जुलाई 2015 में दोहराई गई। जुलाई 27 2015 को इस प्रस्ताव के पारित होने के बाद इस समझौते का होना निश्चित रूप से भविष्य के लिए अलग संकेत दे रहा है। हालांकि एनएससीएन (के) अभी हिंसक संघर्ष जारी रखे हुए है।