“नीतीश की ‘बीच की राजनीति’ में कई संकेत छिपे हैं, जिसका भाजपा को भी भान है लेकिन 2024 के लोकसभा चुनावों तक अपने एजेंडे के साथ बने रहना उसकी मजबूरी, जदयू नेता को भी इसका एहसास शिद्दत से है, इस नए सियासी जोड़तोड़ का क्या हो सकता है नतीजा, इस पर एक नजर”
राजनीति में समय से ज्यादा संख्याबल बलवान होता है, और कुछ मामलों में परिस्थितियां भी। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के संदर्भ में कुछ ऐसा ही लगता है। अमूमन किसी राज्य के विधानसभा चुनाव में तीसरे स्थान पर आई पार्टी को सत्ता की बागडोर नहीं मिलती, वह भी तब जब उसकी गठबंधन के किसी अन्य दल को उससे अधिक सीट पर विजय मिली हो। और अगर कभी-कभार संयोगवश मिलती भी है तो अनिश्चितता के बादल सरकार के भविष्य पर मंडराते रहते हैं। लगातार दो बार अपनी पार्टी के सहयोगी दलों से पिछड़ने के बावजूद मुख्यमंत्री बनने वाले नीतीश के साथ कुछ ऐसा ही होने की आशंका थी।
नवंबर 2020 के चुनाव में जनता दल-यूनाइटेड (जदयू) को मात्र 43 सीटों पर जीत मिली, जो उसकी सहयोगी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से 31 सीटें कम थीं। 243-सदस्यीय सदन में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) 75 सीटें जीत कर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। 2005 में पंद्रह वर्ष के राजद शासन का अंत होने के बाद यह पहला मौका था जब एनडीए में जदयू भाजपा से पिछड़ गई थी। इसके बावजूद चुनाव पूर्व समझौते के मुताबिक नीतीश मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज तो हुए लेकिन इस बार उन्हें भाजपा के बदले स्वरूप से दो-चार होना था। गठबंधन में बड़े भाई की भूमिका मिलने से प्रदेश में न सिर्फ भाजपा की महत्वाकांक्षाएं आसमान छूने लगीं, बल्कि राजनीतिक विश्लेषक यह भी आकलन करने लगे कि नीतीश सरकार की चाबी मुख्यमंत्री के पास नहीं होगी।
लेकिन, सरकार के बनने के लगभग बीस महीनों बाद नीतीश के लिए फिलहाल सुकून खोने का कोई कारण नहीं दिखता। इसके विपरीत, हाल के घटनाक्रम से तो प्रथमदृष्टया यही लगता है कि भाजपा के निरंतर बढ़ते प्रभुत्व के बावजूद उन्होंने अपने सहयोगी को ही बैकफुट पर ला दिया है। पिछले 1 जून को नीतीश ने जाति जनगणना के मुद्दे पर एक सर्वदलीय बैठक बुलाई, जिसमें भाजपा को भी इच्छा या अनिच्छा से शिरकत करनी पड़ी। इससे पहले प्रदेश भाजपा नेतृत्व ने स्पष्ट किया था कि पार्टी सिर्फ दो ही जाति – अमीर और गरीब – में विश्वास करती है। भाजपा की इस बदली रणनीति का मुख्य कारण था: नीतीश और राजद प्रमुख लालू प्रसाद का इस मुद्दे पर एकमत होना। राजनीतिक जानकारों के अनुसार, सर्वदलीय बैठक के पूर्व नीतीश और तेजस्वी प्रसाद यादव की इस मुद्दे पर अचानक मुलाकात और दोनों का एक-दूसरे की इफ्तार पार्टी में जाने-आने से भाजपा के लिए इस बैठक में जाने की मजबूरी हो गई। बिहार जैसे प्रदेश में, जहां जाति समीकरण अब भी चुनावी रणनीति का अभिन्न अंग हैं, पार्टी अपने आपको इस पहल के विरोधी के रूप में दिखाने का जोखिम नहीं मोल सकती थी, न ही जदयू और राजद को फिर से करीब लाने का। नीतीश के लिए यह दोहरे फायदे के अवसर के रूप में आया। इससे भाजपा को न सिर्फ जाति जनगणना पर अपना रुख स्पष्ट करना पड़ा, बल्कि राजद को भी इस मुद्दे पर अकेले राजनैतिक लाभ लेने से वंचित होना पड़ा।
संकेतः तेजस्वी यादव और नीतीश कुमार एक दूसरे की इफ्तार पार्टी में पहुंचे
गौरतलब है, राजद ने ही पूरे देश में जाति जनगणना की मांग सबसे पहले उठाई थी। लालू ने 2014 के लोकसभा चुनावों के पूर्व तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार द्वारा 2011 में कराए गए एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की मांग की थी, ताकि विभिन्न जातियों की वर्तमान संख्या का पता चल सके। राजद प्रमुख ने कहा था कि 1931 में कराई गई अंतिम जाति जनगणना के समय से वंचित-पिछड़ी जातियों की संख्या बहुत बढ़ गई है और अब उनकी संख्या के आधार पर आरक्षण और अन्य नीतियों पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। बाद में नीतीश ने विधानसभा से सर्वसम्मति से जाति जनगणना का संकल्प पारित करा कर केंद्र को भेजा।
पिछले वर्ष, नीतीश के नेतृत्व में बिहार का सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल, जिसमें तेजस्वी यादव भी शामिल थे, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिला, लेकिन केंद्र ने इस मामले में फिर कोई पहल नहीं की। इसके विपरीत, संसद में गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने घोषणा की कि केंद्र सरकार में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अलावा कोई जातिगत जनगणना करने का प्रस्ताव नहीं है। हालांकि भाजपा नेताओं ने बाद में यह स्पष्ट किया कि राज्य सरकारें अपने स्तर पर जाति गणना कराने को स्वतंत्र हैं।
जाहिर है, नीतीश के लिए यह एक तीर से दो शिकार करने जैसा मौका था। आश्चर्य नहीं कि सर्वदलीय बैठक के एक सप्ताह के भीतर बिहार में जाति गणना करने की सरकारी पहल तेज कर दी गई। मुख्यमंत्री के अनुसार, अब न सिर्फ बिहार में रहने वालों की, बल्कि प्रदेश के बाहर रहने वाले बिहारियों की भी गणना होगी, चाहे वह किसी भी मजहब का हो। उन्होंने कहा कि अगड़ी जाति हो या बैकवर्ड, दलित हो या आदिवासी, सबकी आर्थिक स्थिति समेत पूरी जानकारी ली जाएगी। दरअसल, बिहार भाजपा अध्यक्ष संजय जायसवाल ने इस गणना में रोहिंग्या और बांग्लादेशी मुसलामानों के साथ-साथ ऐसे मुस्लिमों की गिनती करने पर आगाह किया है जो “फॉरवर्ड से बैकवर्ड” बन रहे हैं। (देखें इंटरव्यू)
नीतीश अगले साल इस प्रक्रिया को पूरा कर लेना चाहते हैं। उनकी सरकार ने न सिर्फ इसके लिए आवश्यक धनराशि जुटा ली है, बल्कि जनगणना करने वाले वैसे प्रशिक्षित और अनुभवी सरकारी कर्मचारियों को भी सेवा में वापस लेने का फैसला किया है जो सेवानिवृत्त हो चुके हैं।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि नीतीश की नजर 2024 के आम चुनाव और 2025 के विधानसभा चुनाव पर है। हालांकि, जाति जनगणना ही इकलौता मुद्दा नहीं है, जिस पर नीतीश और भाजपा एकमत नहीं हैं। राष्ट्रीय जनसंख्या कानून पर भी नीतीश की राय सहयोगी दल से भिन्न है। हाल में, भाजपा के केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह के इस संबंध में कानून बनाने की पुरजोर वकालत करने के बाद नीतीश ने चीन का हवाला देते हुए कहा कि ऐसे कानून बनाने से कुछ नहीं होता। उनके अनुसार, लड़कियों के शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने से ही इस दिशा में बेहतर परिणाम लाए जा सकते हैं। बिहार में अपने कार्यकाल का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि 2005 में जब वे मुख्यमंत्री थे तब बिहार में प्रजनन दर 4.3 थी, जो अब घटकर 3 हो गई है और अगले चार-पांच साल में दो तक हो सकती है। लेकिन भाजपा के लिए यह एक महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा है।
ऐसे मुद्दों पर नीतीश का हालिया रुख यह बतलाता है कि पिछले विधानसभा चुनाव में अपनी सियासी जमीन खोने के बावजूद वे न सिर्फ विपक्ष बल्कि अपनी सहयोगी पार्टी की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं पर अंकुश लगाने के प्रयास में लगे हैं। कुछ दिनों पूर्व तक यह मुश्किल दिख रखा था जब राजनैतिक हलकों में यह खबर फैली या फैलाई गई कि नीतीश बिहार की राजनीति छोड़कर केंद्र में जाना चाहते हैं। यह भी कयास लगाए जाने लगे कि नीतीश भाजपा को बिहार की सत्ता सौंप कर उप-राष्ट्रपति बन सकते हैं। स्वयं नीतीश ने भी यह कह कर इसे तूल दिया कि वे लोकतंत्र के चार सदनों (लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा और विधान परिषद) में से सिर्फ राज्यसभा के सदस्य नहीं बने हैं। यह भी अफवाह जोर से फैली कि नीतीश राज्यसभा के एक उपचुनाव सहित दो सीटों के लिए बिहार में होने वाले चुनाव में जदयू के प्रत्याशी बन सकते हैं। चुनाव राज्यसभा के जदयू सदस्य महेंद्र प्रसाद की मृत्यु और पार्टी के दूसरे सदस्य, केंद्रीय इस्पात मंत्री आरसीपी सिंह का छह वर्ष का कार्यकाल जुलाई में समाप्त होने के कारण तय हुआ था। लेकिन, नीतीश ने ‘किंग’ महेंद्र की जगह अनिल हेगड़े और आरसीपी की जगह पार्टी के झारखंड प्रदेश अध्यक्ष खीरू महतो को उम्मीदवार बनाकर यह जगजाहिर कर दिया कि उनका फिलहाल बिहार की राजनीति छोड़ने का कोई इरादा नहीं है।
आरसीपी को राज्यसभा तीसरी बार नहीं भेजने का उनका फैसला चौंकाने वाला था, क्योंकि वे पिछले 25 वर्षों में उनके सबसे विश्वासपात्र रहे थे। नीतीश के संपर्क में उत्तर प्रदेश काडर के भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी आरसीपी 1997 में आए, जब वे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में केंद्रीय मंत्री बने। नीतीश के मुख्यमंत्री बनने के बाद आरसीपी बिहार में उनके प्रमुख सचिव बने और 2010 में सरकारी सेवा से स्वैच्छिक सेवानिवृति लेकर जदयू के टिकट पर राज्यसभा में भेजे गए। पिछले 12 वर्षों से वे नीतीश के बाद जदयू में राजनैतिक रूप से सबसे प्रभावशाली नेता माने जाते रहे, लेकिन पिछले वर्ष जुलाई में मोदी सरकार में उनके मंत्री बनने के बाद दोनों के बीच मनमुटाव की खबरें आईं। दरअसल, 2019 में मोदी सरकार की सत्ता में वापसी के बाद नीतीश ने केंद्रीय मंत्रिमंडल में यह कहकर शामिल होने से इनकार कर दिया कि वे उसमें जदयू का सांकेतिक प्रतिनिधित्व मात्र नहीं चाहते। जदयू को उस चुनाव में 16 लोकसभा सीटों पर विजय मिली थी, लेकिन भाजपा अपने सभी सहयोगियों को संख्याबल से इतर सिर्फ एक सीट की पेशकश कर रही थी। नीतीश उस वक्त जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी थे। लेकिन पिछले वर्ष मोदी मंत्रिमंडल का विस्तार होने का निर्णय हुआ तो यह खबर फैली कि जदयू को इस बार दो मंत्री-पद मिलेंगे और नीतीश के दो विश्वासपात्र नेताओं, आरसीपी और ललन सिंह को मंत्री बनाया जाएगा। हालांकि, जब नए मंत्रियों के नामों की घोषणा हुई तो उनमें सिर्फ आरसीपी का नाम शामिल था, जो उस समय अपनी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। सियासी कॉरीडोर में चर्चाएं फैलीं कि वे सिर्फ एक मंत्री-पद मिलने के बावजूद नीतीश की मर्जी के बगैर मोदी मंत्रिपरिषद में शामिल हुए थे। बाद में कई मौकों पर उन्होंने यह जोर देकर कहा कि पार्टी के सभी निर्णय नीतीश की सहमति से ही लिए जाते हैं, लेकिन नीतीश की इस संबंध में लंबी चुप्पी ने कयासों की झड़ी लगा दी। यह भी कहा गया कि आरसीपी मंत्री बनने के बाद भाजपा के करीब हो गए हैं और भाजपा उनकी मदद से जदयू में टूट करा सकती है।
पुराने सहयोगी सुशील मोदी के साथ
ये कयास किस हद तक वास्तविकता के करीब थे, यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन आरसीपी की जगह खीरू महतो को राज्यसभा भेजने के निर्णय को नीतीश ने अंतिम समय तक गुप्त रखकर इस बात को जरूर हवा दी कि दोनों नेताओं के बीच अब सब कुछ ठीक नहीं है। फिलहाल आरसीपी को राज्यसभा के लिए पुनः नामित नहीं करके नीतीश ने गेंद भाजपा के पाले में डाल दी है। आरसीपी का राज्यसभा कार्यकाल 7 जुलाई को समाप्त हो रहा है और उसके बाद अगले छह महीने तक वे संसद के किसी सदन का सदस्य नहीं रहने के बावजूद प्रधानमंत्री की इच्छा से मंत्री बने रह सकते हैं। लेकिन अब प्रश्न यह है कि क्या भाजपा नीतीश की मर्जी के खिलाफ उन्हें मंत्री बनाने का ‘खतरा’ मोल ले सकती है? जाहिर है, अब सबकी नजरें इस बात पर भी हैं कि क्या नीतीश आरसीपी के स्थान पर किसी और को जदयू कोटा से केंद्र में मंत्री बनाते हैं या सांकेतिक प्रतिनिधित्व के विरोध में अपने पुराने स्टैंड पर कायम रहते हुए मोदी मंत्रिमडल से बाहर आ जाते हैं? हालांकि आरसीपी का मानना है कि यह प्रधानमंत्री का बड़प्पन है कि भाजपा के अपने दम पर 273 की बहुमत संख्या से ज्यादा (304) सीट जीतने के बाद भी उन्होंने अपने सहयोगी दलों को मंत्री-पद दिया। आरसीपी ने यह भी कहा कि अभी तक उनके नेता (नीतीश) ने उन्हें त्यागपत्र देने को नहीं कहा है और उनका मंत्री रहना या न रहना प्रधानमंत्री पर निर्भर करता है, जिनसे वे बात करेंगे। हालांकि नीतीश ने साफ किया है कि आरसीपी का कार्यकाल अभी बचा है और उन्हें त्यागपत्र देने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन आरसीपी की उम्मीद अब भाजपा पर टिकी दिखती है।
भाजपा के लिए नीतीश को नाराज कर आरसीपी को अपने पाले में करना आसान नहीं। इसके अल्पकालिक और दीर्घकालिक कारण हैं। जुलाई में राष्ट्रपति चुनाव होने वाले हैं, जिसमें भाजपा को अपने उम्मीदवार की जीत तय करने के लिए जदयू के सहयोग जरूरत होगी। नीतीश ने पिछले दो राष्ट्रपति चुनावों में गठबंधन धर्म से इतर विपक्ष के उम्मीदवारों को मत दिया था। 2012 में जब वे एनडीए के साथ थे तो उन्होंने यूपीए उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी के लिए मतदान किया जबकि 2017 में जब वे महागठबंधन के साथ थे तो वे एनडीए के रामनाथ कोविंद के समर्थन में सामने आए। नीतीश के ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए भाजपा कोई भी ऐसा कदम लेने से फिलहाल परहेज करेगी, जिसका आगामी राष्ट्रपति चुनाव पर कोई प्रतिकूल असर हो।
इसके अलावा, भाजपा के लिए कम से कम 2024 के आम चुनाव तक नीतीश का साथ वैसे भी जरूरी है, क्योंकि बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से एनडीए को पिछली बार 39 सीटें मिली थीं। बिहार चंद बड़े राज्यों में से एक है जहां भाजपा को 2024 में केंद्र की सत्ता में लगातार तीसरी बार काबिज होने के लिए अच्छे प्रदर्शन की दरकार है और नीतीश के साथ न होने से इस पर असर पड़ सकता है। इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि नीतीश एक बार फिर से महागठबंधन से समझौता कर सकते हैं। हालांकि फिलहाल परिस्थितियां 2015 जैसी नहीं हैं और पिछले सात वर्षों में तेजस्वी राजद के युवा विकल्प के रूप में उभरे हैं। अगर नीतीश महागठबंधन में वापस आते भी हैं तो राजद अब शायद ही नीतीश को चुनाव पूर्व अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करे, जैसा उसने सात वर्ष पहले किया था। लेकिन अनुभवी नीतीश जानते हैं कि राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है। 2015 और 2020 के विधानसभा चुनावों में दोनों बार उनके सहयोगी दलों को उनकी पार्टी से ज्यादा सीटें आईं, लेकिन दोनों बार नीतीश ही गठबंधन सरकार के मुखिया बने। दरअसल, एक-दूसरे के धुर विरोधी राजद और भाजपा दोनों एक साथ नहीं आ सकते जब तक कोई राजनैतिक चमत्कार न हो जाए।
पैठ बढ़ाने की कोशिशः जातिगत गणना पर सर्वदलीय बैठक में नीतीश, तेजस्वी और अन्य नेता
इसलिए, दोनों दलों को बहुमत के लिए नीतीश की जरूरत रही है। पिछले 17 साल में हर विधानसभा और लोकसभा चुनाव में जदयू को 15 से 25 प्रतिशत तक मत प्राप्त हुए हैं। 2020 में भले ही पार्टी को मात्र 43 सीटों पर जीत मिली, उसका मत प्रतिशत राजद के 23.11 और भाजपा के 19.46 के मुकाबले 15.39 प्रतिशत रहा है। जाहिर है, प्रदेश में जदयू जिसके साथ रहेगी उसी की सरकार बनने की संभावना है। पिछले तीन कार्यकाल में नीतीश ने कुछ सोशल इंजीनियरिंग के माध्यम से और कुछ जातपात से इतर अपना एक विशेष महिला वोट बैंक बनाकर अपनी स्थिति मजबूत ही की है, जिसका असर चुनाव परिणामों में दिखा है। यही वह शक्ति है जो नीतीश को कम से कम प्रदेश की राजनीति में अपने सहयोगी और विरोधियों से एक साथ ‘माइंड गेम’ खेलने की सहूलियत प्रदान कर रही है। हालांकि जदयू के नेता संख्याबल का हवाला देकर इस संभावना से इनकार करते हैं कि नीतीश आगामी चुनाव में साझा विपक्ष के प्रधानमंत्री उम्मीदवार होंगे, लेकिन वे यह कहने से भी गुरेज नहीं करते कि नीतीश अपने विकास कार्यों के ट्रैक रिकॉर्ड के कारण “पीएम मटेरियल” हैं। कई राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि नीतीश की “बीच की राजनीति” में कई संकेत छिपे हैं, जिसका भाजपा को भी भान है।
शायद इसलिए, 2020 के चुनाव परिणाम आने के बाद से ही भाजपा की ओर से नीतीश को साधने की कोशिश होती रही है। पार्टी ने न सिर्फ नीतीश के करीबी समझे जाने वाले सुशील कुमार मोदी वाली टीम के वरिष्ठ नेताओं को हटा कर नए मंत्री बनाए, बल्कि अरुणाचल में जदयू के सात में से छह विधायकों को अपने खेमे में किया। बिहार में भाजपा नेताओं ने नीतीश को नशाबंदी और बिगड़ती कानून व्यव्यस्था पर सदन के भीतर और बाहर घेरने की भी कोशिश की, लेकिन अभी तक भाजपा को कथित रूप से नीतीश के कमजोर करने के वांछित परिणाम नहीं मिले। शायद यही वजह है कि गठबंधन के भीतर नीतीश के साथ अपने एजेंडे पर तमाम अंतर्विरोध और तनाव के बावजूद पार्टी के लिए जदयू के साथ डबल इंजन की सरकार चलाने की सियासी जरूरत भी है और शायद विवशता भी। लेकिन फिलहाल यह भविष्य के गर्भ में है कि यह ट्रेन 2024 तक ट्रैक पर सरपट दौड़ेगी, या जैसा राजद का मानना है, उससे पहले ही बेपटरी हो जाएगी?