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नीतीश कुमार की राजनीति का "डीएनए", जानिए कितनी बार बदला पाला

बिहार के हरनौत में स्वतंत्रता सेनानी के घर पैदा हुए नीतीश को बचपन में मुन्ना कहा जाता था। नीतीश के पिता आयुर्वेद का काम भी करते थे और नीतीश उनका साथ देते थे और दवा की पुड़िया बांधते थे। उनके पिता कांग्रेस से जुड़े रहे थे। उनके पिता ने 1952 और 57 के आम चुनाव में कांग्रेस से टिकट मांगा लेकिन कांग्रेस ने मना कर दिया। इस वजह से उनके पिता बाद में कांग्रेस छोड़कर जनता पार्टी के साथ चले गए थे।
नीतीश कुमार की राजनीति का

26 जुलाई को बिहार की राजनीति में आई उठा-पटक ने नीतीश कुमार को एक बार फिर अपने पुराने साथी एनडीए की तरफ खींच लिया। बता दें कि नीतीश कुमार ने तेजस्वी यादव पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों पर महागठबंधन से किनारा कर लिया। ऐसा उन्होंने अपनी ''अंतरात्मा की आवाज़'' पर किया लेकिन सब कुछ पहले से तय लग रहा था। इस्तीफा देने के बाद भाजपा ने उन्हें समर्थन देने की घोषणा भी कर दी और अब नीतीश एनडीए के सहयोग से फिर से सत्ता में काबिज हो रहे हैं।

नीतीश राजनीति के चालाक खिलाड़ी बन चुके हैं। कुछ भी हो जाए, वे सत्ता में बने रहते हैं। जिस नरेंद्र मोदी का वे विरोध करते रहे, आज फिर उन्हीं के साथ खड़े हैं। नीतीश कुमार अवसरवाद के ऐसे कदम पहले भी उठाते रहे हैं। जो लोग उनकी राजनीति को समझते हैं, उनके लिए यह कतई चौंकाने वाली बात नहीं थी। आइए, नीतीश कुमार के सियासी सफर पर एक नजर डालते हैं।

जेपी आन्दोलन से निकलें हैं नीतीश

नीतीश कुमार की जड़ें वहीं से जुड़ी हैं,जहां से जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, कर्पूरी ठाकुर, वी पी सिंह जैसे लोग जुड़े रहे हैं। जेपी आन्दोलन के दौरान लालू, राम विलास पासवान जैसे कई छात्र नेता बिहार से निकले। नीतीश कुमार भी इनमें से एक थे।

बिहार के हरनौत में स्वतंत्रता सेनानी के घर पैदा हुए नीतीश को बचपन में मुन्ना कहा जाता था। नीतीश के पिता बख्तियारपुर कस्बे में आयुर्वेद का काम भी करते थे और नीतीश उनका साथ देते थे और दवा की पुड़िया बांधते थे। उनके पिता कांग्रेस से जुड़े रहे थे। उनके पिता ने 1952 और 57 के आम चुनाव में कांग्रेस से टिकट मांगा लेकिन कांग्रेस ने मना कर दिया। इस वजह से उनके पिता बाद में कांग्रेस छोड़कर जनता पार्टी के साथ चले गए थे। 

नीतीश ने बिहार इंजीनियरिंग कॉलेज (अब एनआईटी) से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की। जेपी आन्दोलन ने छात्रों पर काफी प्रभाव डाला था। नीतीश कुमार ने जेपी आन्दोलन में 1975 से 77 के बीच जमकर हिस्सा लिया और यहीं से उनमें राजनीति का कीड़ा जागा।

लालू से दोस्ती, फिर दूरियां

साल 1977 और 1980 में उन्होंने राजनीति में पहली बार अपनी किस्मत आजमाई। हरनौत विधानसभा से उन्होंने चुनाव लड़ा लेकिन हार गए। उनके करीबी बताते हैं कि वे कहते थे कि मैं हर हाल में सत्ता लेकर रहूंगा और इसके लिए हर हथकंडा अपनाऊंगा लेकिन सत्ता का इस्तेमाल अच्छे काम के लिए करूंगा। इसी के चलते नीतीश को 1985 में हरनौत विधानसभा से पहली सफलता मिली। इसके बाद 1987 में उन्हें बिहार युवा लोक दल की कमान मिली। इस समय तक लालू प्रसाद यादव बिहार राजनीति के बड़े चेहरे बन चुके थे और नीतीश उन्हें अपना बड़ा भाई मानते थे।

इसी समय केंद्र की राजनीति में बड़े बदलाव हो रहे थे। वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल बना था। लालू और नीतीश बिहार में जनता दल के सबसे बड़े चेहरे बने। नीतीश को पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ने का मौका मिला और वे जीत भी गए। 1989 में वीपी सिंह की सरकार में कृषि राज्य मंत्री बने।

इसके अगले साल 1990 में लालू बिहार के मुख्यमंत्री बन गए और नीतीश ने उनका साथ दिया लेकिन लालू के साथ उनकी दोस्ती ज्यादा दिन नहीं चली। नीतीश पर लिखी किताब 'सिंगल मैन' के लेखक संकर्षण ठाकुर लिखते हैं कि लालू और नीतीश के बीच मतभेद बहुत बढ़ गए थे।

लालू को लगने लगा था कि नीतीश उनकी सरकार हथियाना चाहते हैं। संकर्षण ठाकुर के मुताबिक नीतीश ने एक दफे कहा था कि अब उनके साथ चल पाना मुश्किल है। नीतीश ने लालू यादव का साथ छोड़ दिया और उसके एक साल बाद ही चुनाव होने थे।

समता पार्टी का गठन और भाजपा का साथ

अक्टूबर 1994 में नीतीश ने जॉर्ज फर्नांडीज की अध्यक्षता में समता पार्टी बनाई लेकिन 1995 के विधानसभा चुनाव में नीतीश की समता पार्टी को सिर्फ सात सीटें मिलीं। नीतीश को लगा सिर्फ लालू विरोध और अपने कुर्मी वोट बैंक की बदौलत वे अपनी पार्टी के लिए ज़मीन नहीं तैयार कर सकते। उन्हें ज़रूरत थी एक नए साथी की। यहां से वे भाजपा की तरफ मुड़े।

भाजपा के लिहाज से भी यह गणित ठीक थी क्योंकि उस पर साम्प्रदायिक पार्टी होने का ठप्पा था। बाबरी विध्वंस के अभ्‍ाी तीन साल ही हुए थे और सहयोगी दलों के नाम पर भाजपा के पास अकाली दल और शिव सेना ही थे। यह गठबंधन अवसरवादी भी था। नीतीश शुरू से अवसरवादी रहे हैं। जिस चीज की मुखालफत करते थे, उसी के साथ खड़े हो जाते हैं। नीतीश का दांव सही पड़ा। 1998 और 1999 में केंद्र में एनडीए की सरकार बनी तो नीतीश ने उसमें रेलवे, कृषि और सड़क परिवहन मंत्रालय संभाला। 

बिहार की राजनीति में पकड़

साल 2000 में नीतीश ने पहली बार बीजेपी के साथ मिलकर बिहार विधानसभा का चुनाव लड़ा। उन्हें फायदा तो मिला लेकिन बहुमत से 41 सीटें पीछे रह गए। सत्ता के इतने नजदीक पहुंचने पर उनसे मुख्यमंत्री बनने का मोह छोड़ा न गया। बहुमत न होने के बावजूद वे सात दिनों तक मुख्यमंत्री रहे। विश्वास प्रस्ताव के पहले ही उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया था क्योंकि लालू ने 23 सीटों वाली कांग्रेस को अपने पक्ष में कर लिया था। कहा जाता है कि तब नीतीश आज की तरह राजनीतिक रूप से परिपक्व नहीं थे।

गोधरा कांड के बाद नहीं छोड़ा रेल मंत्री का पद 

मुख्यमंत्री की गद्दी गई तो नीतीश फिर से केंद्र में मंत्री बन गए। साल 2002 में गुजरात में दंगे हुए। गोधरा में जब साबरमती एक्सप्रेस जलायी गई, तब नीतीश रेल मंत्री हुआ करते थे लेकिन उन्होंने एनडीए का साथ नहीं छोड़ा। गोधरा कांड पर नीतीश ने रेल मंत्री रहते हुए कहा था कि रेल मंत्रालय का काम है, अगर रेल से जुड़ी कोई समस्या है तो उसे देखना। जैसे रेल पटरी से उतर गई या टक्कर हो गई। अगर पब्लिक ऑर्डर की समस्या है, लॉ एंड ऑर्डर समस्या है तब जिम्मेदारी राज्यों की रहती है।

अरुण सिन्हा अपनी किताब में उनके एक बयान का हवाला देते हैं। नीतीश ने गुजरात दंगों पर कहा था कि मेरा निशाना लालू थे। मोदी के मुद्दे पर एनडीए छोड़ने से मुझे मेरा लक्ष्य हासिल करने में कोई मदद नहीं मिलती। बिहार में वोट वहां पर शासन चलाने के आधार पर मिलता न कि गुजरात में। वैसे भी बिहार में बीजेपी को साथ लिए बिना लालू को हटाना संभव नहीं था।

नीतीश केंद्र में भी बने रहना चाहते थे लेकिन बिहार की राजनीति पर भी नजर गड़ाए हुए थे। समता पार्टी के अपने सफर के दौरान साल 2003 में जनता दल यूनाटेड (JDU) बन गई। 

बिहार मुख्यमंत्री के रूप में वापसी और नरेंद्र मोदी से बढ़ती दूरियां

2005 में बिहार में विधानसभा चुनाव थे। नीतीश खुद की विकासपुरुष और सेक्युलर नेता की छवि बनाना चाहते थे। तब नीतीश ने बीजेपी को इस बात के लिए राजी किया कि अगर बिहार में सत्ता में आना है तो नरेंद्र मोदी को दूर रखना होगा। साल 2005 में नीतीश ने लालू के 15 साल के राज को खत्म कर दिया और वे बहुमत के साथ दूसरी बार मुख्यमंत्री बने। नीतीश ने ओबीसी और महादलितों का वोट साधा वहीं बीजेपी की वजह से उन्हें सवर्णों के वोट मिले। इसे नीतीश कुमार की सोशल इंजीनियरिंग कहा गया। उन्हें सुशासन बाबू भी कहा जाने लगा।

जब नीतीश ने भाजपा नेताओं का डिनर कैंसल कर दिया था

2009 के लोकसभा चुनाव में भी उन्होंने मोदी को बिहार आने से मना कर दिया लेकिन 2009 में लुधियाना की एक रैली में नीतीश और मोदी हाथ मिलाकर लोगों का अभिवादन करते नजर आए। इसके बाद 2010 में गुजरात सरकार ने बिहार को बाढ़ में मदद करने की बात मीडिया को बताई। इस पर नीतीश भड़क गए थे।

इसी दौरान बिहार में बीजेपी कार्यकारिणी की बैठक थी। नीतीश ने बीजेपी नेताओं के लिए डिनर दिया था लेकिन गुजरात वाली बात पर न सिर्फ उन्होंने डिनर कैंसल कर दिया बल्कि गुजरात की तरफ से दिया गया पांच करोड़ का चेक भी लौटा दिया। नीतीश ने कहा था कि जो दान दिया जाता है, उसका बखान नहीं किया जाता फिर हजारों करोड़ रुपयों में पांच करोड़ तो दान भी नहीं हैं। नीतीश ने 2010 में एनडीए से गठबंधन तोड़ने की धमकी भी दी लेकिन टिके रहे और मोदी का विरोध करते रहे।

2010 के बिहार चुनाव में फिर एनडीए की जीत हुई और उसे 206 सीटें मिलीं। जदयू को 115 सीटें मिलीं।

एनडीए से अलग किया रास्ता

इसके बाद आया साल 2013, जब मोदी को भाजपा ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया। यहां नीतीश भड़क गए और सांप्रदायिकता के सवाल पर नीतीश ने बीजेपी से 17 साल पुराना नाता तोड़ लिया लेकिन उनकी अल्पमत सरकार चलती रही। जो बात उन्होंने गुजरात दंगों के दौरान कभी नहीं कही, वह अब कही। 20 जनवरी 2014 को उन्होंने कहा कि गुजरात में जो कुछ भी हुआ उसकी कभी माफ़ी नहीं हो सकती।

धुर दुश्मन लालू का फिर साथ

2014 के लोकसभा चुनाव में नीतीश की पार्टी को भारी हार का सामना करना पड़ा। नीतीश ने चुनाव नतीजों के दूसरे दिन मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री की कमान सौंपी गई और 2015 के विधानसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी गई। पिछले 18 सालों तक एक-दूसरे के खिलाफ राजनीति करने वाले लालू-नीतीश ने सांप्रदायिक ताकतों के हराने के नाम पर गठजोड़ का एेलान किया। विधानसभा चुनाव हुए। गठबंधन को भारी जीत मिली। जीतनराम मांझी से टकराव के बाद नीतीश सीएम और लालू के बेटे डिप्टी सीएम बने।

कुल कितनी बार पाला बदला नीतीश ने-

1994- लालू से अलग होकर समता पार्टी का गठन

1996-  भाजपा की तरफ रुख, समता पार्टी का भाजपा के साथ गठबंधन

2005-13- एनडीए के गठबंधन से सरकार चलाते रहे। 

2013- एनडीए से अलग हुए

2014- लोकसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा

2015- लालू के साथ महागठबंधन

2017- फिर से एनडीए के साथ

''घर-वापसी''

महागठबंधन तोड़कर आज फिर जब नीतीश भाजपा की तरफ जा रहे हैं, ऐसे में 17 अप्रैल, 2016 को दिया गया उनका बयान याद आता है। उन्होंने कहा था, ''अब ऐसी परिस्थिति में, आज सीधे दो धुरी होगी। बीजेपी एक तरफ है और दूसरी तरफ सब लोगों को मिलना पड़ेगा, वरना अलग-अलग रहेंगे तो ये अलग-अलग सबका बुरा हाल कर देगी। एक बार लोहिया जी ने गैर कांग्रेसवाद की बात कही थी। आज वही दौर आ गया है जब आपको गैर संघवाद करना पड़ेगा। संघ मुक्त भारत बनाने के लिए सभी गैर-बीजेपी पार्टी को एक होना होगा।''

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