“चुनाव की तारीखें जल्द घोषित हो गईं तो इससे आजाद की पार्टी को काफी फायदा मिलेगा, उसी नतीजे पर 2024 की जंग भी निर्भर करेगी”
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद का इस्तीफा भले ही दिल्ली में हुआ लेकिन उसका असर जम्मू-कश्मीर में महसूस किया जा रहा है। एक दिन भी नहीं बीतता जब आजाद से वफादारी दिखाते हुए जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस पार्टी का कोई बड़ा नेता इस्तीफा न दे रहा हो। कांग्रेस से इस्तीफे के बाद से आजाद ने जम्मू-कश्मीर में सियासी हालात को ऐसा बदला है कि लंबे समय से यहां ठप पड़ी सियासी फिजा में अब हरकत पैदा हो गई है। न केवल कांग्रेस बल्कि दूसरे राजनीतिक दलों से भी इस्तीफे हो रहे हैं और इस्तीफा देने वाले नेता आजाद के पीछे खड़े हो रहे हैं।
इस उथल-पुथल के बीच उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा रोजाना नए राजनीतिक बयान दे रहे हैं। हाल ही में उन्होंने कहा कि वह दौर गया जब कश्मीर में नौकरियां बेची जाती थीं। उन्होंने कहा कि पत्थरबाजी के दिन चले गए, अब साल भर में आतंकवाद भी खत्म हो जाएगा।
पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने उप-राज्यपाल के इस बयान का मजाक उड़ाते हुए कहा है कि सिन्हा के राज को केवल एक चीज का श्रेय जाता है, भर्ती के मुकाबले ज्यादा मुअत्तली का। पार्टी के मुताबिक केंद्र के प्रत्यक्ष शासन में यहां जितने घोटाले हुए हैं, उतना तो बीते 70 साल में भी सारी एजेंसियां मिलकर साबित नहीं कर सकती हैं। हाल में जम्मू-कश्मीर में कई भर्ती परीक्षाएं इसलिए रद्द करनी पड़ी हैं क्योंकि उनके परचे पहले ही बिक चुके थे।
इस बीच आजाद की वापसी की छाया यहां हर चीज पर पड़ रही है। उसने अपनी पार्टी के नेताओं को बेचैन कर दिया है। वे आजाद की आलोचना करते हुए उन्हें एक नाकाम मुख्यमंत्री करार दे रहे हैं जो राज्य में कोई निवेश और उद्योग नहीं ला सका। नेशनल कॉन्फ्रेंस, भाजपा, पीडीपी और कांग्रेस आजाद को लेकर शांत हैं। ऐसा लगता है कि आजाद के इन सभी दलों के साथ अच्छे रिश्ते हैं और हर कोई इस पर निगाह गड़ाए हुए है कि उनकी सियासत यहां किस करवट बैठती है।
आजाद को लेकर अपनी पार्टी की चिंताओं में कुछ वास्तविकता है। कश्मीर से 5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद अपनी पार्टी का गठन पहली बड़ी सियासी पहल थी। तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों फारुक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती सहित नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी के हजारों नेताओं की गिरफ्तारी की सूरत में उपजे राजनीतिक शून्य को भरने के लिए यह पार्टी बनाई गई थी।
अपनी पार्टी के अध्यक्ष सैयद अल्ताफ बुखारी ने 25 जनवरी 2021 को नई दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की। उन्होंने जम्मू-कश्मीर में 4जी मोबाइल इंटरनेट सेवाओं पर लगी बंदिश को हटाने, घाटी में कश्मीरी पंडितों की वापसी और पुनर्वास तथा राज्य का दरजा वापस दिए जाने की मांग की थी।
कारोबारी से नेता बने बुखारी पहले पीडीपी के साथ हुआ करते थे और पीडीपी-भाजपा सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं, जहां उन्होंने शिक्षा, सार्वजनिक कार्य और वित्त का पद संभाला था। उन्होंने 8 मार्च, 2020 को अपनी पार्टी का गठन किया जब महबूबा मुफ्ती जेल में थीं। नेशनल कॉन्फ्रेंस और अन्य दल अपनी पार्टी को कश्मीर में भाजपा की बी टीम कहते हैं।
फारूक अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती और उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा
अपनी पार्टी में पीडीपी और कांग्रेस के पूर्व विधायक शामिल हैं, जैसे दिलावर मीर, जावेद बेग, शोएब लोन, एजाज अहमद खान, रफी अहमद मीर, उस्मान मजीद और विक्रम मल्होत्रा, पूर्व मुख्य सचिव विजय बकाया और सीनियर गुलाम हसन मीर, आदि। बुखारी को डर है कि ये सारे नेता कहीं उनकी पार्टी को छोड़कर आजाद के साथ न चले जाएं और वे अकेले न पड़ जाएं।
बीते 4 सितंबर को जम्मू में आयोजित एक विशाल रैली में आजाद ने अपनी नई पार्टी का एक खाका सामने रखते हुए जम्मू-कश्मीर को राज्य का दरजा दिलवाने, रोजगार और जमीन को बचाने का आह्वान किया। ये सभी मुद्दे लोगों के दिल से जुड़े हैं, लिहाजा, आजाद के समर्थन में वहां नारे लगे और लोगों ने खुले दिल से उनका अभिवादन किया।
आजाद ने स्पष्ट किया कि बाहरी लोगों को जम्मू-कश्मीर में जमीन नहीं खरीदने दी जाएगी और रोजगार नहीं दिया जाएगा। उन्होंंने कहा, ‘‘जम्मू-कश्मीर में कितने रोजगार हैं? हमारे यहां की नौकरियों का विज्ञापन राष्ट्रीय स्तर पर होगा तो हमारे नौजवान कुछ नहीं कर पाएंगे।’’
जम्मू के हिंदुओं को रिझाने के लिए आजाद ने आखिरी डोगरा शासक महाराज हरि सिंह की सराहना करते हुए उन्हें ऐसा दूरदर्शी बताया, जिन्होंने भूमि कानून लाकर अगले 70 साल के लिए जम्मू-कश्मीर के लोगों के लिए रोजगार और जमीन कायम रखने की व्यवस्था की। वे कहते हैं कि उनकी पार्टी दोनों क्षेत्रों के समान विकास के लिए काम करेगी, जम्मू के ढाई लाख बेघरों को आवास दिलवाएगी, जिला स्तर पर खेल के ढांचे को विकसित करेगी, आइटी पार्क बनाएगी और स्वास्थ्य सेवाओं को बढ़ावा देगी।
आजाद ने कहा कि कठुआ और सांबा जिलों में उद्योग ठप हो रहे हैं और अनुच्छेद 370 के हटने के बाद से जम्मू-कश्मीर में 60 से 70 प्रतिशत उद्योग बंद हो चुके हैं, जिससे हजारों लोग बेरोजगार हो गए हैं। उन्होंने कहा, ‘‘जम्मू के बीमार उद्योगों को जिंदा करने की बहुत जरूरत है ताकि लोगों की मदद हो सके, ज्यादा से ज्यादा कौशल प्रशिक्षण संस्थान खुल सकें और हमारे कार्यबल को प्रशिक्षित किया जा सके।’’
फिलहाल सभी राजनीतिक दल जम्मू-कश्मीर में चुनाव का इंतजार कर रहे हैं। अगर निर्वाचन आयोग ने तारीखें जल्द घोषित कर दीं तो इससे आजाद की पार्टी को काफी फायदा मिलेगा। 2014 के चुनाव में पीडीपी को 28 सीटें मिली थीं और सदन में वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। उसने भाजपा के सहयोग से सरकार बनाई थी, जिसे 25 सीटें मिली थीं। नेशनल कॉन्फ्रेंस को तब 15 सीटें मिली थीं। पीडीपी के सारे नेता अपनी पार्टी में चले गए, तो पीडीपी अब नाम की रह गई है। इसलिए अपनी पार्टी से अगर बड़ी संख्या में नेता आजाद की पार्टी में चले आते हैं तो उनकी पार्टी की स्थिति काफी मजबूत हो जाएगी।
परिसीमन आयोग ने भले ही मई में अपनी रिपोर्ट देकर जम्मू-कश्मीर असेंबली की सीटों की संख्या 87 से बढ़ाकर 90 करने की सिफारिश की है, जिसमें छह सीटें जम्मू में और एक कश्मीर में बढ़ेगी, इसके बावजूद जम्मू में भाजपा बहुत मजबूत स्थिति में नहीं होगी। जम्मू् में एक बड़ा तबका है जो सरकार की खनन नीति से खुश नहीं है। उन्हें बाहरी लोगों द्वारा स्थानीय रोजगार छीन लेने की भी चिंता है। इससे आजाद की पार्टी को एक लाभ तो मिलेगा।
आजाद के साथ जा चुके कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ताज मोहिदीन कहते हैं कि घाटी में आजाद को बाहरी नहीं माना जाता। उन्हें उनके किए विकास कार्यों के लिए लोग याद रखे हुए हैं। जम्मू के लोगों को भी उनमें भरोसा है। वे कहते हैं, ‘‘राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दों पर उनका नजरिया राष्ट्रवादी है और जनता को उनका एजेंडा मालूम है। वे ऐसे शख्स नहीं हैं कि श्रीनगर में एक बात बोलें और दिल्ली में कुछ और। यही उनकी ताकत है।’’
राजनीतिक विश्लेषक जफर चौधरी मोहिदीन की बात से इत्तेफाक रखते हैं कि अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के बाद से भाजपा की सरकार ने बहुत चुनौतियों का सामना किए बगैर जम्मू-कश्मीर में कई कानूनी व संवैधानिक बदलाव किए हैं। वे कहते हैं कि भाजपा चाहेगी कि जम्मू-कश्मीर में ऐसा मुख्यमंत्री हो जो उनका विश्वासपात्र हो और अनुच्छेद 370 जैसे मसलों पर उनका समर्थन करे। चौधरी के मुताबिक, अगले छह महीने में चुनाव हो जाते हैं तो इससे आजाद की पार्टी को बहुत फायदा होगा और यहां की किस्मत वही तय करेगी।
कुछ आलोचक बेशक हैं जो इस बात पर शक जताते हैं कि जम्मू-कश्मीर की जनता आजाद को कुछ देगी। कश्मीर के एक विश्लेषक कहते हैं, ‘‘भाजपा का समूचे जम्मू-कश्मीर पर आज पूरा नियंत्रण है। कोई पत्थरबाजी नहीं है, आतंकवाद अपने न्यूनतम स्तर पर है और हड़ताल की आवाजें भी नहीं उठ रही हैं। सरकार ने भू-उपयोग नीति को बदलने का कानून पास कर दिया और कोई विरोध तक नहीं हुआ। अब वह बाहर के लोगों को मताधिकार देकर जम्मू-कश्मीर की जनसंख्यागत स्थिति को हमेशा के लिए बदल देने की बात कर रही है।’’ वे कहते हैं कि भाजपा ने जम्मू-कश्मीर में यह सब इसलिए नहीं किया कि आजाद को अपनी पार्टी बनाने का एक आसान रास्ता मुहैया करवा सके ताकि वे मुख्यमंत्री बन जाएं और राज्य का दरजा बहाल करने की मांग उठा सकें। ऐसा सोचना कल्पना से आगे की बात होगी। उनका मानना है कि जम्मू-कश्मीर में आजाद कमोबेश वही भूमिका निभाएंगे जो बाकी देश में असदुद्दीन ओवैसी निभा रहे हैं और चुनाव के बाद आजाद राज्यसभा वापस चले जाएंगे।