राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी (रालोसपा) के सर्वेसर्वा और केंद्रीय मानव संसाधन राज्यमंत्री उपेंद्र कुशवाहा यू्ं तो राजनीति के मंझे खिलाड़ी माने जाते हैं। लेकिन, अबकी बार भाजपा पर दबाव बनाने का दांव भारी पड़ता दिख रहा है। वो भी इतना कि शनिवार को रालोसपा की पटना में हुई जिस बैठक से ‘बड़ी घोषणा’ की अटकलें लगाई जा रही थी, वह भी भाजपा को अल्टीमेटम देने तक ही सीमित रह गया। रालोसपा नेताओं ने इस मौके का इस्तेमाल भाजपा नीत एनडीए के घटक दल जदयू और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर हमले के एक और मौके के तौर पर किया। बीते साल एनडीए में जदयू की वापसी के बाद से ही रालोसपा नेता गाहे-बगाहे यह काम करते रहे हैं और जब से भाजपा-जदयू ने बिहार में लोकसभा चुनाव बराबर सीटों पर लड़ने का ऐलान किया है, तब से रालोसपा के नेताओं का यह हर रोज का काम हो गया है।
पार्टी कार्यकारिणी की बैठक के बाद कुशवाहा ने पत्रकारों से बात करते हुए कहा कि भाजपा की ओर से दिया गया प्रस्ताव रालोसपा को मान्य नहीं है। भाजपा को फैसला लेने के लिए 30 नवंबर तक का समय दिया गया है, उसके बाद पार्टी अपना रुख स्पष्ट करेगी। फिलहाल रालोसपा एनडीए में ही बनी रहेगी। इससे पहले बैठक में प्रस्ताव पास करते हुए नीतीश कुमार के उस बयान की निंदा की गई जिसमें उन्होंने कथित तौर पर कुशवाहा के लिए ‘नीच’ शब्द का इस्तेमाल किया था। इस बयान के लिए माफी मांगने की मांग के साथ ही रालोसपा ने 28 नवंबर को ऊंच-नीच विरोध दिवस मनाने का फैसला किया है। नीतीश कुमार के खिलाफ जोरदार नारेबाजी के बीच रालोसपा नेताओं ने अपने विधायकों को तोड़ने का आरोप भी जदयू पर लगाया।
इस बैठक के लिए कुशवाहा शनिवार की सुबह दिल्ली से पटना गए थे। इससे पहले वे शाह यानी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के बुलावे का इंतजार करते रहे। जैसा कि रालोसपा महासचिव सह प्रवक्ता माधव आनंद ने आउटलुक को बताया, “सीट शेयरिंग पर बातचीत के लिए दो बार अमित शाह से पार्टी वक्त मांग चुकी है। उपेंद्र कुशवाहा उनके साथ बैठक के लिए ही गुरुवार को दिल्ली लौटे थे। लेकिन, शाह ने मुलाकात का वक्त नहीं दिया। हमने उनसे कहा था कि यदि दिन के वक्त पूर्व निर्धारित कार्यक्रमों के कारण वे व्यस्त हैं तो रात में भी दोनों नेता बैठकर सीटों का मसला सुलझा सकते हैं।” लेकिन, शुक्रवार की रात भी रालोसपा प्रमुख इंतजार करते ही रह गए और कुशवाहा को शाह का बुलावा नहीं आया।
गौरतलब है कि 30 अक्टूबर को भाजपा महासचिव और बिहार के प्रभारी भूपेंद्र यादव ने कुशवाहा के साथ बैठक में स्पष्ट कर दिया था कि रालोसपा को एनडीए गठबंधन में बिहार में किसी सूरत में दो से ज्यादा लोकसभा सीट नहीं दी जा सकती है। 2014 के लोकसभा चुनाव में रालोसपा के खाते में तीन सीटें आई थी, लेकिन उस वक्त जदयू एनडीए के साथ नहीं था। बताया जाता है कि रालोसपा तीन से ज्यादा सीटों की मांग कर रहा है। माधव आनंद ने बताया कि रालोसपा तीन से कम सीटों पर कोई समझौता नहीं करेगी। उन्होंने बिहार में एनडीए में सब कुछ ठीक नहीं होने की बात कहते हुए भाजपा पर जदयू के सामने घुटने टेकने का आरोप लगाया। साथ ही कहा कि जो लोग नरेंद्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनते नहीं देखना चाहते वे एनडीए में रालोसपा को नहीं चाहते। इसलिए, रालोसपा ने अपने सभी विकल्प खुले रखे हैं।
लेकिन, बिहार की राजनीति के गहरे जानकार समाजशास्त्री नवल किशोर चौधरी का कहना है कि दबाव बनाने की रणनीति में कुशवाहा इस कदर उलझ गए हैं कि अब उनके लिए निणार्यक फैसला करना मुश्किल होता जा रहा है। उन्होंने आउटलुक को बताया,“अमित शाह से मुलाकात का समय नहीं मिलने के बावजूद कुशवाहा बार-बार यह दिखने की कोशिश कर रहे हैं उनका विवाद नीतीश कुमार और जदयू से है, भाजपा से नहीं। जबकि भाजपा उनको स्पष्ट संकेत दे चुकी है कि एनडीए में रहना है तो उन्हें उनकी शर्तों यानी दो सीटों पर संतोष करना पड़ेगा।” चौधरी के मुताबिक चुनाव से छह महीने पहले फैसला लेकर कुशवाहा मंत्री पद के कारण मिलने वाली सुविधाओं से हाथ नहीं धोना चाहेंगे। इससे उनका रसूख कम ही होगा। साथ ही वे जानते हैं कि महागठबंधन में जाने पर भी मुख्यमंत्री बनने का सपना पूरा नहीं होगा। इसलिए, साख बचाने के लिए वे महागठबंधन में यदि जाएंगे भी तो आखिरी क्षणों में ही।
महागठबंधन की तरफ से कई मौकों पर सार्वजनिक आमंत्रण मिलने और भाजपा-जदयू की दो टूक के बावजूद कुशवाहा के एनडीए नहीं छोड़ने से इन अटकलों को हवा भी मिल रही है। बताया जाता है कि कुशवाहा ने महागठबंधन से छह लोकसभा सीटों की मांग की है और राजद किसी सूरत में चार से ज्यादा देने को तैयार नहीं है। इसके अलावा राजद और उसके सहयोगियों को 26 अक्टूबर को अरवल में कुशवाहा और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव की मुलाकात के बाद से रालोसपा का रूख भी नहीं भा रहा। इस मुलाकात को ‘संयोग’ बता कुशवाहा जिस तरह शाह से मुलाकात का बार-बार वक्त मांग रहे हैं, उस पर पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी सहित महागठबंधन के कई नेता खुलकर नाराजगी जता चुके हैं।
कुशवाहा की परेशानी यह भी है कि एनडीए और महागठबंधन को लेकर खुद उनकी पार्टी में एक राय नहीं दिखती। पार्टी के कार्यकारी उपाध्यक्ष नागमणि जहां महागठबंधन के साथ जाने के हिमायती बताए जाते हैं, वहीं उपाध्यक्ष भगवान सिंह कुशवाहा एनडीए में ही बने रहने के पक्ष में माने जाते हैं। बिहार में पार्टी के दो विधायक हैं। इनमें से एक ललन पासवान ने खुलकर कह दिया है कि यदि पार्टी महागठबंधन के साथ जाएगी तो वे रालोसपा के साथ नहीं रहेंगे। बताया जाता है कि पार्टी में टूट की आशंका को देखते हुए ही कुशवाहा अभी अपने पत्ते नहीं खोल रहे। जैसा कि नवल किशोर चौधरी ने आउटलुक को बताया, “रालोसपा जैसे दल प्राइवेट प्रोपर्टी की तरह हैं। बैठक या बातचीत से राह निकालने जैसी बात कुशवाहा सिर्फ समय गुजारने के लिए दे रहे हैं। जहां से उन्हें अपना सपना (मुख्यमंत्री बने का) पूरा होने की ज्यादा उम्मीद दिखेगी वे उसके साथ जाएंगे और यह सपना तेजस्वी यादव के रहते महागठबंधन में तो पूरा नहीं होने वाला।”