राजस्थान में कांग्रेस पार्टी चार साल बाद भी एकजुट नहीं हो पा रही है। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और प्रदेशाध्यक्ष सचिन पायलट के बीच चल रहा सियासी शीतयुद्ध थमने का नाम नहीं ले रहा है। इस बीच गुरूवार को राष्ट्रीय महासचिव, पूर्व केंद्रीय मंत्री और राज्य कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सीपी जोशी ने सचिन पायलट के नेतृत्व में ही विधानसभा चुनाव लड़ने की बात कहकर एक नई बहस को जन्म दे दिया। जोशी ने टोंक जिले में कांग्रेस द्वारा 'मेरा बूथ मेरा गौरव अभियान' की शुरुआत के मौके पर पार्टी के प्रदेश प्रभारी अविनाश पाण्डे की मौजूदगी में यह बयान दिया। जोशी के इस बयान के बाद राज्य कांग्रेस में सियासी तूफान खड़ा हो गया, हालांकि अभी पूर्व सीएम अशोक गहलोत कर्नाटक चुनाव प्रचार में व्यस्त हैं। ऐसे में उनकी तरफ से इस बयान को लेकर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है, लेकिन जिस तरह से पायलट के पक्ष में बोलने पर गहलोत के द्वारा प्रतिक्रिया मिलती है, उससे साफ उम्मीद है कि कल या परसों तक अशोक गहलोत इस मामले में अपना पक्ष रखें।
इससे पहले अशोक गहलोत को राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बनाए जाने से लेकर अब तक उन्होंने मीडिया के समक्ष बार—बार यह कहा है कि वह राजस्थान छोड़कर नहीं जा रहे हैं, मतलब पायलट को साफ संदेश है, कि मुख्यमंत्री की उम्मीदवारी तक पहुंचने के लिए उनकी डगर इतनी आसान नहीं है। बीते दिनों के बयानों की बात करें तो किसी न किसी रूप में गहलोत ने सचिन पायलट को खुद के मुकाबले सीएम की रेस में कमजोर ही बताने की कोशिशें की हैं। ऐसे समय में, जबकि नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी पहले से पायलट खेमे में मानें जाते हैं, तब सीपी जोशी द्वारा पायलट के नेतृत्व में चुनाव लड़ने का बयान गहलोत के लिए मुश्किलें और राज्य कांग्रेस की सियासत में चल रहे हालात को बयां करने के लिए काफी है।
पावर गेम में उलझी है कांग्रेस की सियासत
यह सर्वविदित हो चुका है कि कांग्रेस में आज की तारीख में दो खेमे काम कर रहे हैं। बीते दिनों राष्ट्रीय संगठन महामंत्री की हैसियत से अशोक गहलोत के द्वारा प्रदेश के 8 जिलाध्यक्ष बदलने के अगले ही दिन अध्यक्ष सचिन पायलट द्वारा आनन-फानन में 400 ब्लॉक अध्यक्ष बदल दिए गए। इस सूची को कितनी जल्दबाजी में जारी किया गया, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक मृत व्यक्ति को भी ब्लॉक अध्यक्ष बना दिया। सूची में धन्नासेठ, उनके बेटे-पोते और पार्टी पदाधिकारियों के भाई-भतीजों को जगह दी गई, जिससे पार्टी के कार्यकर्ताओं में गुस्सा व्याप्त है। बताया जा रहा है कि प्रदेश के जिलाध्यक्षों की सूची भी केंद्र से जारी की गई, जबकि यह अधिकार प्रदेश के अध्यक्ष का होता है। लेकिन यह सूची गहलोत द्वारा जारी की गई। प्रतिक्रिया स्वरूप आनन-फानन में ब्लॉक अध्यक्षों की सूची पायलट द्वारा घोषित की गई। साफतौर पर इस घटना को दोनों नेताओं के बीच पावर गेम के रूप में देखा जा रहा है।
पार्टी को नुकसान भी होगा ही
कांग्रेसी नेताओं का यह कदम निश्चित रूप से पार्टी को ही नुकसान पहुंचा रहा है, लेकिन न पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व का दखल है और न ही पार्टी प्रभारी अविनाश पाण्डे इस मामले में हस्तक्षेप कर रहे हैं। अगले 6 माह बाद पार्टी को चुनावी समर में जनता के समक्ष जाना है, और ऐसे वक्त में यदि पार्टी के नेता एकजुट नहीं होते हैं तो मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के प्रति जनता की नाराजगी के बावजूद मोदी-शाह की जोड़ी को पार पाना कांग्रेस के लिए किसी भी सूरत में आसान नहीं होगा। राज्य में एक बार फिर यदि बीजेपी रिपीट होती है तो कांग्रेस के लिए राजस्थान की सत्ता में निकट भविष्य में वापसी करने की संभावनाओं के रास्ते बंद हो सकते हैं। वैसे तो राजस्थान में बीते पच्चीस साल से एक बार बीजेपी, एक बार कांग्रेस सत्ता में आ रही है, लेकिन जिस तरह से मोदी-शाह की जोड़ी ने कांग्रेस मुक्त भारत का बीड़ा उठा रखा है, उसके चलते राज्य में कांग्रेस का सत्ता में लौटना आसान चुनौती नहीं है। ऐसे ही वक्त में यदि कांग्रेस नेता आपसी लड़ाई में उलझे रहे तो यह राह और भी कठिन हो जाएगी।
गहलोत जननेता, लेकिन पायलट चार साल से सक्रिय
अगर दोनों नेताओं की तुलना की जाए तो अशोक गहलोत राजस्थान में दो बार सीएम रह चुके हैं। वह जमीन से उठकर यहां तक पहुंचने वाले नेता हैं, ऐसे में कार्यकर्ताओं की नब्ज को भी अच्छे से जानते हैं। उनके मिलने का तरीका लोगों को पसंद है और राजनीति में उनको जादूगर यूं ही नहीं कहा जाता। गहलोत ने मुख्यमंत्री का पद तब संभाला था, जब राज्य में कांग्रेस जाट मुख्यमंत्री की लड़ाई से जूझ रही थी। साल 2008 में बहुमत नहीं होने के बाद भी सत्ता हासिल करना गहलोत के गहरे रणनीतिकार की भूमिका को पुख्ता करता है। इधर, सचिन पायलट राज्य में पिछले चार साल से अध्यक्ष के पद पर रहते अच्छे प्रबंधक साबित हुए हैं। पायलट को राजनीति पिता राजेश पायलट से विरासत में मिली है, जिसके चलते वह कार्यकर्ताओं में घुल नहीं पाते हैं। एक दिन पहले ही एक वायरल वीडियो ने इस बात को और पुख्ता कर दिया है कि पायलट का व्यवहार कार्यकर्ताओं के बीच सहज नहीं है। उनके पास गहलोत जैसी करिश्माई लीडर की छवि का अभाव है। लेकिन राहुल गांधी के करीबी होने और युवा राजनेता का तमगा उनके पक्ष में है। साथ ही गहलोत के लिए एंटी इंकमबेंसी भी परेशानी पैदा करती है। दोनों ही नेता एक होकर बीजेपी को हराने में कामयाब हो सकते हैं।