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सुशासन बाबू की अग्निपरीक्षा

“लॉकडाउन के बाद प्रवासियों के राज्य वापसी मुद्दे पर नीतीश पिछड़ गए हैं, आगामी चुनाव में उन्हें इसका...
सुशासन बाबू की अग्निपरीक्षा

लॉकडाउन के बाद प्रवासियों के राज्य वापसी मुद्दे पर नीतीश पिछड़ गए हैं, आगामी चुनाव में उन्हें इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हाल के कुछ सालों में इतनी कठिन चुनौती का सामना नहीं किया है। एक तरफ वह प्रदेश में कोरोना के बढ़ते संक्रमण, बड़ी संख्या में प्रवासियों की वापसी से उपजे हालात से निपटने और विरोधियों की आलोचना का सामना कर रहे हैं, तो दूसरी ओर उनके सामने आम चुनाव अग्निपरीक्षा की तरह खड़ा है। आमतौर पर अपने विरोधियों को मुंहतोड़ जवाब देने वाले नीतीश कुमार फिलहाल नई चुनौतियों का सामना करने के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं। लॉकडाउन के दौरान प्रवासियों के लिए बनाए गए क्वारंटीन सेंटरों की बदहाली की खबरों ने नेशनल चैनल पर उनकी ‘सुशासन बाबू’ छवि को झटका पहुंचाया है। कोटा में फंसे बिहारी छात्रों को वापस लाने का मामला हो या प्रवासियों की वापसी का सवाल, नीतीश बाबू के असमंजस ने उनके विरोधियों को बैठे-बिठाए उनके खिलाफ बड़ा हथियार दे दिया है।

बिहार की सियासत पर नजर रखने वाले आरजेडी के दिग्गज नेता शिवानंद तिवारी कहते हैं, “कोरोना जैसी महा आपदा का सामना करने और उससे उबरने में सरकार की क्षमता और दक्षता नीतीश कुमार के राजनीतिक भविष्य को लेकर बड़ा सवाल बन गई है। नीतीश कुमार के खिलाफ भयानक सत्ता विरोधी लहर है। कोटा में फंसे छात्रों और दूसरे प्रदेशों में फंसे बिहारी प्रवासियों को लेकर वे बड़ी गलती कर चुके हैं। इन सवालों पर उन्होंने जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया उससे उनके खिलाफ माहौल बन चुका है। निश्चित ही आने वाले चुनाव में उन्हें इसका नुकसान होगा।”

शिवानंद तिवारी ने आगे बातचीत में आउटलुक से कहा, “जिस वक्त बिहार के लोग उनसे उम्मीद बांधे हुए थे उस समय उनकी भाषा में अहंकार था। मजदूरों के लिए उन्होंने कहा कि उन्हें बिहार में घुसने नहीं देंगे, जबकि कोटा के छात्रों को घर वापस बुलाने के सवाल पर उन्होंने इसे ‘लॉकडाउन का उल्लंघन’ बता दिया।” लेकिन अब नीतीश अपनी पुरानी गलतियों को सुधारने की कोशिश करते दिख रहे हैं और हर प्रवासी को वापस लाने की बात कर रहे हैं। साथ ही वे न सिर्फ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए क्वारंटीन सेंटरों की अव्यवस्था का जायजा ले रहे हैं, बल्कि वहां मौजूद प्रवासियों से हालचाल भी पूछ रहे हैं। लेकिन ऐन चुनाव के वक्त उनका मजदूर विरोधी रुख और अमानवीय चेहरा सामने आ चुका है। आरजेडी के उपाध्यक्ष तिवारी तो यह तक कहने में परहेज नहीं करते कि नीतीश कुमार की इस छवि के साथ भाजपा शायद ही अब उनके साथ चुनाव में जाना चाहे।

बिहार विधान परिषद के सदस्य और जेडीयू नेता राजीव रंजन नीतीश की छवि को लेकर विपक्ष की ओर से उछाले जा रहे इन सवालों को अधिक तवज्जो नहीं देते। वे कहते हैं, “बीजेपी के साथ हमारा नेचुरल अलायंस है। विपक्ष की ओर से हमारे गठबंधन को लेकर कई बार अनावश्यक सवाल उठाने की कोशिश हुई है। इसकी कोई जमीन नहीं है। बीच का कुछ समय छोड़ दिया जाए तो हमने लंबे समय तक एक साथ काम किया है। आगे भी यह गठजोड़ मजबूती से बिहार के विकास के लिए प्रतिबद्ध है। नीतीश कुमार बिहार के लिए अपरिहार्य हैं। उनके बगैर बिहार की राजनीति की कल्पना भी नहीं की जा सकती।”

आगे वह कहते हैं, “हमारी सरकार प्रवासियों और छात्रों को वापस लाने के खिलाफ नहीं थी। हमारे राजनीतिक विरोधी इसका दुष्प्रचार ज्यादा कर रहे हैं। मुख्यमंत्री की चिंता संक्रमण को गांवों तक न पहुंचने देने को लेकर थी। इसीलिए श्रमिकों की वापसी से पहले इसकी व्यवस्था बनाना जरूरी था।” जेडीयू नेता इस बात पर जोर देते हैं कि प्रधानमंत्री के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग में नीतीश कुमार ने ही रेल से प्रवासियों की वापसी को लेकर मजबूत दलील दी थी। उनके ही सुझाव पर केंद्र ने बाकी राज्यों के लिए भी इस तरह की व्यवस्था बनाई।

लेकिन विपक्ष नीतीश की छवि पर सवाल उठाते हुए आगामी विधानसभा चुनाव के लिए अपने मोहरे बिठा रहा है। नीतीश के सामने तेजस्वी यादव को उतारने की बहुत चर्चा है। कांग्रेस समेत नीतीश के विरोध में खड़ी सभी छोटी-बड़ी पार्टियों में भी तेजस्वी को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में पेश किए जाने को लेकर कोई संशय नहीं है। जेडीयू-बीजेपी-एलजेपी के गठजोड़ को चुनौती देने के लिए विपक्ष के पास सबसे बड़ा चेहरा फिलहाल तेजस्वी ही दिख रहे हैं। नीतीश के कार्यकाल की शुरुआत में वह प्रदेश के डिप्टी सीएम रह चुके हैं। विपक्षी खेमे में थोड़ी बहुत उठापटक सीटों को लेकर ही है। कांग्रेस समेत सभी छोटे दल महागठबंधन में अधिक से अधिक सीटें पाना चाहते हैं। आगामी विधानसभा चुनाव में लड़ाई को दोतरफा बनाने के लिए विपक्ष पूरा जोर लगा रहा है। वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक सुरेंद्र किशोर कहते हैं, “यह सही है कि तेजस्वी विपक्षी खेमें का मजबूत चेहरा हैं। इस बात को लेकर आरजेडी और कांग्रेस में भी किसी तरह का मतभेद नहीं है। रही बात दूसरे दलों की तो इस मामले में महागठबंधन में बाकी किसी दल का कोई महत्व भी नहीं है। लेकिन लालू के परिवार के सामने आते ही लोगों को जंगलराज याद आने लगता है। हालांकि आरजेडी का एमवाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण उनके साथ है। यादव समाज और मुसलमानों का इकट्ठा वोट तेजस्वी की ओर जा सकता है। लेकिन कोरोना के बाद पैदा होने वाली राजनीतिक परिस्थितियों में भी हालात यही रहेंगे, यह कहना अभी जल्दबाजी होगी।”

चुनावी आंकड़ों के अंकगणित पर पैनी निगाह रखने वाले सुरेंद्र किशोर आने वाले विधानसभा चुनाव की सियासी तसवीर की तुलना 2010 के विधानसभा चुनाव से करना चाहते हैं। उस चुनाव में जेडीयू और बीजेपी एक साथ थे और दूसरी ओर आरजेडी और एलजेपी ने मिलकर चुनाव लड़ा था और उन्हें महज 25 सीटें मिली थीं। आरजेडी के खाते में 22 सीटें आई थीं और एलजेपी को तीन सीटों पर संतोष करना पड़ा था। कोरोना के पॉलिटिकल आफ्टरमैथ को लेकर सुरेंद्र किशोर पक्के तौर पर अभी कुछ नहीं कहना चाहते। वे हाल ही में नीतीश कुमार की छवि को लेकर की गई बातों को भी अधिक तवज्जो नहीं देते। उनका कहना है, “नीतीश ने वही किया जो लॉकडाउन को लेकर केंद्र का आदेश था। बाद में जब केंद्र ने अपनी नीति बदली तो नीतीश ने भी अपने स्टैंड में परिवर्तन किया। मुझे लगता है जब ये माहौल शांत हो जाएगा और चुनाव का माहौल बनेगा तब वोटर एक बार फिर नए सिरे से जरूर सभी चीजों का आकलन करेगा।”  

तमाम राजनीतिक परिस्थितियों के बावजूद एनडीए की लड़ाई विपक्ष के मुकाबले मजबूत मानी जा रही है। आरजेडी-कांग्रेस के नेतृत्व वाले महागठबंधन की सारी उम्मीदें एमवाई समीकरण पर टिकी हैं। लेकिन आरजेडी के साथ यादवों के अतिरिक्त कोई भी मजबूत पिछड़ा वोट बैंक नहीं जुड़ा है। मुसलमान वोट भी रणनीति के तहत नहीं बल्कि बाध्यता के तहत उनके साथ जाता दिख रहा है। अलग-अलग जातियों की नुमाइंदगी करने वाले उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, जीतन राम मांझी की हिंदुस्तान आवाम पार्टी, मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी पूरे प्रदेश के स्तर पर गठबंधन के लिए वोट की ताकत नहीं बन पाएगी। इनके नेता आपस में समझौते जरूर कर रहे हैं लेकिन जमीन पर इन दलों के कार्यकर्ता एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हैं। वे कह रहे हैं कि इनका यही हश्र होगा जो यूपी में सपा और बसपा के गठजोड़ का 2019 के चुनाव में हुआ था। बिहार में भी 2019 के चुनावों में इसकी झलक मिल चुकी है। तमाम जातीय गठबंधन को नकारते हुए लोगों ने 40 में 39 सीटें एनडीए की झोली में डाल दी थीं। मुस्लिम बहुल किशनगंज सीट कांग्रेस के खाते में गई थी। आरजेडी खाली हाथ ही रह गया था। केवल एक साल पुराने इस नतीजे के असर के बीच आरजेडी को नई लड़ाई लड़नी है।

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फिलहाल एनडीए की स्थिति मजबूत है, क्योंकि कांग्रेस-आरजेडी महागठबंधन की उम्मीदें एमवाई समीकरण पर हैं

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