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सज चुका है बिहार के चुनावी महाभारत का मैदान

बिहार विधानसभा की 243 सीटों के लिए होने जा रहे चुनावी महाभारत के लिए मैदान तकरीबन सज चुका है। एक दूसरे को शिकस्त देने के इरादे से दोनों राजनीतिक गठबंधन अपने सेनापतियों के साथ आमने सामने डट गए हैं। तीसरी ताकत के नाम पर कुछ महारथी खुद के जीतने के लिए नहीं बल्कि किसी और को हराने और किसी और की जीत में मददगार साबित होने की रणनीति के तहत अगल बगल से या फिर नेपथ्य में रह कर भी इस चुनावी महाभारत में अपनी भूमिका के लिए उद्धत हैं।
सज चुका है बिहार के चुनावी महाभारत का मैदान

इस चुनाव का एक मजेदार पक्ष यह भी है कि पिछले विधानसभा चुनाव में एक दूसरे के साथी-सहयोगी अथवा विरोधी रहे राजनीतिक दल और नेता इस बार उलट भूमिकाओं में नजर आ रहे हैं। पिछली बार 2010 के विधानसभा के चुनाव में जनता दल (यू) और भाजपा एक साथ मिलकर चुनाव लड़े और प्रचंड बहुमत से जीते थे। लालू  प्रसाद यादव के राजद और रामविलास पासवान की लोजपा ने मिलकर चुनाव लड़ा था जबकि कांग्रेस अकेले दम मैदान में उतरी थी। इन तीनों की राजनीतिक मिट्टी पलीद हो गई थी। 

बिहार में राजनीतिक ध्रुवीकरण का परिदृश्य तो जनता दल (यू) और भाजपा के आमने-सामने आ जाने के कारण पिछले लोकसभा के चुनाव के समय ही बदल सा गया था। भाजपा के गठबंधन में रामविलास पासवान की लोजपा और जनता दल (यू) से बगावत करने वाले उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी शामिल हो गई थी जबकि लालू प्रसाद का राजद, कांग्रेस और एनसीपी को साथ लेकर मैदान में उतरा था। अलग-थलग से पड़ गए शरद यादव और नीतीश कुमार का जद (यू) कुछ वाम दलों के साथ चुनावी गठबंधन कर चुनाव लड़ा था। बिहार से लोकसभा की 40 में से तीन चौथाई से भी अधिक (31) सीटें राजग को मिली थीं जबकि कुल नौ सीटें ही राजद, कांग्रेस, जद यू और एनसीपी के खाते में गई थीं। हालांकि तथाकथित मोदी लहर के बावजूद बिहार में राजग के तकरीबन 38 फीसदी के मुकाबले इन दलों को मिले तकरीबन 45 फीसदी मत कहीं ज्यादा थे। लेकिन इनके अलग-अलग लड़ने के कारण सीटों के मामले में भाजपा गठबंधन बाजी मार ले गया था।

बदली राजनीतिक परिस्थितियों में सांप्रदायिक ताकतों को एकजुट चुनौती देने के नाम पर जहां लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के साथ ही कांग्रेस ने भी महागठबंधन कर विधानसभा के चुनाव मैदान में उतरने का फैसला किया, वहीं नीतीश कुमार का साथ छोड़नेवाले राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी का ‘हम’ भाजपा गठबंधन के साथ जुड़ गया। राजनीतिक उत्तराधिकार की लड़ाई में पिछड़ गए राजद के दबंग सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव ने भी अलग राह पकड़ ली। चाहते तो वह भी थे कि भाजपा गठबंधन की शोभा बढ़ाएं लेकिन उनकी छवि आड़े आ गई। चुनाव से पहले ही उन्हें जेड प्लस सुरक्षा प्रदान करनेवाली राजग सरकार के रणनीतिकारों ने उनके लिए अलग रहकर अपने पुराने सहयोगियों को कमजोर करने की भूमिका निर्धारित की है। 

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को ही अपना भावी मुख्यमंत्री घोषित कर चुनाव लड़ रहे महागठबंधन में जद यू और राजद को सौ-सौ और कांग्रेस को 40 सीटें मिली हैं। पहले एनसीपी को भी शामिल करने की बात थी। उसके लिए तीन सीटें भी छोड़ी गई थीं मगर बात नहीं बनी तो इसमें दो सीटें और जोड़कर समाजवादी पार्टी को देने और उसे भी महागठबंधन का हिस्सा बनाने की कोशिश हुई लेकिन बिहार में राजनीतिक वजूद नही के बराबर होने के बावजूद उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में अपने बूते सरकार चला रही समाजवादी पार्टी के नेतृत्व को पांच सीटों पर लड़ने का प्रस्ताव अपमानजनक लगा और वह इस महागठबंधन से अलग हो गई। हालांकि इसके लिए पांच सीटों के ‘अपमानजक प्रस्ताव’ से कहीं अधिक मुलायम परिवार की अंदरूनी कलह और उस क्रम में उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार के 'यादव सिंह प्रकरण' में राज्यसभा में सपा के नेता रामगोपाल यादव के सांसद पुत्र अक्षय यादव का नाम जुड़ने और इसी क्रम में, महागठबंधन से सपा के अलग होने से दो दिन पहले ही रामगोपाल यादव की भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह के साथ मुलाकात को भी महत्वपूर्ण कारण बताया जा रहा है। बहरहाल, महागठबंधन से अलग होने के बाद अपने समर्थकों के बीच नेताजी के नाम से मशहूर मुलायम सिंह यादव बिहार में राजद के कुछ असंतुष्ट मगर दगे कारतूस कहे जानेवाले रघुनाथ झा जैसे नेताओं को लेकर तीसरा मोर्चा खड़ा करने की कोशिश में लगे हैं। जीतन राम मांझी के ‘हम’ से किनारा करनेवाले पूर्व केंद्रीय मंत्री देवेंद्र यादव भी समाजवादी जनता दल के बैनर तले उनके साथ हैं। आगे चलकर इनके पप्पू यादव के साथ भी किसी तरह का समीकरण बनने की अटकलें लग रही हैं। हालांकि बिहार में नेताजी के साथ रहनेवाले दबंग पूर्व विधायक ददन यादव के जद (यू) की राह पकड़ लेने के कारण बिहार में नेताजी की राजनीतिक कोशिशों को बड़ा धक्का लगा है। हालांकि उनकी उम्मीदें अब भी महागठबंधन में टिकट से वंचित विधायकों, पूर्व विधायकों और प्रभावशाली नेताओं पर टिकी हैं।

इस चुनावी महाभारत में पहली बार उतरनेवाली हैदराबाद से लोकसभा सदस्य असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम यानी आल इंडिया मजलिसे इत्तेहादुल मुसलमीन ने भी बिहार विधानसभा के चुनाव को रोचक बना दिया है। ओवैसी ने मुस्लिम बहुल किशनगंज, अररिया, पूर्णिया और कटिहार आदि जिलों को मिलाकर बननेवाले सीमांचल की तकरीबन डेढ़ दर्जन सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करने की बात कही है। तेलंगाना के कुछ इलाकों में असरदार और महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव में भी कुछ इलाकों में न सिर्फ अपना असर दिखानेवाले बल्कि कुछ सीटें जीतने और कुछ सीटों पर कांग्रेस और एनसीपी की खाट खड़ी करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाले ओवैसी और उनकी एआईएमआईएम की रणनीति और उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं पर चर्चा कभी बाद में। फिलहाल तो बिहार में राजनीतिक दलों और गठबंधनों के बीच टिकटों के बंटवारे की मारामारी और बागियों के अलग दरवाजे पहुंचने का खेल जारी है। इस खेल का मजा लिया जाना चाहिए।

 

 

 

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