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तमिलनाडु: भाजपा ने वह कर दिया जिसकी किसी को नहीं थी उम्मीद, क्या बदल पाएगी इतिहास

“आखिरकार अन्नाद्रमुक से भाजपा 20 सीटें ले पाई और उसकी हर जीत उसके लिए फायदा ही होगी, मगर हवा का रुख...
तमिलनाडु: भाजपा ने वह कर दिया जिसकी किसी को नहीं थी उम्मीद, क्या बदल पाएगी इतिहास

“आखिरकार अन्नाद्रमुक से भाजपा 20 सीटें ले पाई और उसकी हर जीत उसके लिए फायदा ही होगी, मगर हवा का रुख द्रमुक की ओर”

कई साल पहले तक तमिलनाडु में भारतीय जनता पार्टी का निकटतम प्रतिद्वंद्वी नोटा हुआ करता था। 2016 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को महज तीन फीसदी वोट मिले थे और तब भाजपा पहचान के संकट से गुजर रही थी। आज वही भाजपा शशिकला फैक्टर की वजह से उत्पन्न हुए संकट को सुलझाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। पहले तो उसने ऑल इंडिया अन्नाद्रमुक (एआइएडीएमके) के दोनों धड़ों के बीच दूरी पाटने की कोशिश की। जब वह संभव न हो सका तो पार्टी ने वह कर दिखाया जिसकी कल्पना भी मुश्किल थी। भाजपा ने शशिकला को राजनीतिक परिदृश्य से हटने के लिए राजी कर लिया, इस संदेश के साथ कि एआइएडीएमके के सभी कार्यकर्ता डीएमके को हराने के लिए मिलकर लड़ेंगे।

यह मास्टरस्ट्रोक तमिलनाडु में भाजपा के बढ़ते राजनीतिक कद को भी दिखाता है। विधानसभा में 234 सीटें हैं और पार्टी 20 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। अगर वह कुछ प्रत्याशियों को जिताने में कामयाब रही तो दो राजनीतिक ध्रुवों वाले प्रदेश में उसका महत्व और बढ़ जाएगा। देखा जाए तो पड़ोसी राज्य केरल की तुलना में तमिलनाडु में भाजपा का चुनावी रिकॉर्ड बेहतर रहा है। 1988, 1989 और 2014 में उसने गठबंधन में चुनाव लड़ा और उसके सांसद चुने गए थे। डीएमके की अगुआई में 2001 के विधानसभा चुनाव में इसके कुछ विधायक भी चुने गए। उसके बाद डीएमके ने 2004 में कांग्रेस से हाथ मिला लिया।

उसके बाद भी लोकसभा चुनावों में भाजपा को सहयोगी मिले। 2004 में उसने एआइएडीएमके के साथ चुनाव लड़ा। 2014 में पीएमके, डीएमडीके और एमडीएमके जैसी छोटी पार्टियों के साथ मिलकर यह चुनावी मैदान में उतरी। लेकिन विधानसभा चुनाव में उसे कोई सफलता नहीं मिली। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता हकीकत को स्वीकार करते हुए कहते हैं, “हमारी मौजूदगी से विधानसभा चुनावों में हमारे सहयोगी दलों को अतिरिक्त वोट नहीं मिले। जब जयललिता थीं तब भाजपा समर्थक भी उनकी एआइएडीएमके को वोट देते थे ताकि डीएमके को हराया जा सके।”

जयललिता की मौत के बाद 2017 में भाजपा ने जिस तरह ई.के. पलानीस्वामी और ओ. पन्नीरसेल्वम के बीच समझौता करा एआइएडीएमके सरकार को स्थिरता दी, उसने प्रदेश की राजनीतिक दिशा तय करने में केसरिया पार्टी की भूमिका बढ़ा दी। हालांकि इस समीकरण का 2019 के लोकसभा चुनाव में कोई फल नहीं दिखा। इस के बावजूद पार्टी ने प्रदेश में अपना आधार मजबूत करने का सिलसिला जारी रखा। उसने दलित को प्रदेश का अध्यक्ष बनाया और फिर दूसरे दलों के जाने-माने चेहरों को शामिल करने लगी। उनमें फिल्म सेलेब्रिटी से लेकर मजबूत आधार वाले नेता भी थे। कांग्रेस के एक पूर्व सांसद स्वीकार करते हैं, “लगातार कुछ लोगों को पार्टी में शामिल करवा कर भाजपा ने यह दिखाने की कोशिश की कि तमिलनाडु में उसका प्रभाव बढ़ रहा है। हालांकि इस प्रयास में कुछ विवादास्पद हिस्ट्रीशीटर को भी भाजपा में शामिल कर लिया गया।” पार्टी ने जैसे हर महीने कुछ सेलिब्रिटी को जोड़ने का लक्ष्य बना रखा था, जिससे वह बार-बार चर्चा में आ रही थी।

2020 में कांधा षष्ठी कवसम विवाद भाजपा के लिए गेमचेंजर साबित हुआ, जब हिंदू धर्म और भगवान मुरुगा के तथाकथित अपमान के मामले में वह तर्कवादियों के विरोध में खड़ी हो गई। पार्टी प्रवक्ता नारायणन तिरुपति कहते हैं, “पहले ये तर्कवादी डीएमके और अन्य दलों के समर्थन से बच निकलते थे। हमारे विरोध के कारण पुलिस ने मामला दर्ज किया। अपमानजनक सामग्री दिखाने वाले यूट्यूब चैनल को बंद किया गया और कुछ लोगों की गिरफ्तारियां भी हुईं। हमारे जोरदार प्रतिरोध को जनसमर्थन मिला।” पार्टी की वेल यात्रा में बड़ी संख्या में महिलाओं ने हिस्सा लिया, जिससे तर्कवादी बैकफुट पर चले गए। यहां तक कि डीएमके भी बार-बार यह कहने पर मजबूर हुई कि वह हिंदू विरोधी नहीं है और उसके कार्यकर्ता मंदिरों में जाने वाले हिंदू हैं। डीएमके ने 6 अप्रैल को होने वाले चुनाव के अपने प्रचार अभियान से तर्कवादियों को दूर रखा है, ताकि हिंदू मतदाता उससे दूर न चले जाएं।

डिजिटल चैनल चाणक्य के मुख्य संपादक रंगराज पांडे कहते हैं, “जब आप तमिलनाडु में कांग्रेस और भाजपा की तुलना करते हैं तो एक बात स्पष्ट है कि कांग्रेस उतार पर और भाजपा चढ़ाव पर है। पिछले कई विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के लगातार कमजोर होते प्रदर्शन के कारण उसकी स्थिति ऐसी हो गई कि सीट बंटवारे में उसे जितना मिल गया, उसी से संतोष करना पड़ा।” दूसरी तरफ 2016 में कमजोर प्रदर्शन के बावजूद भाजपा एआइएडीएमके से 20 सीटें लेने में कामयाब रही। कुछ लोग इसे केंद्र सरकार की दादागीरी भी मानते हैं, लेकिन यह भी सच है कि बीते दो वर्षों के दौरान बूथ स्तर पर पहुंच बढ़ाने के लिए भाजपा ने काफी प्रयास किया है।

भाजपा के उदय में विपक्षी दलों की भी बड़ी भूमिका रही है। उन्होंने एआइएडीएमके सरकार को निशाना बनाने के बजाय भाजपा और मोदी को निशाना बनाया। भाजपा के प्रदेश महासचिव के. टी. राघवन कहते हैं, “जब डीएमके ने अपने सहयोगी दलों की सीटें काफी कम कीं, तो इसका उसके पास एक ही जवाब था कि प्रदेश में भाजपा को पैर जमाने से रोकना है। अगर एआइएडीएमके को दोबारा जीतने से रोकने की तुलना में भाजपा को रोकना अधिक महत्वपूर्ण है तो यह दिखाता है कि हमारा कद बढ़ा है और प्रदेश की पुरानी पार्टियां हमसे खतरा महसूस कर रही हैं।” लेकिन यह भी सच है कि प्रदेश में भाजपा का अतीत उतार-चढ़ाव भरा रहा है। इसलिए अंतिम नतीजों से ही पता चलेगा कम से कम 10 विधायक चुने जाने का इसका दावा कितना सही होता है।

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