लोकसभा के बाद राज्यसभा में भी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) विधेयक पारित होने के बाद दिल्ली और केंद्र सरकार में अधिकारों की लड़ाई एक बार फिर शुरू हो गई है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को जुलाई 2018 में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ फैसले के बाद शानदार जीत मिली थी और एक तरह से इस लड़ाई पर रोक लग गई थी। अब नए विधेयक को केजरीवाल ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का फैसला किया है। जाने, विधेयक में क्या है जिससे उपराज्यपाल के अधिकार बढ़ जाएंगे और दिल्ली के मुख्यमंत्री की ताकत कम होगी।
विपक्षी दलों और कानून के कई जानकारों ने संशोधित कानून को असंवैधानिक करार दिया है। केजरीवाल की आम आदमी पार्टी का दावा है कि भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने नए कानून को बदले की भावना से लाई है क्योंकि भगवा पार्टी दिल्ली में लगातार तीन विधानसभा चुनावों में आप से हार गई थी। दूसरी ओर, भाजपा का कहना है कि कानून में कुछ भी असंवैधानिक नहीं है और यह केवल अनुच्छेद 239एए में मौजूद अस्पष्टताओं को दूर करने का प्रयास करता है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि उपराज्यपाल जमीन, कानून व्यवस्था और सार्वजनिक आदेश को छोड़कर राज्य के विधायकों के अधिकार क्षेत्र में आने वाले सभी मामलों में मंत्रिपरिषद के "सहायता और सलाह" पर काम करने के लिए बाध्य है। दिल्ली में अभी तक कोई स्पष्टता नहीं है कि दिल्ली में नौकरशाही को कौन नियंत्रित करता है, एलजी या चुनी हुई सरकार।
दिल्ली में अधिकार को लेकर मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच जंग हमेशा से चर्चा का विषय रही है। जब से दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनी है तब से मुख्यमंत्री केजरीवाल और उपराज्यपाल के बीच किसी न किसी बात पर विवाद होता ही रहा है। हालात यहां तक बिगड़े कि अधिकार की लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गई। 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में उपराज्यापाल और दिल्ली सरकार की भूमिकाओं और अधिकार क्षेत्र को स्पष्ट किया। अब स्थिति साफ करने के लिए गवर्नमेंट ऑफ नेशनल कैपिटल टेरिटरी ऑफ दिल्ली एक्ट में संशोधन लाई।
कई कानूनी और संविधान विशेषज्ञों का कहना है कि चूंकि एलजी सेंट्रल के नॉमिनी हैं और निर्वाचित सरकार का हिस्सा नहीं हैं, इसलिए उपराज्यपाल उन पर बाध्यकारी नहीं हैं।
विधेयक में यह स्पष्ट किया गया है कि दिल्ली में सरकार का मतलब उप राज्यपाल हैं। इसके कानून बनने पर दिल्ली सरकार के लिए किसी भी कार्यकारी फैसले से पहले उपराज्यपाल की राय लेनी होगी। दिल्ली सरकार को विधायी प्रस्ताव 15 दिन पहले और प्रशासनिक प्रस्ताव सात दिन पहले उपराज्यपाल को भिजवाना होगा। उपराज्यपाल यदि सहमत नहीं हुए तो वह अंतिम निर्णय के लिए उस प्रस्ताव को राष्ट्रपति को भी भेज सकेंगे। यदि कोई ऐसा मामला होगा, जिसमें त्वरित निर्णय लेना होगा तो उपराज्यपाल अपने विवेक से निर्णय लेने को स्वतंत्र होंगे।
गवर्नमेंट ऑफ नेशनल कैपिटल टेरिटरी ऑफ दिल्ली एक्ट के तहत दिल्ली में चुनी हुई सरकार के अधिकार सीमित किए गए हैं। इस बिल के आ जाने के बाद दिल्ली विधानसभा खुद ऐसा कोई नया नियम नहीं बना पाएगी जो उसे दैनिक प्रशासन की गतिविधियों पर विचार करने या किसी प्रशासनिक फैसले की जांच करने का अधिकार देता हो। विधेयक के बाद के बाद अधिकारियों को काम की आजादी मिलेगी और उन अधिकारियों का डर खत्म होगा जिन्हें समितियों की तरफ से तलब किए जाने का डर रहता था।
पिछले दिनों केजरीवाल ने ट्वीट कर कहा था, 'दिल्ली के लोगों द्वारा खारिज किए जाने (विधानसभा में आठ सीटें और हाल के एमसीडी उपचुनाव में एक भी सीट न मिलने) के बाद बीजेपी आज लोकसभा में एक विधेयक के जरिए चुनी हुई सरकार की शक्तियों को काफी कम करना चाहती है। यह विधेयक संविधान पीठ के फैसले के विपरीत है। हम बीजेपी के असंवैधानिक और लोकतंत्र विरोधी कदम की कड़ी निंदा करते हैं।' केजरीवाल ने कहा, 'विधेयक कहता है, दिल्ली के लिए सरकार का मतलब एलजी होगा, तो फिर चुनी हुई सरकार क्या करेगी? सभी फाइलें एलजी के पास जाएंगी। यह संविधान पीठ के 4.7.18 के फैसले के खिलाफ है जो कहता है कि फाइलें एलजी को नहीं भेजी जाएंगी, चुनी हुई सरकार सभी फैसले करेगी और फैसले की प्रति एलजी को भेजी जाएगी।'