चैत की तीखी दोपहरी में 12 बजे तक ही किसी बूथ पर 76 फीसद वोट पड़ जाएं तो इसे क्या संकेत माना जाए। बंगाल के जंगलमहल के इलाकों में 80 फीसद तक वोट पड़े हैं। पहले चरण का पहला मतदान चार अप्रैल को हुआ। आंकड़े मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को राहत पहुंचा गए। वजह, केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती रही और किसी बूथ पर विपक्ष का एक परिंदा तक नहीं पाया गया। जंगलमहल के पुरुलिया और बांकुड़ा जिलों में तो 78 और 79 फीसद तक वोट पड़ गए।
बंगाल की राजनीतिक नब्ज कहे जाने वाले दक्षिणी हिस्से के इन इलाकों ने साफ कर दिया कि तमाम चुनौतियों से जूझ रहीं ममता बनर्जी की सत्ता में वापसी की राह भले ही कठिन हो, नामुमकिन नहीं है। अभी सात चरण के चुनाव बाकी हैं और माना जा रहा है कि दीदी कही जाने वाली ममता बनर्जी की अग्निपरीक्षा अब शुरू होगी। दरअसल, बंगाल में जमीनी हकीकत ममता बनर्जी के पक्ष में नहीं है,लेकिन राजनीतिक समीकरण उन्हें जिता रहे हैं।
ऐसा इसलिए कि बंगाल में वोटर भले ममता के पांच साल के शासन से त्रस्त हैं, उनके पास और कोई मजबूत विकल्प नहीं है। वाममोर्चा और कांग्रेस ने विकल्प देने की कोशिश की है, लेकिन उनकी रुचि अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने में ज्यादा है। बंगाल में भाजपा की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उसके पास ममता बनर्जी या ज्योति बसु की तरह कोई नेतृत्व नहीं है और राज्य में उसे गैर-बंगाली पार्टी के तौर पर ही देखा जा रहा है। जमीनी स्तर पर भाजपा खास मेहनत करती नहीं दिख रही। शायद उसे यह समझ आ चुका है कि वह राज्य सभा में अपने कम आंकड़ों को पूरा करने के लिए विधानसभा चुनाव में तृणमूल की जीत को रोकने की कोशिश नहीं करेगी। वजह, इन चुनावों में तृणमूल की जीत राज्य में कांग्रेस के वजूद को खत्म करने में ज्यादा कारगर हो सकती है। चुनाव के ठीक पहले ममता बनर्जी और तृणमूल के अन्य नेताओं के खिलाफ सीबीआई की सुस्ती से तो यही संकेत मिल रहे हैं।
कांग्रेस और वामदलों का गठजोड़ दोनों पार्टियों को फायदा पहुंचा सकता है और इस गठजोड़ के सहारे दोनों दल राज्य में अपनी प्रासंगिकता बहाल कर सकते हैं। हालांकि, यह गठजोड़ चुनावों के पहले ही मुश्किलों में घिर चुका है। वामदलों ने अपने उम्मीदवार घोषित करने में कांग्रेस का ध्यान नहीं रखा। अब 2014 लोकसभा चुनावों से ठीक पहले शुरू किए गए नारद न्यूज के स्टिंग का 2016 विधानसभा चुनावों से ठीक पहले हुए खुलासे ने एक बार फिर तृणमूल नेताओं की छवि को बड़ा धक्का दिया है। इसका खामियाजा भी कुछ नेताओं को उठाना पड़ सकता है।
लेकिन सवाल वही है- तृणमूल कांग्रेस को छोडक़र राज्य के वोटरों के पास दूसरा विकल्प क्या बचा है? तृणमूल कांग्रेस 2011 के चुनावों में जीत कर राज्य की सत्ता पर काबिज हुई तो इसकी अकेली सबसे बड़ी वजह ममता की लोकप्रियता थी। उन्होंने अब तक अपनी इस लोकप्रियता को बरकरार रखा है। जनता से साथ उनका संपर्क दूसरों की तुलना में अभूतपूर्व है। इस चुनाव में वह लगभग छह सौ किलोमीटर की पदयात्रा कर चुकी हैं। कोलकाता के बड़ाबाजार इलाके में फ्लाईओवर गिरने के बाद जिस तरह दिन भर वह मौके पर डटी रहीं, उससे लोगों में बेहतर संकेत गया। इस मामले में उनके कुछ नेताओं पर दाग लग रहे हैं, लेकिन वह सामने खड़ी हो गईं और दाग को बेअसर करने की कोशिश की। हालांकि भाजपा इस मुद्दे को भुनाने में पुरजोर डटी है।
उन्होंने लोकलुभावन योजनाएं शुरू की हैं। उन्होंने दो रुपये किलो अन्न सप्लाई की योजना शुरू की है, इसके अलावा छात्रों को स्कॉलरशिप, साइकिलें, स्कूल ड्रेस और जूते बांट रही हैं। बेरोजगारों को आसान शर्तों पर कर्ज भी मुहैया कराए गए हैं। उनकी कन्याश्री योजना को यूनीसेफ ने भी सराहा है। इसी तरह सबूज साथी योजना के तहत लगभग 40 लाख छात्र-छात्राओं को साइकिलें दी जा रही हैं। इसी जनवरी में ममता ने खाद्य साथी नामक योजना शुरू की, जिसके तहत आठ करोड़ लोगों को दो रुपये किलो की दर पर अनाज मिल रहा है। वह अपनी लोकप्रियता और इन विकास परियोजनाओं के सहारे आसानी से चुनावी वैतरणी पार कर सत्ता पाने के प्रति आश्वस्त हैं।
राज्य में लगभग 29 फीसदी आबादी अल्पसंख्यकों की है और कई चुनाव क्षेत्रों में तो मुस्लिम वोट ही निर्णायक स्थिति में हैं। यही वजह है कि तमाम राजनीतिक पार्टियां अब की ज्यादा तादाद में ऐसे तबके के उम्मीदवारों को टिकट दे रही हैं। पिछली बार तृणमूल को सत्ता में पहुंचाने में अल्पसंख्यक वोटरों ने अहम भूमिका निभाई थी। और विपक्ष की तमाम कोशिशों के बावजूद पार्टी का यह वोट बैंक अटूट है। किसी दौर में अल्पसंख्यकों ने खुल कर कांग्रेस को समर्थन दिया था। उसके बाद यह वोट बैंक माकपा की झोली में चला गया और इसी के सहारे उसने कोई 34 साल तक बंगाल पर निरंकुश राज किया। उसके बाद ममता ने नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण-विरोधी आंदोलन के दौरान इस हकीकत को समझा कि अल्पसंख्यक वोट बैंक ही सत्ता दिला सकता है और लंबे अरसे तक कुर्सी पर टिकाए रख सकता है।
फ्लाईओवर हादसे में दामन पर दाग
विवेकानंद रोड फ्लाईओवर हादसे के विवाद में ममता बनर्जी घिरने लगी हैं। हालांकि हादसे के दौरान दिनभर मौके पर मौजूद रहकर उन्होंने इस विवाद को ढंकने की पुरजोर कोशिश की। फ्लाईओवर की निर्माण कंपनी 'आईवीआरसीएल’ को रेल मंत्री रहने के दौरान उन्होंने प्रोजेक्ट दिलाया था। अब ममता कह रही हैं कि वाममोर्चा सरकार ने 2009 में फ्लाईओवर बनाने का काम आईवीआरसीएल को दिया था।
आईआरसीओएन इंटरनेशनल लिमिटेड के दस्तावेज बताते हैं कि रेल मंत्री रहते ममता बनर्जी ने केएमबी-आईवीआरसीएल को ऊधमपुर-श्रीनगर-बारामूला टनल रेलवे प्रोजेक्ट का काम दिया था। यह हैदराबाद की कंपनी आईवीआरसीएल की साझा कंपनी है और पूर्व रेल मंत्री और तृणमूल कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुकुल राय इसके मालिक हैं। केएमबी-आईवीआरसीएल को रेलवे प्रोजेक्ट दिए जाने से पहले ही सुनामी से प्रभावित इलाके में घर बनाने के लिए 2009 में ठेका दिया गया था, लेकिन निर्माण में घटिया सामग्री के इस्तेमाल की शिकायत पर सीबीआई ने जांच कर कंपनी का नाम काली सूची में डाल दिया था। ममता बनर्जी के बाद अन्य रेल मंत्रियों दिनेश त्रिवेदी, मुकुल राय और सीपी जोशी ने भी ऊधमपुर-श्रीनगर-बारामूला टनल रेलवे प्रोजेञ्चट को नजरअंदाज किया। निर्धारित लक्ष्य प्राप्त नहीं करने पर मोदी सरकार ने 2014 में इस परियोजना को रद्द कर दिया। बंगाल की मुख्यमंत्री बनने के बाद ममता ने आईवीआरसीएल को विवेकानंद फ्लाईओवर का निर्माण कार्य आईवीआरसीएल को सौंप दिया। आईवीआरसीएल ने जोड़ासांकू विधानसभा क्षेत्र की तृणमूल कांग्रेस उम्मीदवार स्मिता बक्शी के पति संजय बक्शी के भतीजे रजत बक्शी की कंपनी संध्यामनि प्रोजेक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड को काम करने का ठेका दिया था। रजत बक्शी ने पुलिस से पूछताछ में माना है कि उन्हें उप ठेकेदार के रूप में काम मिला था। इन तथ्यों के संदर्भ में भाजपा पुल हादसे की सीबीआई जांच की मांग कर रही है।