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प्रथम दृष्टि: जनता किस करवट?

हर चुनाव पिछले चुनाव से अलग होता है। टेनिस की शब्दावली में कहें तो ‘एडवांटेज मोदी’ है, लेकिन ‘गेम,...
प्रथम दृष्टि: जनता किस करवट?

हर चुनाव पिछले चुनाव से अलग होता है। टेनिस की शब्दावली में कहें तो ‘एडवांटेज मोदी’ है, लेकिन ‘गेम, सेट और मैच पॉइंट’ कौन जीतेगा, इसका फैसला उसी जनता के हाथ है, जिसके कारण भारतीय लोकतंत्र की गरिमा बनी हुई है

अब पांच वर्ष बाद फिर देश में आम चुनाव हो रहे हैं। 2019 की तरह इस बार भी अधिकतर लोगों की दिलचस्पी इसमें है कि क्या नरेंद्र मोदी फिर प्रधानमंत्री बनेंगे‍‍? इस पर चर्चाएं कम ही सुनने को मिलती हैं कि मोदी सत्ता की हैट्रिक लगाने से चूक जाते हैं तो उनकी जगह कौन लेगा? ऐसे लोगों की संख्या कम ही नजर आती है जो पूरे विश्वास के साथ कह सकें कि इस बार कोई बड़ा उलट-फेर होने वाला है। प्रधानमंत्री के समर्थकों का मानना है कि उनके नेतृत्व में इस बार एनडीए 400 से ज्यादा सीटें जीतकर सरकार बनाएगी। जो उनके समर्थक नहीं हैं, वे भी इससे कमोवेश इत्तेफाक रखते हैं कि मोदी के तीसरे कार्यकाल की संभावनाएं प्रबल हैं।

आखिर उनका विकल्प कौन है? नुक्कड़ से लेकर टेलीविजन स्टूडियो तक के डिबेट में ऐसे प्रश्न अक्सर सुनने को मिलते हैं। तो, क्या भारतीय मतदाताओं के सामने इस बार वाकई ‘टीना फैक्टर’ है। ‘टीना’ से तात्पर्य है ‘देयर इस नो अल्टरनेटिव’। अगर पिछले दस साल की राजनीति को मुड़कर देखा जाए तो इस अवधि में प्रधानमंत्री के अलावा दूसरा कोई ऐसा नेता किसी भी दल में नहीं उभरा, जिसे उनकी चुनौती के रूप में देखा जाए। कांग्रेस के राहुल गांधी पिछले कुछ साल से अपनी पार्टी में जान फूंकने का भरसक प्रयास कर रहे हैं, लेकिन सिर्फ अपनी पार्टी के बलबूते मोदी को अपदस्‍थ करना उनके लिए टेढ़ी खीर है। अपनी तमाम नीति और नेकनियति के बावजूद राहुल मोदी-विरोधी दलों के सर्वमान्य नेता के रूप में उभरने में असफल रहे हैं और यही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी रही है। कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी के नेता के रूप में, जिसकी मौजूदगी देश के हरेक राज्य में है, वे भाजपा-विरोधी पार्टियों को अपने नेतृत्व कौशल और राजनैतिक सूझबूझ के प्रति आश्वस्त नहीं कर सके हैं। पिछले दो लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का बेहद निराशाजनक प्रदर्शन इसका मूल कारण है। कांग्रेस के निरंतर घटते संख्याबल के कारण तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी सहित कई क्षेत्रीय दलों के नेता राहुल से इस बात की उम्मीद नहीं रखते कि उनके नेतृत्व में कोई विपक्षी गठबंधन सत्ता में काबिज हो सकता है। इस अविश्वास की जड़ें गहरी लगती हैं, जिसके कारण पिछले दस वर्षों में विपक्षी एका के लिए जितने भी प्रयास हुए हैं, सभी फ्लॉप साबित हुए हैं।

इस बार के चुनाव में भी यही सब दिख रहा है। जाहिर है, ऐसी परिस्थिति में विपक्ष का कुनबा बिखरा पड़ा है जिसके कारण मोदी-विरोधी मत बंटने का सीधा फायदा भाजपा को मिलेगा। हालांकि महज खंडित विपक्ष को मोदी की विजय का एकमात्र कारण समझना भूल होगी। मोदी को 2014 चुनाव में एनडीए की कमान मिलने का जो अवसर मिला, उसे उन्होंने गंवाया नहीं। उस समय उनकी पार्टी और गठबंधन में लालकृष्ण अडवाणी जैसे शीर्ष नेता उनके खिलाफ थे। गठबंधन के एक प्रमुख सहयोगी दल जनता दल-यूनाइटेड के सिरमौर नीतीश कुमार ने तो मोदी के कारण एनडीए से एक नहीं, दो बार नाता तोड़ लिया, लेकिन अब वे वापस उन्हीं के खेमे के क्षत्रप बन गए हैं। नेता के रूप में मोदी दिनोदिन मजबूत होते गए। उनकी कई नीतियों और कार्यक्रमों पर विवाद हुए, आरोप-प्रत्यारोपों का दौर चला, लेकिन चुनावों में जनता ने उन्हें ही चुना।

मोदी ने इन दस वर्षों में अपनी स्थिति इतनी मजबूत कर ली कि आज उनके विकल्प के रूप में किसी अन्य नेता को नहीं देखा जा रहा है, चाहे भाजपा की बात हो या विपक्षी पार्टियों की। लेकिन, क्या इससे इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि 2024 का चुनाव एकतरफा होने वाला है? क्या भाजपा वाकई मोदी के नेतृत्व में इस बार न सिर्फ बहुमत के आंकड़ों को आसानी से पार कर लेगी बल्कि अपने पिछले रिकॉर्ड को ध्वस्त कर भारी जीत हासिल कर लेगी? यह चुनाव परिणाम के दिन के पहले नहीं कहा जा सकता। किसी भी निष्कर्ष पर तब तक नहीं पहुंचा जा सकता जब तक कि अंतिम बैलट की गिनती न हो जाए। जैसे क्रिकेट में किसी टीम की जीत के बारे में कोई भी भविष्यवाणी तब तक नहीं की जा सकती जब तक आखिरी गेंद न डाल दी जाए।

बीस वर्ष पूर्व, 2004 के लोकसभा चुनाव के पहले कम ही लोग मानते थे कि अटल बिहारी वाजपेयी सत्ता में वापसी नहीं कर पाएंगे। स्वयं वाजपेयी सरकार चुनाव परिणामों को लेकर काफी आश्वस्त दिखती थी, लेकिन अंतिम परिणाम चौंकाने वाले आए और कांग्रेस ने सत्ता में जोरदार वापसी की। लेकिन, अब न तो बीस वर्ष पहले वाली कांग्रेस है, न ही उसके साथ मजबूत घटक दलों की टोली। भाजपा भी आज अटल- अडवाणी के दौर से काफी आगे निकल गई है। आज भाजपा की सबसे बड़ी यूएसपी उसका ‘मोदी ब्रांड’ है, जिसके बल पर चुनाव-दर-चुनाव उसकी जीत दर्ज हो रही है। लेकिन, हर चुनाव पिछले चुनाव से अलग होता है। टेनिस की शब्दावली में यह तो आसानी से आकलन लगाया जा सकता है कि इस चुनाव में ‘एडवांटेज मोदी’ है, लेकिन ‘गेम, सेट और मैच पॉइंट’ कौन जीतेगा, इसका फैसला सिर्फ उसी जनता के हाथ में है, जिसके कारण भारतीय लोकतंत्र की गरिमा बनी हुई है। अगर बहुमत मोदी के पक्ष में है तो बाकी सारी बातें सिर्फ बातें हैं।

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