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जनादेश ’23: मुद्दे खाली, गारंटी पूरी

कल्याणकारी राज्य को तिलांजलि देने के तीन दशक बाद राजनीतिक दलों तक सिमट चुका कल्याण बना वोट का...
जनादेश ’23: मुद्दे खाली, गारंटी पूरी

कल्याणकारी राज्य को तिलांजलि देने के तीन दशक बाद राजनीतिक दलों तक सिमट चुका कल्याण बना वोट का बायस

अमूमन चुनावी नारे और घोषणा-पत्र मौजूदा और अगली सियासत की झांकी पेश करते हैं। पुराने चुनावों को याद कीजिए तो कमोबेश सियासत की धारा भी वैसी ही बहती रही है। अलबत्ता, खासकर घोषणा-पत्र तो लंबे सफर में न सिर्फ अपनी अर्थवत्ता खोते गए हैं, बल्कि ‘जुमले’ बनकर भी रह गए। कुछ दशक पहले तक पार्टियों के घोषणापत्रों को गंभीरता से लिया जाता रहा है, लेकिन घोषणापत्र, दृष्टिपत्र, संकल्पपत्र, वचनपत्र और अब गारंटी तक के इस सफर में मायने इस कदर खो गए हैं कि ये मतदान की तारीखों के आसपास जारी किए जाते हैं, मानो कोई पढ़ने की जहमत न ही उठाए तो बेहतर। यही नहीं, कई बार इनमें और आम पर्चे में फर्क करना भी मुश्किल होता जा रहा है। जैसा ‌कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का घोषणा-पत्र जारी करते समय रायपुर में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने एक सवाल में कहा भी, “लंबी-चौड़ी घोषणाएं कौन पढ़ता है, इसलिए प्वाइंटर में जिक्र किया गया है।” वजह शायद यह है कि नीतियों के बदले कल्याणकारी गारंटियों का दौर आ गया है। यानी जिस नीतिगत बदलाव से बड़े पैमाने पर सामाजिक पहल की जिम्मेदारी कल्याणकारी राज्य की हुआ करती थी, अब उसका जिम्मा पार्टियों ने ओढ़ लिया है। सो, जो पार्टी ज्यादा लुभावनी गारंटियां दे, वह चुनावी जीत की उम्मीद उतनी ही ज्यादा करती है।

बेशक, यह सिलसिला नब्बे के दशक में आर्थिक उदारीकरण के बाद के दशकों में कुछ-कुछ धीरे-धीरे शुरू हुआ, जब ज्यादातर मुख्यधारा की पार्टियों में आर्थिक नीतियों को लेकर फर्क मिट गए। कांग्रेस और भाजपा ही नहीं, वाम रुझान वाली पार्टियों का भी आर्थिक नजरिया बड़े और विदेश पूंजी निवेश को अकाट्य-सा मानने लगा। यानी नव-पूंजीवाद में सभी उम्मीद खोजने लगे। मशहूर अर्थशास्‍त्री प्रोफेसर अरुण कुमार कहते हैं, “दरअसल आजादी के बाद से ही ट्रिकल डाउन की नीति अपनाई गई और कहा गया कि समृद्घि रिस-रिस कर निचले तबके में जाएगी, लेकिन ऐसा होना नहीं था। गरीब और गरीब बनते गए। अब जब उदारीकरण के बाद के दशकों में बड़े और संगठित उद्योगों का दौर बुलंदी पर आया तो ऑटोमेशन वगैरह से रोजगार घटने लगे। नेताओं पर लोगों को भरोसा नहीं रह गया। फिर जो ज्यादा रियायतें देता है, उसे वोट मिलने की उम्मीद होती है।''

यकीनन, इस दशक में बेरोजगारी की दर 45 साल में सबसे ज्यादा है और महंगाई भी बेकाबू है। फिर, निजीकरण को बढ़ावा और सार्वजनिक उपक्रमों की बिक्री के दौर में कल्याणकारी राज्य की पूरी अवधारणा ही खत्म कर दी गई। ऐसे में पार्टियों ने तात्कालिक राहत देकर लोगों को अपना मुरीद बनाना शुरू किया। हाल के दौर में इसकी सबसे बड़ी मिसाल लाभार्थी वर्ग तैयार करने की मंशा में दिखती है। जैसे 2022 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के दौरान बाकायदा लाभार्थी शब्द राजनैतिक विमर्श का हिस्सा बना दिया गया। कहा गया कि भाजपा एक तथाकथित लाभार्थी चेतना की वजह से जीत गई। बाकी पार्टियां भी पीछे नहीं थीं। उत्तर प्रदेश में उस चुनाव में सपा के अखिलेश यादव ने भी जाति जनगणना समेत फिर लैपटॉप बांटने जैसे कई वादे किए। प्रियंका गांधी ने भी कांग्रेस की 'लड़की हूं लड़ सकती हूं' नारे के साथ कई गारंटियों का ऐलान किया था। उसके पहले बिहार में राजद के तेजस्वी यादव ने सरकार बनते ही दस लाख नौकरियां देने का वादा किया। पश्चिम बंगाल के चुनावों में तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी ने भी कई तरह की कल्याण योजनाओं और कई मदों में महिलाओं के खाते में सीधे पैसे पहुंचाने का वादा किया, लेकिन लाभार्थी वर्ग शब्द तो भाजपा की ओर से ही आया।

योजनाओं के भरोसे दल

हर दल योजनाओं के ही भरोसे 

जब विपक्षी पार्टियों ने भी कल्याणकारी कार्यक्रमों का ऐलान शुरू किया तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई जनसभाओं में कहा कि “रेवड़ियां बांटने वाले देश की अर्थव्यवस्‍था बर्बाद कर रहे हैं।'' लेकिन वे और उनकी पार्टी हर चुनाव में केंद्र और भाजपा शासित राज्यों में लोगों को अपनी योजनाओं का लाभ गिनाने से नहीं चूकते रहे हैं। इसी साल के शुरू में कर्नाटक में भाजपा को उम्मीद थी कि कुछ छह करोड़ मतदाताओं में चार करोड़ लोग केंद्र या राज्य की योजनाओं के लाभार्थी हैं जिनके वोट से जीत मिल जाएगी, लेकिन नतीजे एकदम उलटे आए। दरअसल कोरोना महामारी के दौरान और उसके बाद केंद्र सरकार के लिए यूपीए सरकार के दौर के मनरेगा और खाद्य सुरक्षा जैसे कानून ही काम आए। यूपीए सरकार के 2013 के खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत ‘तीन साल तक’ 2 रुपये किलो गेहूं और 3 रुपये किलो चावल बीपीएल परिवारों को मुहैया कराना था। कोरोना काल में मोदी सरकार ने इसे प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के नाम से पांच किलो अनाज मुफ्त देना शुरू किया। फिर, जनवरी 2023 से इसे साल भर के लिए बढ़ा दिया गया। अब प्रधानमंत्री ने छत्तीसगढ़ की एक चुनावी रैली में ऐलान किया कि इसे बढ़ाकर पांच साल यानी 2028 तक किया जा रहा है। जनकारों के मुताबिक, यह चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन हो सकता है, लेकिन इन चुनावों में भाजपा का मुकाबला कर रही कांग्रेस ने भी चुनाव आयोग में इसकी शिकायत करने से परहेज किया। जाहिर है, इससे पता चलता है कि कोई भी रियायतों पर सवाल उठाकर लोगों की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहता।

प्रो. अरुण कुमार कहते हैं, ‘‘अब नेताओं पर से लोगों का विश्वास उठ गया है। उन्हें लगता है कि ये लूट रहे हैं तो हमें भी इनसे कुछ लेना चाहिए। दो तरह की बातें हैं। एक तो पब्लिक सर्विस है जो सरकार की जिम्मेदारी है। दूसरे, व्यक्तियों को सीधे कुछ देना है, मसलन, साइकिल, लैपटॉप, वगैरह। इससे आप लोगों को भ्रष्ट बना रहे होते हैं। यह कोई समाधान नहीं है। अगर रोजगार सृजन होता है और लोग रोजगार पाते हैं तो वह सम्मानजनक मदद है।'' लेकिन पार्टियों को शायद यह एहसास हो चला है कि फिलहाल रोजगार मुहैया कराने के कोई साधन नहीं हैं। हालांकि कांग्रेस के राहुल गांधी दलील देते हैं कि “लोगों की जेब में किसी मद में पैसा पहुंचाने से खासकर गांवों में क्रय-शक्ति बढ़ेगी तो अर्थव्यवस्‍था में सुधार होगा। छोटे काम-धंधों में पैसा आएगा, जो नोटबंदी और जीएसटी की मार से तबाह कर दिए गए हैं।'' वे यह भी कहते हैं कि “मोदी सरकार तीन-चार कॉरपोरेट का करीब 14 लाख करोड़ रुपया माफ कर सकती है तो लोगों को महंगाई से बचाने के लिए रियायतें देने में कोई हर्ज नहीं है।”

बेरोजगारी और खासकर खाद्य वस्तुओं की महंगाई से लोगों की तंगी का एहसास अब केंद्र सरकार को भी होने लगा है। तभी तो केंद्र सरकार 27.5 रुपये प्रति किलो भारत आटा नेफेड, एनसीसीएफ और केंद्रीय भंडार के जरिये बेचेगी। जाहिर है, मौजूदा नीतियों की वजह से सरकार के वश में न महंगाई पर काबू कर पाना है, न रोजगार सृजन के उपाय कर पाना।

दिक्कत यह है कि कोई भी उन उपायों की ओर नहीं मुड़ रहा है जो लोगों की जिंदगी में वाजिब बदलाव ला सकें। मसलन, स्वास्‍थ्य बीमा, छात्रवृत्तियां देने की बात तो की जाती है लेकिन अस्पतालों और स्कूलों में सुधार की कोई बात नहीं करता, न ही दवाइयों के दाम पर अंकुश लगाने की बात होती है, न शिक्षा संस्‍थानों में फीस कम करने की बात होती है। उदारीकरण के दौर में सरकारी स्कूलों और अस्पतालों की दुर्दशा जगजाहिर है। मतलब यह कि कोई भी निजीकरण और बाजारवादी नीतियों को बदलने की बात नहीं करता।

बहरहाल, अगले पन्ने विधानसभा चुनाव वाले पांचों राज्यों में वादों और गारंटियों की फेहरिस्त से रू-ब-रू कराते हैं और साथ ही चुनावी परिदृश्य का एक खाका पेश करते हैं। 3 दिसंबर को आने वाले नतीजे न सिर्फ अगली सियासत की धार तय करेंगे, बल्कि 2024 के लोकसभा चुनावों का नैरेटिव भी तय कर सकते हैं।

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