वैसे, अब तो सोशल मीडिया के युग में सारी खबरें उंगलियों पर धरी होती हैं। इसलिए कागज-कलम लेकर किया जाने वाला गुणा-भाग धरा रह जाता है। फिर भी, यह जानना चाहिए कि ऊंट के किसी करवट बैठने के लिए चुनावी थर्मामीटर का पारा किस-किस कारण से घटता-बढ़ता रहा है। इस खयाल से छह कारण साफ नजर आते हैं।
1. कौन जीता, कौन हारा, ऐसा हुआ तो क्यों हुआ और वैसा नहीं हुआ तो क्यों नहीं हुआ, इस पर तो बहस होती रहेगी। बिहार चुनाव को एक कारण से जरूर बहुत दिनों तक याद किया जाता रहेगा। देश में यह शायद पहली मर्तबा है कि साहित्यकार भी चुनावी मुद्दा बन गए। असहिष्णुता को लेकर देश भर में चली बहस से भारतीय जनता पार्टी के रणनीतिकार उतने चिंतित नहीं होते, अगर चुनाव दूसरे राज्यों में हो रहे होते। साहित्य के मामले में बिहार पश्चिम बंगाल और अधिकांश उत्तर-पूर्वी राज्यों की तरह ही प्रभावित-उद्वेलित होता है। अंतर यह है कि इन राज्यों में साहित्यकारों को सार्वजनिक सम्मान भी हासिल होता है। बिहार के आम लोग इस तरह के सम्मान का प्रदर्शन भले न करें, पढ़ते हर अप टु डेट चीजें हैं। वह भी खोज-खोजकर। उस पर खूब चर्चा भी करते हैं। इसलिए साहित्य अकादमी के पुरस्कार लौटाने-न लौटाने का मुद्दा यहां चर्चा का विषय न बने, ऐसा कैसे संभव है। पुरस्कार न लौटाने के समर्थक खुलकर मैदान में रहे तो जो समझ रहे थे कि सम्मान वापसी बिल्कुल सही है, उन्होंने भी चौक-चौराहों पर ढेर सारी बातें कीं। जो एलिट क्लास माने बैठा हो कि साहित्य-फाहित्य का आम लोगों से क्या लेना-देना, वह कभी भी जरा बिहार घूम आए।
2. दादरी की भी खूब चर्चा हुई। इससे पहले ही मुंबई में मीट बैन को लेकर भी लोग यहां बात कर रहे थे। कोई आंकड़ा तो नहीं दिया जा सकता लेकिन बिहारी समाज में नॉन वेजेटेरियन भोजन को लेकर कोई टैबू कभी नहीं रहा है। वैसे भी, दूसरे राज्यों के लोग व्यंग्य में कहते रहे हैं कि बिहार के तो ब्राह्मण भी नॉन वेजेटेरियन हैं। इसलिए मीट बैन पर चर्चा स्वाभाविक ही है। दादरी को लेकर चर्चा दूसरी वजहों से भी होती रही। गाय को बहुत ही आदर-सम्मान यहां भी मिलता रहा है। इसलिए लालू ने जब 'शैतान के प्रभाव में आकर’ कह दिया कि बीफ तो बहुत सारे हिंदू खाते हैं और बाद में उस बयान से यह कहते हुए तौबा कर ली कि बीफ का मतलब सिर्फ गाय का मांस नहीं बल्कि भैंस वगैरह का मांस भी होता है तो इसकी वजह यही है। गौ पालकों के बड़े वर्ग को नाराज करना उनके लिए संभव नहीं था। फिर भी, दादरी घटना का समर्थन करने वाले लोगों का बड़ा वर्ग यहां नहीं है।
3. दादरी की घटना ने भाजपा को इसलिए भी डगमगा दिया कि लोकसभा चुनावों के वक्त मिला थोड़ा-बहुत अल्पसंख्यक समर्थन उसे छिटकता लगा और चाहे-अनचाहे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने में करीब एक हजार किलोमीटर दूर हुई इस घटना ने बड़ी भूमिका निभा दी। दिल्ली के अपने अनुभव से भाजपा शुरू में इस तरह का ध्रुवीकरण शायद नहीं चाह रही थी। लेकिन जब यह हो गया, तब ही वोटिंग का तीसरा फेज आते-आते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एससी-एसटी आरक्षण में कटौती कर अल्पसंख्यकों को लुभाने का आरोप विरोधियों पर लगाना जरूरी समझा।
4. वैसे, आरक्षण का मुद्दा बिहार में तो पहले से ही था। राष्ट्रीय जनता दल अध्यक्ष लालू यादव के लिए तो यह हर चुनाव में प्रमुख मुद्दा रहता ही है। चुनाव में जातिगत गोलबंदी हर राज्य में होती है, उसका जोड़-घटाव-गुणा-भाग हर जगह किया जाता है, टिकट बांटते समय हर जगह इसका ध्यान रखा जाता है। लेकिन इसको लेकर जरूरत से ज्यादा बदनाम बिहार में चुनाव के वक्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत को न जाने क्या सूझा कि उन्होंने इस पर पुनर्विचार की जरूरत का शिगूफा छेड़ दिया। यह मानना गलत होगा कि उन्होंने भाजपा के चांस को पंक्चर करने के लिए ऐसा किया क्योंकि संघ अभी मोदी-भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को क्यों कमजोर करना चाहेगा। वैसे भी, भाजपा जहां-जहां जब-जब चुनाव जीतती है, यही कहा जाता है कि संघ के कैडर ने जोरदार मेहनत की और हर बूथ पर निगाह रखी। हारने पर कहा जाता है कि किनारे कर दिए जाने से संघ का कैडर नाराज था और यह दुर्गति इसी वजह से हुई। इसलिए अगर यह मानें कि यह बात भागवत की जुबान से फिसल गई तो उसे दुरुस्त करने में भाजपा को पसीने छूट गए। वैसे, यह तो साफ है कि आरक्षण के मुद्दे पर बिहार चुनाव के बाद भी भाजपा को जब-तब अपनी स्थिति साफ करती रहनी पड़ेगी।
5. लोकसभा चुनावों में जीत के बाद से ही मोदी हर राज्य के चुनाव में भाजपा के एकमात्र स्टार प्रचारक रहे हैं। बिहार में भी उनके कंधे पर ही दारोमदार रहा है। लेकिन एक अंतर हुआ। नीतीश कुमार अपने सॉफिस्टीकेड अंदाज में और लालू अपनी देशज शैली के बल पर उन्हें अपने मैदान पर बार-बार खींच लाए। मोदी के मुहावरों को उनकी ही शैली में बल्कि उससे भी आक्रामक तौर-तरीकों से जवाब देने में लालू को इसलिए मुश्किल नहीं आई क्योंकि लालू जनता से अपनी स्टाइल में ही कम्युनिकेट करते रहे हैं। लालू की सब दिन यही यूएसपी रही है। चारा घोटाले के दाग के बावजूद उनकी सभाओं में भीड़ की वजह यही रही है। वे जनता की नब्ज तो पहचानते ही हैं, उन्हें इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बाइट के चलते सुर्खियां पाने का सही अंदाज भी है। लालू भी अपनी ड्रेस से लेकर अपनी भाषा, अपनी नाटकीयता, अपने अंदाजे बयां तक में समान रूप से सचेत रहे हैं। मतलब यह कि लालू मजमा लगाने, सजाने और जमाने में अपने विपक्षी की तरह ही सूरमा हैं।
6. चाहे स्थानीय मौसम कारण हो या अंतरराष्ट्रीय स्थिति, दाल और प्याज के रेट ही इतने बने रहे कि महंगाई का मुद्दा बना रहना स्वाभाविक ही रहा। ऐसे में विकास के मुद्दे पर चर्चा के बीच इसका मुंह में आ जाना उचित भी था। चुनावों की घोषणा से बहुत पहले भी नीतीश कुमार का जिक्र आते ही विकास पर बातें होने लगती थीं। लालू के साथ उनके गठबंधन पर नाक-भौंह सिकोड़ने वाले लोग भी लालू को ही ही निशाने पर रखते थे। भाजपा भी लालू को ही निशाने पर रखती रही है। मुश्किल यह है कि नीतीश उसके सहयोगी रहे हैं। और शायद उसे उम्मीद हो कि बाद में वे कभी उनके काम आ जाएं इससे लालू को अपने वोट बैंक मजबूत करने में आसानी होती गई जबकि इस वोट बैंक में नीतीश के लिए प्रतिबद्धता बढ़ती गई। भाजपा शुरू से इस तरह की बातें लालू-नीतीश में दूरी पैदा करने के लिए चाहती थी पर होता गया उलटा।