“एक तरफ जनधन, स्वच्छ भारत, उज्ज्वला जैसी योजनाएं हैं तो दूसरी तरफ नोटबंदी, रिकॉर्ड बेरोजगारी और कोरोना के शुरुआती दौर में सरकार की असंवेदनशीलता भी”
जनता को अच्छे दिनों का सपना दिखा कर सत्ता में आने वाली नरेंद्र मोदी सरकार के आठ साल बीतने पर यह लेखाजोखा लाजिमी है कि अच्छे दिन किसके और कितने आए। मोदी पहली बार 26 मई 2014 को और दूसरी बार 30 मई 2019 को प्रधानमंत्री बने। उनके दोनों कार्यकाल के फैसलों पर नजर डालें तो कई विरोधाभास स्पष्ट दिखते हैं। पहले पांच साल के दौरान जनधन योजना, मेक इन इंडिया, स्वच्छ भारत मिशन, प्रधानमंत्री आवास योजना और उज्ज्वला जैसी सामाजिक योजनाओं पर जोर रहा। हालांकि उसी कार्यकाल में नोटबंदी हुई और जीएसटी भी लागू किया गया। लेकिन मई 2019 में दोबारा सत्ता में आने के बाद सरकार का रुख हिंदुत्व की ओर मुड़ गया। इसी दौर में तीन तलाक को अपराध बनाने वाला कानून और नागरिकता संशोधन कानून लाया गया, अनुच्छेद 370 में कश्मीर को मिला विशेष दर्जा खत्म करते हुए राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया गया। इसी दौर में बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद राम मंदिर निर्माण की शुरुआत की गई, हिजाब के साथ वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा की शाही ईदगाह का मुद्दा भी नए सिरे से उठा। अब 2024 के आम चुनाव और उससे पूर्व 13 राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले समान नागरिकता संहिता का मुद्दा जोर पकड़ रहा है।
विरोधाभास और भी हैं। एक तरफ युवाओं के लिए कौशल विकास योजना लागू की गई तो दूसरी तरफ नोटबंदी के फैसले से असंगठित क्षेत्र की कमर टूटी और करोड़ों हाथों का रोजगार छिन गया। रिकॉर्ड 194 करोड़ कोविड-19 टीके (5 जून तक) लगाए गए तो उससे पहले लॉकडाउन में मजदूरों का सैकड़ों किलोमीटर पैदल सफर और फिर दूसरी लहर में ऑक्सीजन के लिए तड़पते लोग और गंगा में तैरती लाशों का भयानक मंजर भी दिखा। लालफीताशाही खत्म करने के लिए 1,200 पुराने कानून खत्म किए गए तो श्रम कानूनों में बदलाव से मजदूरों के लिए अपने हक की बात कहना भी मुश्किल हो गया।
नोटबंदी के बाद बैंक के बाहर लगीं कतार
उधर, भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों के नेताओं-कार्यकर्ताओं का रुख लगातार अल्पसंख्यक विरोधी नजर आया। तथाकथित लव जिहाद के विरोध के नाम पर सरेआम पीटने से लेकर गौ तस्करी और गोमांस के नाम पर हत्या करने जैसी घटनाएं घटीं। अमेरिकी विदेश विभाग ने सालाना रिपोर्ट में कहा कि भारत में 2021 में अल्पसंख्यकों पर हमले होते रहे।
इसी तरह कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 और 35ए को खत्म करना लंबे समय से भाजपा के एजेंडे में था। गृह मंत्री अमित शाह ने 5 अगस्त 2019 को इसका रिजॉल्यूशन राज्यसभा में पेश किया। वे जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में विभाजित करने का विधेयक भी लेकर आए। विरोध को दबाने के लिए पहले ही राजनीतिक दलों के नेताओं को हिरासत में ले लिया गया था और सुरक्षाबलों की भारी तैनाती की गई थी। डेढ़ साल तक इंटरनेट बंद रहा। इस फैसले का मकसद आतंकवादी हिंसा खत्म करना बताया गया, लेकिन 2020 में कश्मीर में हिंसा 37 फीसदी बढ़ गई। इस साल भी वहां हिंसा की अनेक घटनाएं हुई हैं, जिससे 1990 के दशक की तरह कश्मीरी पंडित एक बार फिर पलायन करने लगे हैं। सरकार के रवैये पर कश्मीर यूनिवर्सिटी के एक पूर्व वाइस चांसलर कहते हैं, “सरकार को कश्मीर चाहिए, कश्मीरी नहीं।”
दिसंबर 2019 में सरकार संसद में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) लेकर आई। हालांकि अब तक इसके नियम अधिसूचित नहीं किए गए हैं। इस कानून में 31 दिसंबर 2014 से पहले पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से भारत आने वाले हिंदू, सिख, बौध, जैन, पारसी और ईसाइयों को नागरिकता का प्रावधान है। मुसलमानों को इससे बाहर रखा गया है। इस कानून के खिलाफ पूर्वोत्तर, खासकर असम में हिंसा भी हुई। सरकार ने पूरे देश में नागरिकता सूची (एनआरसी) लागू करने की बात भी कही, जो अभी तक सिर्फ असम में लागू थी। सीएए-एनआरसी के खिलाफ दिल्ली के शाहीन बाग में महिलाओं का अभूतपूर्व धरना-प्रदर्शन चला।
लेकिन सबसे लंबा धरना प्रदर्शन तो किसानों ने किया। सरकार सितंबर 2020 में तीन कृषि कानून लेकर आई थी। इसके खिलाफ दिल्ली की सीमाओं पर पंजाब के किसानों की अगुआई में एक साल से भी लंबा धरना चला। आखिरकार उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से पहले नवंबर 2021 में प्रधानमंत्री ने तीनों कानून वापस ले लिया। इन्हीं आठ वर्षों के दौरान केंद्र सरकार पर केंद्रीय जांच एजेंसियों के दुरुपयोग के आरोप लगे। नतीजा यह हुआ कि पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, राजस्थान, केरल और पंजाब समेत नौ राज्यों ने सीबीआइ को जांच की सामान्य सहमति वापस ले ली। अब इन राज्यों में सरकार की सहमति या कोर्ट के आदेश से ही सीबीआइ मामला दर्ज कर सकती है।
विदेश नीति के मोर्चे पर मोदी ने शायद सबसे अधिक विदेश दौरे किए। पीएम इंडिया पर दी गई जानकारी के अनुसार अब तक वे 65 विदेश दौरे कर चुके हैं। सिर्फ कोरोना का वर्ष 2020 ऐसा बीता जब उन्होंने कोई विदेश दौरा नहीं किया।
अहमदाबाद में 17 सितंबर 2014 को प्रधानमंत्री मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाकात को काफी प्रचारित किया गया था, लेकिन जून 2017 में डोकलाम में चीन की सेना आ डटी। फिर 2020 की गर्मियों में पूर्वी लद्दाख में चीन और भारतीय जवानों के बीच खूनी झड़प देखी गई। फिर 2019 के आम चुनाव से पहले पुलवामा में 14 फरवरी 2019 को सीआरपीएफ के काफिले पर आत्मघाती हमला हुआ जिसमें 46 जवानों की मौत हो गई। 26 फरवरी को भारतीय वायु सेना ने पाकिस्तान के बालाकोट में हवाई हमले किए। पाकिस्तान और चीन के साथ रिश्तों में तनाव बरकरार है। अमेरिका के नेतृत्व वाले संगठन ‘क्वाड’ में शामिल होकर भारत ने चीन को आर्थिक चुनौती देने की कोशिश की है। रूस-यूक्रेन युद्ध में भी भारत अभी तक निष्पक्ष बने रहने में सफलता पाई है, हालांकि आगे का रवैया देखने वाला होगा।
सामाजिक क्षेत्र
मोदी सरकार की पहली कल्याणकारी योजना जनधन खाता खोलने की है। 28 अगस्त 2014 को शुरू की गई इस योजना का मकसद हर परिवार को बैंकिंग सिस्टम से जोड़ना है। इसके तहत अब तक 45.5 करोड़ खाते खोलने के दावे हैं। 2019 के आम चुनाव से पहले पीएम किसान योजना शुरू की गई थी। इन्हें 11 किस्तों में अब तक लगभग दो लाख करोड़ रुपये वितरित किए गए हैं। सबको घर देने के लिए जून 2015 में प्रधानमंत्री आवास योजना लांच की गई। इसी तरह मई 2016 में उज्ज्वला योजना लांच की गई। कोविड-19 महामारी के समय लांच की गई पीएम गरीब कल्याण अन्न योजना में हर महीने करीब 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज वितरित किया जा रहा है। इन योजनाओं ने एक नया ‘लाभार्थी वर्ग’ खड़ा किया है जिसका असर इस साल हुए विधानसभा चुनावों में दिखा।
ऑक्सीजन की कमी से पूरा देश जूझता रहा, पर सरकार के मुताबिक इसकी कमी से कोई मौत नहीं हुई
जब पूरा देश कोरोना से डरा हुआ था, जहां-तहां लॉकडाउन लग रहे थे, तब जुलाई 2020 में सरकार नई शिक्षा नीति लेकर आई। उच्च शिक्षा में कई अहम बदलाव किए गए हैं। सभी सेंट्रल यूनिवर्सिटी के लिए एक एंट्रेंस टेस्ट, एक साथ दो डिग्री कोर्स, बीच में एक्जिट विकल्प के साथ चार साल का डिग्री कोर्स इनमें अहम हैं। उच्च शिक्षा आयोग बनाने के लिए विधेयक लाने की भी तैयारी है। स्कूल पाठ्यक्रम बदलने के लिए एक समिति बनाई गई है। लेकिन जीडीपी के अनुपात में शिक्षा पर व्यय 2014 के 2.8 फीसदी से 2020-21 में मुश्किल से 3.1 फीसदी तक पहुंचा है।
सरकार जनवरी 2015 में नई स्वास्थ्य नीति लेकर आई, लेकिन उसमें सरकार का खर्च बढ़ाने के बजाय निजी संस्थाओं की भूमिका पर जोर दिया गया। 2015 के बजट में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के आवंटन में 25 फीसदी कटौती कर दी गई। सरकार ने 23 सितंबर 2018 को आयुष्मान भारत नाम से स्वास्थ्य बीमा योजना शुरू की। दावा किया गया कि देश के 50 करोड़ लोगों को इसका फायदा मिलेगा, लेकिन कोरोना वायरस ने इस योजना के साथ देश के स्वास्थ्य ढांचे की भी पोल खोलकर रख दी। पिछले साल महामारी की दूसरी लहर मौत की लहर साबित हुई। कोरोना से मौत का सरकारी आंकड़ा तो (5 जून तक) 5.24 लाख का है, लेकिन गैर-सरकारी आंकड़े 50 लाख तक के हैं। डब्लूएचओ के मुताबिक 48 लाख लोग मारे गए होंगे।
विशेषज्ञों के अनुसार कोरोना को रोकने में शुरू में काफी ढिलाई बरती गई। आम लोगों को टीका मुफ्त मिले या पैसे देकर, यह निर्णय भी सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद लिया गया। महामारी के कारण स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च 2021-22 में 4.72 लाख करोड़ रुपये हो गया जो 2019-20 में 2.73 लाख करोड़ रुपये था।
अर्थव्यवस्था
मोदी सरकार का रवैया बड़े बिजनेस के प्रति नरम कहा जा सकता है। ईज ऑफ डुइंग बिजनेस में भारत की रैंकिंग 2014 में 142 से सुधरकर 2021 में 63 हो गई। सरकार का शुरू से जोर निजीकरण और उदारीकरण पर रहा है। पहले तो सरकार कहती रही कि रेलवे का निजीकरण नहीं किया जाएगा लेकिन रेलवे के अनेक कार्यों में 100 फीसदी एफडीआइ की अनुमति दे दी गई। रक्षा क्षेत्र को भी विदेशी निवेश के लिए खोल दिया गया। कॉरपोरेट के लिए इनकम टैक्स की दर घटाकर 25 फीसदी कर दी गई। हालांकि सबसे बड़ा कर सुधार, जीएसटी 1 जुलाई 2017 को लागू किया गया। इसमें 17 तरह के टैक्स और ड्यूटी को शामिल किया गया था।
लेकिन उससे पहले 8 नवंबर 2016 की रात प्रधानमंत्री ने अचानक नोटबंदी का ऐलान कर दिया। सिर्फ चार घंटे के नोटिस पर 500 और 1000 रुपये के नोटों पर पाबंदी लगा दी गई। इससे पूरे देश में अफरातफरी मच गई। पहले कहा गया कि नकली नोट, काले धन और हवाला लेन-देन पर लगाम लगाने के लिए यह कदम उठाया गया है। लेकिन 99 फीसदी से ज्यादा राशि बैंकों में वापस आ गई। आज अर्थव्यवस्था में मौजूद करेंसी छह साल पहले की तुलना में ज्यादा है और नकली नोट भी बढ़े हैं। नोटबंदी से 90 फीसदी लोगों को रोजगार देने वाले असंगठित क्षेत्र की कमर टूट गई और बेरोजगारी 45 वर्षों के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई।
इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में मैल्कम आदिशेषैया चेयर प्रोफेसर अरुण कुमार के अनुसार हमें आठ साल नहीं बल्कि पांच साल और तीन साल देखना चाहिए। पिछले तीन वर्षों में कोरोना का असर रहा, जिस पर किसी का नियंत्रण नहीं है। रूस-यूक्रेन युद्ध पर भी हमारा नियंत्रण नहीं है। वे कहते हैं, “लेकिन पहले पांच साल में तो हमने खुद परेशानी मोल ली। नोटबंदी की गई, बिना सोचे-समझे जीएसटी लागू किया गया जिससे बहुत नुकसान हुआ। यह सरकार हमेशा पिछली सरकारों को दोष देती रही। विकास दर 2013 में गिर कर 4.5 के आसपास आ गई थी। लेकिन 2014-15 में 7.5 और 8 फीसदी की ग्रोथ रही। यानी मोदी सरकार आने तक अर्थव्यवस्था पटरी पर आ गई थी। परेशानी उसके बाद बढ़ी।”
महामारी से पहले लगातार आठ तिमाही तक विकास दर में गिरावट आई और यह 8 फीसदी से घटकर 3.1 फीसदी रह गई। प्रो. कुमार कहते हैं, “सप्लाई पर फोकस के कारण सरकार ने कॉरपोरेट टैक्स में बड़ी कटौती कर दी। लेकिन कंपनियों ने अपना निवेश नहीं बढ़ाया, क्योंकि मांग नहीं थी।”
प्रो. कुमार के अनुसार सप्लाई पर फोकस वाली नीति के कारण असंगठित क्षेत्र की हालत नहीं सुधर रही है। नए आंकड़े बताते हैं कि हम 2019-20 में जहां थे, उस स्तर पर अब पहुंचे हैं। तब से सिर्फ 1.5 फीसदी का विकास हुआ है। वे कहते हैं, “मेरा आकलन है कि 2019-20 से हमारी अर्थव्यवस्था 4.5 फीसदी कम है।”
ऐसे संकट के समय में ही सरकार ने सितंबर 2019 में 20,000 करोड़ रुपये के सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट की शुरुआत की जो पांच साल में खत्म होगी। मोदी सरकार नया संसद भवन, नया सचिवालय और अन्य इमारतें बना रही है। इस परियोजना के लिए कई नियम बदले गए तो पर्यावरण मानकों के साथ छेड़छाड़ के आरोप भी लगे। इसका काम कोरोना लॉकडाउन में भी नहीं रुका।
सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट मोदी सरकार में सत्ता के केंद्रीकरण के कई उदाहरणों में से एक है। पीएमओ सत्ता का एकमात्र केंद्र बन गया है। कहा तो यह भी जाता है कि प्रधानमंत्री सीधे अफसरों को निर्देश देते हैं और कई बार मंत्रियों को भी उसकी जानकारी नहीं होती है। सभी प्रमुख घोषणाएं वे स्वयं करते हैं। आज मोदी आठ साल पहले से ज्यादा मजबूत नजर आते हैं। वही राजनीतिक एजेंडा तय करते हैं, जिस पर विपक्ष सिर्फ प्रतिक्रिया देता है।