लोकसभा चुनाव के नतीजे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के लिए बड़े झटके हैं। भूपेश बघेल के लिए झटका कुछ ज्यादा ही करारा है क्योंकि पांच महीने पहले छत्तीसगढ़ की जनता ने कांग्रेस को दो तिहाई बहुमत के साथ सत्ता में बैठाया था और लोकसभा में 11 में से दो सीटों पर ही बांध कर रख दिया। मध्यप्रदेश में कांग्रेस का प्रदर्शन 2014 से भी ख़राब रहा। पिछले लोकसभा चुनाव में उसे 29 में से दो सीटें मिलीं थीं और इन चुनावों में एक सीट ही हासिल कर सकी।
कमलनाथ की परंपरागत छिंदवाड़ा सीट से उनके बेटे नकुलनाथ ही जीत दर्ज कराने में कामयाब रहे। जीत का अंतर कोई बड़ा नहीं रहा। 2014 में कमलनाथ करीब डेढ़ लाख वोटों से जीते थे लेकिन बेटा 38 हजार के अंतर से जीत पाया। विधानसभा उपचुनाव में कमलनाथ भी 20 हजार वोट की बढ़त ली। कांग्रेस के दिग्गज नेता दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया और कांतिलाल भूरिया समेत तमाम लोग चुनाव हार गए।
विधानसभा चुनाव में 41 फीसदी वोट हासिल कर दिसम्बर में कमलनाथ के नेतृत्व में मध्यप्रदेश में सरकार बनाने वाली कांग्रेस को जनता ने क्यों नकार दिया, यह विचारणीय प्रश्न है। वैसे विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस को यहां कोई भारी भरकम बहुमत नहीं मिला था , लेकिन वह निर्दलीय, सपा और बसपा के विधायकों की मदद से सरकार बनाने में कामयाब हो गई।
वादे पूरे नहीं कर पाई कमलनाथ सरकार
किसानों के कर्ज माफी के जिस वादे पर वह जीतकर आई थी, लोकसभा चुनाव के पहले उसे पूरी तरह से निभा नहीं पाई और सरकार ने कर्ज माफ़ी की जो प्रक्रिया बनाई , उसमें किसान उलझ कर रह गया। इससे किसानों में नाराजगी का माहौल बन गया। दूसरा कारण बिजली कटौती रही, कमलनाथ की सरकार लोगों को बिजली की समस्या से निजात नहीं दिला पाई। तीसरा बड़ा कारण मंत्रियों का कामकाज रहा। मंत्री विकास के काम करने की जगह अधिकारियों और कर्मचारियों की पोस्टिंग में लग गए।
वहीँ, कमलनाथ प्रदेश अध्यक्ष के नाते न तो संगठन में जान फूंक सके और न ही भाजपा के प्रभाव वाले इलाके में अपनी ताकत बढ़ा सके। वैसे भी मध्यप्रदेश को भाजपा का गढ़ और आरएसएस का प्रभाव वाला इलाका माना जाता है। खासकर मालवा का इलाका तो भाजपा का केंद्र है।
अनुभव नहीं होना रहा नुकसानदेह
कमलनाथ ने पहली बार राज्य की राजनीति में कदम रखकर मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली, इसके पहले उन्हें राज्य चलाने का अनुभव नहीं था ,इस कारण दिग्विजय सिंह और राज्य के दूसरे नेताओं पर उनकी निर्भरता बढ़ गई, इसका भी उन्हें नुकसान उठाना पड़ा। मोदी के नाम की काट भी नहीं निकाल नहीं पाए, वहीँ भाजपा कमलनाथ सरकार पर लगातार दबाव बनाती रही। यहां तक कि वह जल्द कमलनाथ सरकार गिर जाने का सन्देश जनता और अफसरों में देने में कामयाब रहे।
बघेल के मंत्री नहीं दिला पाए जीत
छत्तीसगढ़ में लोकसभा की दो सीटें जीतकर भले कांग्रेस खुश हो सकती है, क्योंकि 2014 में उसे एक ही सीट मिली थी। लेकिन सबसे शर्मनाक हार उसे दुर्ग में मिली, जहां से मुख्यमंत्री भूपेश बघेल हैं और तीन मंत्री भी उसी जिले से हैं। विधानसभा चुनाव कवर्धा सीट से रिकार्ड 59 हजार वोट जीत दर्ज करने वाले मंत्री मोहम्मद अकबर अपने लोकसभा क्षेत्र में कांग्रेस प्रत्याशी को जीत नहीं दिला पाए। भूपेश बघेल मंत्रिमंडल में दूसरे नंबर के मंत्री टी एस सिंहदेव भी अपने इलाके में जीत दिला नहीं पाए। विधानसभा अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत कोरबा में अपनी पत्नी को जीत दिलवाकर इज्जत बचा ली।
फैसलों में रहा ढुलमुलपन
लगता है कि तीन महीने में भूपेश सरकार ने जिस तरह भाजपा नेताओं और पूर्व मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह के करीबी अफसर रहे लोगों को निशाने पर लिया, उसे जनता ने पसंद नहीं किया। साथ ही प्रशासनिक फैसलों में ढुलमुलपन ने भी उसे नुकसान पहुंचाया। भूपेश सरकार ने किसानों से किये वादे तो पूरे किये, लेकिन सरप्लस स्टेट में बिजली की अघोषित कटौती को लोग पचा नहीं पाए। भूपेश ने अभी तक वन मैन आर्मी की तरह काम किया, जिसको लेकर पार्टी नेता और कार्यकर्त्ता ही नाराज दिखे। इसके अलावा कांग्रेस कार्यकर्त्ता उद्योगपतियों और अफसरों पर जिस तरह दबाव बनाया, वह भी कांग्रेस के खिलाफ गया। भूपेश सरकार के खिलाफ तीन महीने में ही नाकारात्मक छवि बननी शुरू हो गई, उसका परिणाम लोकसभा में देखने को मिला। स्वाभाविक है कि भूपेश के खिलाफ अब आवाज उठेगी, उससे निपटते हुए भूपेश को प्रसाशनिक चुस्ती भी लानी होगी।