Advertisement

जनादेश ’23 नजरिया: कांग्रेस के लिए दो सबक

संदेह है, कांग्रेस पार्टी कभी इतना साहस जुटा पाएगी कि परिवार की सत्ता को हमेशा के लिए अलविदा कह दे मध्य...
जनादेश ’23 नजरिया: कांग्रेस के लिए दो सबक

संदेह है, कांग्रेस पार्टी कभी इतना साहस जुटा पाएगी कि परिवार की सत्ता को हमेशा के लिए अलविदा कह दे

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी की भारी जीत स्पष्ट  संकेत दे रही है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी अपने पिछले प्रदर्शन को पीछे छोड़ देंगे। पार्टी को 350 से ज्यादा सीटें मिलेंगी। भाजपा के मौजूदा गठबंधन सहयोगियों और नए सहयोगियों को जोड़ लें, तो बहुत मुमकिन है कि सत्ताधारी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) 400 से ज्यादा सीटें अपनी झोली में डाल कर राजीव गांधी के 1984 वाले 404 सीटों के रिकॉर्ड को भी तोड़ दे।

पांचवीं विधानसभा मिजोरम में जनादेश स्थानीय पार्टी के हक में गया लेकिन वहां भी भाजपा को तीन सीटें मिलीं जबकि कांग्रेस केवल एक जीत पाई है। कांग्रेस को इकलौती राहत दक्षिण में मिली, जहां उसने तेलंगाना की सत्तारूढ़ भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) को निर्णायक मात दी और सरकार बनाने की स्थिति में आ गई। कर्नाटक में भाजपा को हराने के बाद दक्षि‍ण में कांग्रेस की यह दूसरी चुनावी जीत है।

इन परिणामों के बाद कुछ लोग उत्तर-दक्षिण ध्रुव की बात करने लगे हैं। विभाजनकारी ढंग से ऐसी बात करना न सिर्फ नादानी है बल्कि खतरनाक दांव भी है। कांग्रेस को सबसे पहले ऐसे हितैषियों से दूर रहना होगा और इस तरह के आख्यानों से दूरी बनानी होगी। उत्तर में अब भी दर्जन भर से ज्यादा गैर-भाजपाई राज्य हैं और इनमें से एक हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है। कांग्रेस को चुनावी हार का ईमानदारी से विश्लेषण करना चाहिए और गड़बडि़यों को दुरुस्त करने में लग जाना चाहिए। लोकसभा में दो सीटों से शुरू करने वाली भाजपा यदि कामयाबी के ऐसे शिखर पर पहुंची है तो यह कठोर मेहनत के बगैर संभव नहीं हुआ है। पार्टी ने अपने गलत कदमों को सुधारने और परिणामों के विश्लेषण के आधार पर रणनीति-निर्माण का काम भी जारी रखा है।

हालिया विधानसभा चुनाव वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर अहम अंर्तदृष्टि देते हैं। इन चुनावों का जरूरी आयाम राजनीतिक ताकत के रूप में भाजपा का अपराजेय चरित्र है। सियासी हलकों में अब यह कहा जा रहा है कि भाजपा को जीत की लत लग चुकी है। यह चरित्र कुछ महत्वपूर्ण वजहों से संभव हुआ है।

इनमें सबसे अव्वल यह है कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की नुमाइंदगी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करते हैं, जिन्हें गंभीर, भ्रष्टाचार-मुक्त, मेहनती और पारदर्शी नेता के रूप में देखा जाता है। हर तरह के लोगों- युवा, महिला, आर्थिक रूप से पिछड़े और अन्य- के साथ उनका जबरदस्त संपर्क और सीधा संवाद सार्वजनिक जीवन में उनके व्यापक अनुभव और मुद्दों के प्रति समाधान-केंद्रित रवैये की उपज है। विदेश नीति से लेकर घरेलू मसलों तक वे कभी भी झटके में कोई प्रतिक्रिया नहीं देते हैं और अस्थायी नाकामियों से कभी प्रभावित नहीं होते हैं।

इसके अलावा, भाजपा के पास कुछ शानदार रणनीतिकार भी हैं। शुरुआत गृह मंत्री अमित शाह से होती है और यह फेहरिस्त पार्टी अध्यक्ष से लेकर अलग-अलग स्तरों के पदाधिकारियों तक जाती है। इसकी ताकत से पार्टी बूथ स्तर तक मतदाताओं के पास पहुंच पाती है। बीते बरसों के दौरान भाजपा ने अंतिम आदमी तक पहुंचने की अपनी मूल विचारधारा को सरकार की सामाजिक योजनाओं के साथ एकमेक करने का काम किया है। ‘बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ’ योजना, ग्रामीण बाजार, गरीबों के लिए बैंक खाते इनमें से कुछ एक हैं।

सामाजिक योजनाओं के अलावा, भाजपा ने पांच साल पहले तीनों राज्यों में सत्ता गंवाने के बाद से ही टीम के रूप में काम करना शुरू कर दिया था। पार्टी को ताजगी देते हुए काडर को कहा गया कि वह बूथ स्तर तक मतदाताओं के पास केंद्र सरकार की योजनाएं लेकर जाए और प्रचारित करे। इसके उलट, गैर-भाजपाई राज्यों की प्रशासनिक मशीनरी ने अपनी सरकार की योजनाओं का प्रचार करने की जहमत ही नहीं उठाई। कांग्रेस पार्टी के काडर को सरकारी योजनाओं का प्रचार करना चाहिए था। उन्होंने नहीं किया। इसके अलावा, पार्टी के भीतर धड़ेबाजी और कलह भी कांग्रेस के पतन का कारण बनी।

भारत के राजनीतिक दलों में काडर उसकी रीढ़ होता है। विडंबना है कि पिछले दो या तीन दशकों में तमाम दलों ने अपने कार्यकर्ताओं की जगह सोशल मीडिया को दे दी है और पार्टी की आंतरिक गतिविधियां आउटसोर्स होने लगी हैं। भाजपा ने भी सोशल मीडिया के सहारे प्रचार की तकनीक अपनाई लेकिन उसने काडर तंत्र को जीवंत और सक्रिय बनाए रखा। एक समय कांग्रेस भी काडर आधारित पार्टी हुआ करती थी, जहां केंद्र में एक मजबूत नेता होता था और प्रांतों में ताकतवर क्षत्रप हुआ करते थे। अब ऐसा नहीं है। अब कांग्रेस पार्टी महज ऐसी राजनीतिक इकाई बनकर रह गई है जो क्षेत्रीय दलों पर निर्भर है। ये क्षेत्रीय दल कांग्रेस की कीमत पर अपना वजूद बचाए हुए हैं।

कांग्रेस की सियासी बहाली दो बातों पर निर्भर करती है। पहली, पार्टी के शीर्ष पर कब्जा जमाए परिवार के नेतृत्व से निजात पानी होगी जिसकी कभी कोई जिम्मेदारी नहीं होती। यहां मामूली से मामूली जीत का सेहरा हमेशा हारने वाले वाले नेता के सिर पर बांधा जाता है जबकि बड़ी से बड़ी हार का ठीकरा पार्टी और उसके अदृश्य काडर के मत्‍थे फोड़ दिया जाता है। दूसरी बात, कांग्रेस को अपने दम पर बहाली की योजना तैयार करनी होगी। इसके लिए वह ‘इंडिया’ के छाते के नीचे जुटी क्षेत्रीय इकाइयों की उस भीड़ पर भरोसा नहीं कर सकती जिसके पास न काडर हैं, न कोई राष्ट्रीय एजेंडा, बल्कि जो केवल बांटने वाले एजेंडे पर चलते हैं। इस बात पर संदेह है कि कांग्रेस पार्टी कभी इतना साहस जुटा पाएगी कि परिवार की सत्ता को हमेशा के लिए अलविदा कह दे। जब तक यह पार्टी परिवार के अधीन रहेगी, तब तक भाजपा को यह सत्ता में बने रहने में मदद करती रहेगी।

(लेखक ऑर्गेनाइजर पत्रिका के पूर्व संपादक और भाजपा से जुड़े हुए हैं)

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad