मैंने पढ़ लिया, जितनी जल्दी पढ़ सकी। दिलचस्प ऐसी कि छोड़ते न बने। भाषा का प्रवाह ऐसा कि अपनी कथा के साथ बहाए चले। यहां तक कि यातना शिविरों के ब्योरे और आंकड़ों पर भी आप रुक न जाएं।
प्रतीति सेन, हमारी बंगालिन नायिका को प्रेम में धोखा मिला। क्यों? इसलिए कि उसे जन्म देनेवाली मां बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम के दौरान सेना द्वारा बलात्कार की शिकार हुई लाखों औरतों में से एक चौदह वर्षीय हिंदू लड़की थी। बलात्कार के ही कारण परित्यक्त नानी द्रौपदी देवी ने धर्म बदलकर रहमाना ख़ातून बनकर उसे पाला और पढ़ाया है।
इतिहास की बेइंसाफ़ियां और सत्ताओं के निर्मम फ़ैसलों की शह पर पुरुषों की क्रूरता औरतों की देह पर हर युद्ध में जो घिनौनी इबारतें लिखती हैं, उसे गरिमा श्रीवास्तव पहले भी अपनी किताब ‘देह ही देश’ में दर्ज कर चुकी हैं। इस बार की कथा भारतीय समाज की रूढ़िवादी यौनशुचिता की धारणा के दंड की भी कथा है कि अपनी तीस साल की ब्याहता और तीन बच्चों की मां को भी बलात्कार होने पर प्रतीति सेन का नाना बिराजित सेन त्याग देता है।
जादवपुर यूनिवर्सिटी से एक सेमिनार में शिरकत करने के लिए गयी प्रतीति सेन पोलैंड में यहूदियों के लिए बनाए गए आउशवित्ज़ कैम्प में जाती है, जहां दस लाख लोगों को गैस चेम्बर या अन्य तरीक़ों से मौत के हवाले किया गया था। उसकी भारत में बनी पोलिश सहेली सबीना का पति इसी कैम्प में दस साल की उम्र में अंधे बनाए गए नीली आंखों वाले पिता का पुत्र है। बांग्लादेश के मुक्तियुद्ध के दंश से जिस तरह प्रतीति सेन को मुक्ति नहीं है, उसी तरह सबीना के जीवन पर भी नाज़ी होलोकास्ट की छाया घिरी है। इस सच्चाई का निहितार्थ बहुत मारक है। युद्ध के बाद बचे हुए लोग रोज़मर्रा के जीवन में जो युद्ध लड़ते हैं, उनका लेखा-जोखा इतिहास में नहीं होता। साहित्य ही उनकी ख़बर देता है कि किस तरह पीढ़ी-दर-पीढ़ी ये छायाएं एक गहन अवसाद का बादल बन जीवन को अंधेरे में डुबोती रहती हैं।
बाईस साल बाद भी प्रेम का धोखा नासूर की तरह प्रतीति के मन में टीसता है, पर उसके पास एक स्त्री के स्वाभिमान की विरासत है जो उसकी नानी रहमाना ख़ातून से उसे मिली है। नानी ने जीवन काटने और उसे पालने के लिए मौलवी की आठवीं बीबी बनना स्वीकारा और अपना कर्मक्षेत्र गढ़ा था। यह नानी पल-पल दूर से भी उसके अंदर धड़कती है। पूरे उपन्यास में अंत तक नानी-दौहित्री के कहे-अनकहे संवादों का महीन वितान पाठक की संवेदना को लपेटे रखता है। प्रतीति सेन की आत्मकथात्मक ‘मैं’ की शैली उसके मन के आरोह-अवरोह के साथ पाठक को डुबाती-उतराती रहती है। बांग्ला कविताओं के शीर्षक उसके मन में पैठने का दरवाज़ा हैं।
प्रतीति सेन की सहेली सबीना का बचपन उसकी मां के नाज़ी कैम्प की स्मृतियों के अतीत में दफ़न हो गया था। अपने बच्चे की नीली आंखें उसे अपने ससुर के अतीत को भुलाने नहीं देतीं। उसके दादा की डायरी में ट्रेन में भेड़ों की तरह भरकर पांच दिनों का सफ़र करते भूखे यहूदी हैं जिन्हें जलते मांस की गंध फैलाते कारख़ानों में काम करना है। आउशवित्ज़ की यात्रा में काटी रात में वह सपने में घिग्घियों में रोती है क्योंकि वह उन्हीं भूखी-नंगी औरतों के कैम्प में ज़मीन में घसीटी जा रही है।
उपन्यास में आउशवित्ज़ में दी गयी यातनाओं का विस्तृत वर्णन दिल को दहलाता और मायूस करता है कि मनुष्य किसी माने हुए सच के पीछे अपने ही जैसे मनुष्यों के प्रति कैसा राक्षसी व्यवहार कर सकता है। बालों का ढेर, कपड़ों का ढेर, अपाहिजों की बैसाखियों का ढेर, घड़ियों का ढेर: मनुष्य की अकल्पनीय क्रूरता की गवाही देते साक्ष्य हैं। प्रतीति सेन की आउशवित्ज़ यात्रा, उसके अपने अतीत के साथ घुलकर, जिसमें कभी न देखी हुई मां का बलात्कार शामिल है, पाठक को युद्ध की उन विभीषिकाओं से गुज़ारती है, जिन्हें न भूलना, अपनी शर्मिंदगी को बचाए रखना ज़रूरी है। तभी हम इंसान के रूप में बचे रह सकते हैं।
उपन्यास में कई आवाज़ें अलग-अलग अध्याय में इस तरह आती हैं जैसे हर पात्र अपनी स्मृतियों में उतर रहा हो, अपनी आत्मकथा कहने के लिए। तमाम स्मृतियों की आवाजाही के बीच आउशवित्ज़ के लगभग अनऔपन्यासिक विवरण चहलक़दमी करते हैं। कभी थोड़ी देर तो कभी कुछ ज़्यादा देर परेशान करते हुए। पर उनके बिना हम हक़ीक़त को पूरी तरह समझ भी कहां पाते।
प्रतीति सेन की प्रेम-कथा दरअसल उस प्रेम की कथा है, जिसे मानव ने अब तक पाया ही नहीं है; जिसे बांग्लादेश के लालन फ़क़ीर ने कहा है कि ‘मनुष्य को भजकर ही तुम मनुष्य हो पाओगे।’ जाने कितने युद्ध कितनी औरतों की देह पर लड़े गए हैं और आज भी लड़े जा रहे हैं। आउशवित्ज़ तो सिर्फ़ औरत ही नहीं, एक नस्ल के मनुष्यों के प्रति नफ़रत से लड़े गए युद्ध का शर्मसार करनेवाला प्रतीक है। कथा से गुजरते हुए सबसे अधिक हौल पैदा करता है, एक अधेड़ औरत का युद्ध में बलात्कार होने पर त्याग दिया जाना और उसकी नातिन प्रतीति सेन का अपनी मां के साथ हुए बलात्कार का मोल अपने प्रेम को खोकर चुकाना। पाठक के दिल में हाहाकार उठानेवाली यह कृति उन नफ़रतों के ख़िलाफ़ एक आवाज़ है जो व्यक्ति से लेकर समाज और देशों में तक अब भी फैली हैं।
आउशवित्ज़ : एक प्रेम कथा
गरिमा श्रीवास्तव
वाणी प्रकाशन
समीक्षक : अलका सरावगी
(लेखिका साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त ख्यात लेखिका हैं)