गीत चतुर्वेदी का कविता-संग्रह ‘न्यूनतम मैं’ पढ़ते हुए इराकी मूल की अमरीकी कवि दुन्या मिखाइल का कथन याद आता है- “किसी भी अच्छे कवि की तरह, गीत चतुर्वेदी के पास तीसरी आँख है, जिसकी मदद से वह सिनेमाई तकनीकों का प्रयोग करते हैं और ऐसे दृश्य रचते हैं जो अद्भुत, मासूम और खिलन्दड़ हैं। उनके संवेदना- बोध और शैली की सूक्ष्मता के कारण उनकी कविताओं को पढ़ने में अत्यन्त आनन्द आता है।”
‘न्यूनतम मैं’ में चार कविताएं ऐसी हैं, जो वोंग कार-वाई, नूरी बिल्गे जेलान, यासुजिरो ओजू और त्रान आन्ह हुंग जैसे विश्व के महान फिल्मकारों को समर्पित हैं। ये कविताएं गद्य की शैली में लिखी गई हैं लेकिन इनमें हरी पत्तियों जैसी कोमलता है, ओस जैसी नमी है और फूलों जैसी ताज़गी है। जब यह कहा जाता है कि कविता का असली संगीत उसके शब्दों के भीतर और पंक्तियों के बीच में होता है, तो यूं ही नहीं कहा जाता। गीत चतुर्वेदी की सिनेमा-सीरीज की ये कविताएं उदाहरण की तरह पढ़ी जा सकती हैं। दुन्या मिखाइल के शब्दों को चरितार्थ करते हुए गीत सिनेमाई दृश्य कौशल का सुंदर प्रयोग करते हैं।
गीत की कविताएं कई आयामों में खुलती हैं। ‘न्यूनतम मैं’ की पहली कविता है- ‘समाधि’। विन्यास में यह कविता सरल और सादी है, लेकिन इसमें आए प्रतीकों को खोला जाए, तो यह एक गहरी राजनीतिक कविता की तरह प्रस्तुत होती है।
मेरे भीतर समाधिस्थ हैं
सत्रह के नारे
सैंतालीस की त्रासदी
पचहत्तर की चुप्पियां
और इक्यानबे के उदार प्रहार
घूंघट काढ़े कुछ औरतें आती हैं
और मेरे आगे दीया बाल जाती हैं
गहरी नींद में डूबा एक समाज
जागने का स्वप्न देखते हुए कुनमुनाता है
गरमी की दुपहरी बिजली कट गई है
एक विचारधारा पैताने बैठ उसे पंखा झलती है
न नींद टूटती है न भरम टूटते हैं
इस कविता के पहले बंद में आई संख्याएं महज संख्याएं नहीं हैं, बल्कि बीसवीं सदी के विशेष बरसों की तरफ इशारा करती हैं। सत्रह अर्थात 1917 की रूसी क्रांति, सैंतालीस यानी 1947 भारत का आजाद होना, पचहत्तर यानी 1975 की इमरजेंसी और इक्यानबे यानी 1991 का आर्थिक उदारवाद। बीसवीं सदी के अंतिम बरसों में उभरे युवाओं के मनोमस्तिष्क पर इन बरसों का गहरा प्रभाव रहा है। ‘एक विचारधारा पैताने बैठ उसे पंखा झलती है, न नींद टूटती है न भरम टूटते हैं’ इन पंक्तियों में गीत चतुर्वेदी अपने समय का गहरा क्रिटीक रच देते हैं। स्वप्न और यूटोपिया के धरातल पर जी रही एक पूरी पीढ़ी को यथार्थ के ठोस धरातल पर पहुंचने का आमंत्रण दे देते हैं।
गीत चतुर्वेदी समकालीन राजनीतिक दशा के सांकेतिक चित्रण के कवि हैं। ‘न्यूनतम मैं’ में ऐसी कई कविताएं हैं, जिनमें गीत एक सिद्धहस्त विश्व-कवि की तरह बेहद सूक्ष्मता के साथ अपने समय का भाष्य रच देते हैं। अपनी गहन काव्यसाधना और चिंतनशील दृष्टि से गीत ने भारतीय समाज के एक विशाल कालखंड को अपनी कविता में चित्रायमान कर दिया है। एक और बानगी देखिए-
मैं अपनी नहीं, किसी और की राजनीति हूँ
मैं किसी और का गुप्त एजेंडा हूँ
मेरे होने भर से कोई अपने हित साध लेगा
यह मेरा ही अहित होगा।
मैं अपना नहीं
किसी और का नाम हूँ
नरक की नागरिकता के लिए
मैंने आवेदन नहीं दिया था
मुझे किसी और के टिकट पर
यहां तक भेजा गया।
(टिकट)
इस कविता के गहरे राजनीतिक अर्थ तो बार-बार पाठ से ही खुलेंगे, लेकिन यह जरूर मानना होगा कि इसके कई राजनीतिक पाठ हैं और यह अपने समय और समाज से प्रतिश्रुत होकर की गई रचना है। समय, समाज और यथार्थ की गहरी पकड़ के अलावा भाषाई कल्पनाशीलता, उर्वरता और नए प्रयोगों की अनदेखी भूमि गीत को एक सम्पूर्ण कवि बनाती है। ‘उभयचर’ शीर्षक से उपलब्ध 27 हिस्सों की लंबी कविता को इक्कीसवीं सदी की हिन्दी कविता की एक उपलब्धि मानना चाहिए। बीसवीं सदी के अंतिम पच्चीस बरसों में वह पीढ़ी बड़ी हुई, जिसका जन्म इमरजेंसी के दौरान हुआ था। इस पीढ़ी के राजनीतिक, सामाजिक, मानसिक दुःस्वप्नों, मध्यमवर्गीय आकांक्षाओं और विवशताओं का व्याकुल वर्णन न केवल इस किताब को, बल्कि समूची हिन्दी कविता को एक अद्वितीय ऊँचाई प्रदान करता है।
गीत की कविता में बिंबों की ताज़गी, मंजी हुई भाषा का कौशल और हृदय को छू लेने वाली भाव-संवेदना की धार देखकर स्तब्धता होती है। वह नये और पुरातन का संगम हैं, पूर्व और पश्चिम की काव्य-धाराएं और दार्शनिक धाराएं उनके यहां एक बिंदु पर आकर जुड़ जाती हैं। एक तरफ़ जहां उनकी कविता में आधुनिक समय के महान फिल्मकारों और लेखकों का वर्णन है, वहीं दूसरी ओर प्राचीन काल के उन मनीषियों का हृदयस्पर्शी उल्लेख है, जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व ने भारतीय संस्कृति की रूपरेखा की निर्मिति की है। कालिदास, बुद्ध, आदि शंकर, विमलकीर्ति, अभिनवगुप्त जैसे प्राचीन भारतीय मेधाएं गीत की कविताओं में परिजनों की तरह आना-जाना करती हैं। फिलॉसफी के स्तर पर उनकी कविताएं जितना बुद्ध और आदि शंकर के वचनों से प्रभावित हैं, उतना ही नीत्शे और डेमॉक्रिटस की भी अंतरंग हैं। उनमें कुमार संभव का द्वैत-अद्वैत है, बौद्ध दर्शन का लंकावतार सूत्र भी है, महाभारत के अनेक प्रसंग हैं, इतिहास के अनेक मोड़ हैं। पांच सर्गों में बंटी यह किताब गीत चतुर्वेदी की महाकाव्यात्मक चेतना का परिचय देती है।
मैं कालिदास की उपमा हूँ
भारवि का अर्थगौरव दंडी का पदलालित्य
मैं माघ की कविता हूँ सोलह कला संपूर्ण
इसी देह में कहीं मेरे खुलने की कुंजी है
एक सच्चा चुम्बन पर्याप्त है मुझे खोल देने के लिए।
‘न्यूनतम मैं’ की कई पंक्तियां तो इक्कीसवीं सदी की हिन्दी कविता की सबसे प्रसिद्ध उक्तियों की तरह प्रयुक्त होती हैं। जैसे--
दो पहाड़ियों को सिर्फ़ पुल ही नहीं जोड़ते, खाई भी जोड़ती है
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जब बर्दाश्त से बाहर हो जाएगी भूख, हम अपना भविष्य खा लेंगे
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तुम्हारे बालों की सबसे उलझी लट हूं,
जितना खिंचूंगा, उतना दुखूंगा
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तुम्हें जाना हो तो इस तरह जाना
जैसे गहरी नींद में देह से प्राण जाता है
*
उनकी लगभग हर कविता में इस तरह की यादगार पंक्तियां होती हैं। गीत चतुर्वेदी के शब्द हमारी चेतना मे बार-बार दुहराई जाने वाली धुन की तरह गूंजते रहते हैं। उनमें काव्यात्मक वैविध्य प्रचुर है। उनकी कविताओं को किसी बने-बनाए ढर्रे या चालू प्रतिमानों के आधार पर नहीं पढ़ा जा सकता, बल्कि वे कविताएं अपना रास्ता ख़ुद बनाती है। वह कविता में अपनी ही बनाई शैलियों के पार चले जाते हैं और एक नई शैली अपना सकते हैं। उन्हें व्याख्याओं से नहीं, बल्कि संवेदना-बोध से समझना चाहिए। गीत चतुर्वेदी की कविता असाध्य वीणा की तरह है, जिससे सभी आकर्षित होते हैं, लेकिन जिसे साधने का कौशल सबमें नहीं होता। निराला, अज्ञेय, मुक्तिबोध, केदारनाथ सिंह, कुंवर नारायण और विनोद कुमार शुक्ल की परंपरा में गीत चतुर्वेदी अगले पड़ाव की तरह हैं।
(समीक्षक बैंगलोर में रहते हैं, पेशे से मैनेजमेंट प्रोफेशनल हैं और कलिंगा लिटरेरी फेस्टिवल के सहनिदेशक हैं।)