राजभाषा सेवा से जुड़े होने के कारण आलोचक और गीतकार डॉ. ओम निश्चल हिंदी से बहुत गहरे जुड़े रहे हैं। हिंदी की जड़ें न केवल इनकी जीविका अपितु इनके जीवन तक फैली रहीं। इसी के परिणामस्वरूप राजभाषा, भाषा और संस्कृति के ताने-बाने को केंद्र में रखकर उससे जुड़े तमाम मुद्दों पर उन्होंने भाषा की खादी का सृजन किया है। यह पुस्तक एक प्रकार का हिंदीनामा है जो विभिन्न दृष्टिकोणों से हमारे सपनों की भाषा, हमारी कल्पना की भाषा और भारत के जनमानस की भाषा हिंदी के वर्तमान और भविष्य की पड़ताल करती है। लेखक को हिंदी के राष्ट्रभाषा न बन पाने का क्षोभ है। हालांकि इसे राजभाषा का दर्जा मिला है लेकिन बावजूद इसके प्रशासन में अंग्रेजी का ही बोलबाला है। हिंदी की यह विडंबना उनके आलेखों में यत्र-तत्र झांकती है।
प्रायः सरकारी कार्यालयों की हिंदी देख-पढ़कर लोग घबरा जाते हैं। जबकि आकाशवाणी का जादू देश के कोने-कोने में पहुंच जाता है क्योंकि इसका रिश्ता बोलचाल की हिंदी से रहा है। गांधी जी की प्रिय जबान बिलकुल खादी की तरह है जिसे हिंदुस्तानी धागे से बुना गया था, जो खादी की तरह अनगढ़ लेकिन सरल थी। जैसे सहजता खादी का पर्याय है वैसे ही सरलता हिंदुस्तानी का पर्याय है। गांधी जी ने जिस तरह खादी का जोर-शोर से प्रचार किया, ठीक वैसे ही हिंदी भाषा के प्रसार पर भी बल दिया। लेखक के अनुसार, बहुत कम हिंदी जानने के बावजूद वे हिंदी के हिमायती थे, संस्कृतनिष्ठ या उर्दूपरस्त हिंदी के बजाय उन्होंने हिंदुस्तानी को तरजीह दी। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का उनका सपना नेहरूवियन मॉडल और राजनेताओं की बदनीतियों के हाथों धराशायी हो गया।
हिंदी के अलोकप्रिय होने का ठीकरा प्रायः अंग्रेजी पर फोड़ा जाता है, जबकि इसका असली कारण हिंदी की दुरूहता है। लेखक के अनुसार, राजभाषा के प्रहरी और कोशकार इसके लिए जिम्मेदार हैं। वे कहते हैं कि टॉलस्टॉय ने रूसी सीखने के लिए एक गांव में डेरा जमाया था। जबकि हम अपने गली-कूचे, मोहल्ले, गांव-देहातों में स्वतःस्फूर्त नैसर्गिक हिंदी की अनदेखी कर इसे संवैधानिक धक्के से चला रहे हैं। अभिनेताओं की तरह नेता चुनावी मौसम में जिस हिंदी के आयुध से वोटों का पिटारा लूटते हैं, सत्ता में आने के बाद उसे निर्ममता से भूल जाते हैं। यह बेहद शोचनीय है। लेखक का मानना है कि हिंदी भाषा के ताने-बाने में संस्कृति रची-बसी है, इसलिए हिंदी का हमारी संस्कृति से गहरा नाता है। जो सौंदर्य वस्त्रों में खादी का है वही सौंदर्य भाषा में हिंदी का है।
हिंदी सच्चे अर्थों में संस्कृति की वाहिका है, इसी दृष्टिकोण से ओम निश्चल ने पुस्तक को दो हिस्सों में बांटा है पहला- भाषा की खादी और दूसरा- संस्कृति के धागे। पहले भाग में हिंदी भाषा को लेकर उसकी अस्मिता, उसके मार्ग के बाधा-व्यवधान, समस्या-समाधान, उसके विकास और तमाम तकनीकी बातों का वृहद लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। इसी क्रम में ‘पराई मिट्टी में अपनी भाषा की क्यारी’ शीर्षक के अंतर्गत प्रवासी भारतीयों द्वारा सुदूर देशों में हिंदी के प्रचार-प्रसार संबंधी योगदान की चर्चा की है। हिंदी को वित्त से चित्त तक की भाषा बताते हुए लेखक ने बैंकों, इंटरनेट, कंप्यूटर जैसे संप्रेषण के तकनीकी क्षेत्रों में प्रयुक्त होने वाली हिंदी के विविध रूपों का निष्पादन किया है। डिजिटल मार्केटिंग, ऑनलाइन बैंकिंग, वर्ल्ड वाइड वेब वगैरह में भारत और हिंदी की भूमिका का एक पूरे अध्याय में विस्तार से आकलन किया है। लेखक ने भाषा में खादी जैसा सौंदर्य विकसित करने का श्रेय राष्ट्रीय हिंदी के अग्रणी लेखकों को दिया है। इसमें उन्होंने भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, प्रसाद, देवकीनंदन खत्री, मैथिलीशरण गुप्त और दिनकर से लेकर लोक भाषाओं, बोलियों, अपभ्रंश, प्राकृत और पालि जैसी भाषाओं को भी हिंदी के विकास-विन्यास, पुष्पन, पल्लवन और परिमार्जन के महत्वपूर्ण पड़ावों के रूप में परखा है। पुस्तक का बेहद सुंदर प्रकरण है, ‘मेरे युवा आम में नया बौर आया है।’ इस परिच्छेद में लेखक ने ब्रह्मांड की सबसे सुंदर अनुभूति प्रेम की विशद विवेचना की है। पूरे विश्व के इतिहास और संस्कृति से कालजयी प्रेम कथाओं का चयन करते हुए आदम-हव्वा से लेकर लैला-मजनू, रोमियो-जूलियट, पाओलो-प्रेंसेस्का, सलीम-अनारकली, एंटोनी-क्लियोपैट्रा आदि की मार्मिक दास्तानों का जिक्र किया है। इसी क्रम में वे संकलित शायरों, कवियों सूफी-संतों के उद्धरण, उनके द्वारा सुलगाई प्रणय की आंच को मद्धम-मद्धम दहकाते हैं।
‘संस्कृति के धागे’ खंड के अंतर्गत उन्होंने ऋतुओं और त्योहारों के बहाने कविताओं, गीतों, गंगा, बनारस के घाटों, कुटीर उद्योगों तक का वर्णन किया है। लेखक ने ‘फागुन का रथ कोई रोके’ शीर्षक के तहत बसंत और फागुन की जुगलबंदी में प्रेम कविताओं का राग छेड़ा है। हिंदी साहित्य की तमाम प्रेम कविताओं का आश्रय बन गया है यह निबंध। भारतीय संस्कृति के संरक्षक त्योहारों में आज किस कदर सहजता का स्थान कृत्रिमता ने ले लिया है, हम ‘असतो मा...ज्योतिर्गमय’ के मूल्य भूलते जा रहे हैं। दीवाली के बहाने लेखक कहता है, ‘कहां हैं रोशनी की फाइलें जिनमें गरीबों किसानों की झोपड़ियों में उजाले का फैसला लिखा है।’ अज्ञेय की ‘आंगन के पार द्वार’ और गिरिजाकुमार माथुर की ‘मेरे युवा आम में नया बौर आया है’ जैसी काव्योक्तियों का पुस्तक में विभिन्न अध्यायों के शीर्षक के रूप में लालित्यपूर्ण इस्तेमाल एक अभिनव प्रयोग है। भाषा प्रौद्योगिकी और साहित्य के रंगों के मनोग्राही संयोजन के रूप में जिज्ञासु छात्रों, शोधार्थियों एवं हिंदी प्रेमियों के लिए यह पुस्तक उपयोगी अवदान है।