अशोक स्तंभ का जो स्वरुप हमारा राष्ट्रीय चिह्न है, वह अशोक स्तंभ का वास्तविक स्वरुप नहीं है। दरअसल असल अशोक स्तंभ में एक चक्र ऊपर भी था जिसमें 32 तीलियां थीं। जब अशोक स्तंभ को राष्ट्रीय चिह्न के तौर पर अपनाया जा रहा था तब एक सांसद ने इस ओर नेहरू का ध्यान आकृष्ट भी कराया लेकिन उन्होंने इसकी अनदेखी कर दी थी।
बिहार विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी का रथ रोकने के बाद जनता दल (यूनाइटेड) राज्य के बाहर अपने विस्तार की कोशिशों में जुट गई है। इसी योजना के तहत पार्टी जल्द ही नया चुनाव चिह्न हासिल कर सकती है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज आकाशवाणी पर अपने मन की बात कार्यक्रम में बताया है कि सरकार जल्द ही स्वदेशी सोने के सिक्के लाने जा रही है। इन सिक्कों पर अशोक चक्र की छाप होगी। पीएम मोदी 5 नवंबर को 5 और 10 ग्राम वाली भारतीय स्वर्ण मुद्रा को लांच करेंगे।
करगिल की चोटी से 'ये दिल मांगे मोर’ का नारा देने वाले शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा का परिवार आज न्याय के लिए सरकारी तंत्र का चक्कर लगा रहा है। कैप्टन विक्रम बत्रा ने देश की जमीन को बचाने के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी लेकिन आज उनका परिवार अपनी ही जमीन पाने के लिए भू-माफिया से जूझ रहा है। कैप्टन विक्रम बत्रा के परिवार के संघर्ष में न तो सरकार का सहयोग मिल रहा है और न प्रशासन का। रोचक तथ्य तो यह है कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री से लेकर रक्षामंत्री तक गुहार लगाने वाले इस परिवार की सुध लेने से भी मध्य प्रदेश सरकार गुरेज कर रही है।
राजधानी के प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के एक पूर्व प्रोफेसर नागरिकों की एक अनुसंधान टीम के साथ घोर मोआवादी प्रभाव वाले एक जिले में गए जहां उनके एक पूर्व छात्र पुलिस अधीक्षक हैं। पुलिस अधिकारी की अपने पूर्व शिक्षक से मुलाकात का यह गर्वीला क्षण था, उन्होंने अपने गुरु के पांव छुए और उनके साथ अपनी तस्वीर खिंचवाई। नागरिक अनुसंधान टीम ने तब तक प्रशासन, पुलिस और सरकार समर्थित नक्सल विरोधी सशस्त्र निजी सेना का पक्ष ले लिया था इसलिए प्रोफेसर ने माओवादियों का पक्ष लेने के लिए नदी पार जाने की बात कही। इस पर शिष्य पुलिस अधीक्षक तपाक से बोले, सर, आप उस पार गए कि दुश्मन की तरफ होंगे और हमारी गोली खा सकते हैं। मैंने जानबूझकर दोनों लोगों का नाम छिपाया है ताकि एक निजी गुफ्तगू दोनों के लिए सार्वजनिक झेंप की वजह न बन जाए। लेकिन उनकी बातचीत से प्रशासन की ताजा मानसिकता पता चलती है: कि अब नक्सलवादियों के साथ निबटने में बीच की कोई जनतांत्रिक जमीन नहीं बची है। न सिविल हस्तक्षेप की कोई पहल, जैसे जयप्रकाश नारायण ने 1970 के दशक में बिहार के मुसहरी में की थी। अब प्रतिनिधि शासन और माओवादियों के बीच बस मैदान-ए-जंग है।