"गेंद को छकाते हुए मैदान के उस पार ले जाकर छेत्री ने भारत में फुटबॉल को रोमांचकारी बनाया"
क्रिकेट के दीवाने देश भारत में फुटबॉल को कौन पूछता था। फिर इसके प्रति दीवानगी की तो बात छोड़ ही दीजिए। लेकिन यह सब भारतीय फुटबॉल टीम के कप्तान सुनील छेत्री के मैदान संभालने से पहले की बात थी। फुटबॉल के प्रति दीवानगी के ख्वाब को छेत्री ने हकीकत में बदल दिया था।
उन्होंने भारत के लिए खेला, जम कर खेला। क्या हुआ जो छह जून को अपने अंतरराष्ट्रीय करियर का आखिरी मुकाबला खेलने वाले सुनील टीम इंडिया की नैया पार नहीं लगा सके। खेल में यह सब चलता है। सॉल्ट लेक स्टेडियम में खेले गए इस मैच के बाद फैंस ने छेत्री को स्टैंडिंग ओवेशन दिया। छेत्री ने पूरे स्टेडियम का चक्कर लगाकर विनम्रता से इस प्यार को स्वीकार किया। दुनिया भर के सक्रिय खिलाड़ियों में, छेत्री अपनी राष्ट्रीय टीम के लिए सर्वाधिक गोल करने के मामले में केवल मेस्सी और क्रिस्टियानो रोनाल्डो से पीछे हैं।
सुनील की कहानी उनके सपने से पहले उनके पिता के सपने की कहानी है। देश में फुटबॉल का बुनियादी ढांचा ऐसा नहीं था कि उसे कोई करिअर के तौर पर देखता। लालफीताशाही, राजनीति की मिलीजुली अव्यवस्था ने कुल मिलाकर इस खेल के सारे रास्ते बंद कर रखे थे। इस सबके बीच क्लब फुटबॉल में स्तरीय खिलाड़ियों की कमी के बीच भारत में फुटबॉल का पोस्टर बॉय बनना आसान नहीं था।
देश के सर्वाधिक मैच (150 मैच) और सर्वाधिक परिणाम (94 गोल) के रूप में उनके अंतरराष्ट्रीय करियर का अंत भारतीय फुटबॉल के आध्यात्मिक घर कोलकाता में ही हुआ। सुनील ने कुवैत के खिलाफ अपना अंतिम अंतरराष्ट्रीय मुकाबला खेला। छेत्री की गोल स्कोरिंग क्षमता सिर्फ आंकड़ों पर नहीं, बल्कि उनकी निरंतरता और प्रभाव पर भी आधारित है। उनका सबसे उल्लेखनीय प्रदर्शन मालदीव जैसी टीम के खिलाफ रहा। इसके खिलाफ उन्होंने 6 मैचों में 8 गोल किए हैं। उनकी स्कोरिंग क्षमता केवल निचली रैंकिंग वाली टीमों तक ही सीमित नहीं है; छेत्री ने केन्या, किर्गिज गणराज्य और अफगानिस्तान जैसे मजबूत प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ भी सफलता पाई है। उनके गोल महत्वपूर्ण मैचों में आए हैं, जिससे अक्सर भारत को जीत मिली है या उन्हें बहुमूल्य अंक हासिल करने में मदद मिली है। पिछले कई वर्षों से विभिन्न प्रकार के प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ लगातार अच्छा प्रदर्शन करने की उनकी क्षमता राष्ट्रीय टीम में उनके महत्व और भारत के सर्वकालिक महान खिलाड़ियों में से एक के रूप में उनकी स्थिति को रेखांकित करती है।
पिता का अधूरा सपना
3 अगस्त, 1984 को आंध्र प्रदेश के सिकंदराबाद में जन्मे सुनील की रगों में ही फुटबॉल वाला जोश था। पिता भारतीय सेना फुटबॉल में प्रतिनिधित्व करते थे। मां सुशीला अपनी जुड़वां बहनों के साथ नेपाल की राष्ट्रीय टीम के लिए खेलती थीं। हालांकि, बचपन में फुटबॉल सुनील के दिल के करीब नहीं था। वह केवल एक प्रतिष्ठित कॉलेज में प्रवेश पाने और अपनी शिक्षा जारी रखने के लिए इस खेल को सहारा बनाना चाहते थे। फुटबॉल पृष्ठभूमि वाले परिवार से आने वाले सुनील को इस बात का इल्म नहीं था कि उनकी किस्मत ने इस जोशीले खेल के लिए उन्हें चुना है। लेकिन उनके पिता खड़ग छेत्री को बेटे की प्रतिभा का अंदाजा था। पिता ने सुनील को एक पेशेवर फुटबॉलर बनाने और वह सब हासिल करने का सपना देखा, जो उनकी पहुंच से दूर रह गया था। इस तरह सुनील का करियर राष्ट्रीय राजधानी में आकार लेने लगा। उन्होंने 2001-02 तक सिटी क्लब दिल्ली का प्रतिनिधित्व किया। सुनील को बड़ा मौका तब मिला, जब भारत के नामचीन फुटबॉल क्लब मोहन बागान ने गेंद के साथ उनकी जादूगरी से प्रभावित होकर 2002 में उनके साथ अनुबंध किया।
2005 तक शहर के प्रसिद्ध क्लब में रहकर सुनील ने मोहन बागान के लिए 18 मैचों में आठ गोल किए, जिससे भारतीय अंडर-20 टीम और फिर वरिष्ठ राष्ट्रीय टीम में उनके प्रवेश का मार्ग प्रशस्त हो गया। इसी बीच सुनील को अपना पहला अंतरराष्ट्रीय मैच खेलने के लिए पाकिस्तान के क्वेटा शहर जाने का मौका मिला। पिता सुरक्षा को लेकर चिंतित था। बलूचिस्तान प्रांत में सुरक्षा व्यवस्था को लेकर हो रही चिंता को 20 साल के छेत्री ने सहजता से लिए और पिता को आश्वासन दिया कि आयोजकों द्वारा उनकी अच्छी देखभाल की जा रही है।
बैकबेंचर से कप्तान तक की यात्रा
भारतीय फुटबॉल की धड़कन कहे जाने वाले सुनील अच्छा खेलने के बावजूद लो प्रोफाइल रहते थे। 2011 में एशियाई कप के बाद बाईचुंग भूटिया के अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल से संन्यास लेने के बाद तत्कालीन मुख्य कोच बॉब हॉटन ने उन्हें कप्तानी सौंपी तब वह बैकबेंचर के अपने व्यवहार से बाहर आए। उनकी भूमिका अब नेट के पीछे तक ही सीमित नहीं रही। बढ़ती अपेक्षाओं और हर बार मैदान पर उतरने पर अच्छा प्रदर्शन करने के दबाव के बावजूद, सुनील ने एशियाई कप, एएफसी चैलेंज कप, विश्व कप क्वालीफायर जैसे शीर्ष अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट्स में अपने सहयोगियों के पर्याप्त समर्थन के बिना, आत्मविश्वास के साथ अपना काम किया।
हालांकि, भारतीय टीम के लिए अपने करियर के शुरुआती दौर में भूटिया जैसे लोगों ने उनकी मदद की थी, लेकिन 'सिक्किमी स्नाइपर' के मैदान से चले जाने के बाद से सुनील ज्यादातर समय अकेले से लगे। इसमें कोई संदेह नहीं है कि बीच के वर्षों में कुछ प्रतिभाशाली खिलाड़ी उभरे लेकिन कोई भी सुनील छेत्री या बाईचुंग भूटिया जैसा करिश्मा नहीं दिखा पाए। एक दशक से भी अधिक समय तक सुनील की किस्मत राष्ट्रीय टीम की किस्मत के समान रही। कप्तान बनना उनके करियर में जादुई मोड़ लेकर आया। हालांकि मैदान पर अपनी भारी जिम्मेदारी के बावजूद, सुनील ऐसे पारिस्थितिकी तंत्र में सबसे लंबे समय तक फले-फूले, जो भारतीय फुटबॉल में कभी न खत्म होने वाली प्रशासनिक उदासीनता के कारण आदर्श नहीं था।
फीफा के निलंबन से लेकर पदाधिकारियों और कोच पर यौन उत्पीड़न के आरोपों और बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और गुटबाजी तक, अखिल भारतीय फुटबॉल महासंघ (एआईएफएफ) ने यह सब देखा। दूसरी तरफ सुनील थे, जो मैदान पर अपना सब कुछ झोंकते हुए यह उथल पुथल महसूस कर रहे थे। किसी सक्षम उत्तराधिकारी के बिना अपने अंतरराष्ट्रीय करियर को आगे बढ़ाने के लिए, सुनील अपने अच्छे दोस्त, विराट कोहली की सलाह पर शाकाहारी बन गए।
विपरीत परिस्थितियों में भी नीली जर्सी और नारंगी आर्मबैंड पहनकर, लगभग दो दशकों तक सुनील क्रिकेट के दीवाने देश में फुटबॉल पर ध्यान केंद्रित करने के लिए मजबूर करने में सफल रहे। अंतरराष्ट्रीय मंच पर सुनील छेत्री की उपलब्धियों ने न केवल उन्हें घरेलू स्तर पर बल्कि दुनिया भर में सम्मान दिलाया है। अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल से संन्यास लेने के बाद एक सफल गोल स्कोरर और भारत में युवा फुटबॉल खिलाड़ियों के लिए प्रेरणास्रोत के रूप में उनकी विरासत सुरक्षित है। एक युवा प्रतिभा से लेकर राष्ट्रीय टीम का कप्तान और अग्रणी गोल-स्कोरर बनने तक की उनकी यात्रा कड़ी मेहनत, दृढ़ता और बेजोड़ कौशल की कहानी है। सुनील की यात्रा सिखाती है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कौन हैं। यदि आप बड़े सपने देखते हैं और कड़ी मेहनत करते हैं, तो आप अकल्पनीय परिणाम प्राप्त कर सकते हैं, जैसा सुनील छेत्री ने किया।