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किसानों को ही" भगवान "मानते थे स्वामी सहजानंद सरस्वती

"महात्मा गांधी से उनक़ा मोहभंग हो गया था" पिछले दिनों जब देश के कई हिस्सों में किसान आंदोलन हुए तो तो कई...
किसानों को ही

"महात्मा गांधी से उनक़ा मोहभंग हो गया था"

पिछले दिनों जब देश के कई हिस्सों में किसान आंदोलन हुए तो तो कई लोगों ने यह सवाल उठाया कि उसमें हिंदी के बड़े लेखकों ने भाग नहीं लिया । आज के लेखक को किसानों से कोई मतलब नहीं रह गया है भले ही भी वे अपने लेखन में कितना ही प्रगतिशील बात क्यों न दिखें लेकिन एक जमाना था जब हिंदी के बड़े लेखकों ने किसान आंदोलन में बढ़ चढ़कर भाग लिया था। उन्होंने उस जमाने के सबसे बड़े किसान नेता और देश में किसानों का पहला संगठित आंदोलन शुरू करने वाले स्वामी सहजानंद सरस्वती के किसान आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

प्रसिद्ध आलोचक एवम विद्वान अवधेश प्रधान द्वारा हाल ही में संपादित स्वामी जी की आत्मकथा " मेरा जीवन संघर्ष " आयी है जिसको पढ़ने से यह पता चलता है कि महा पंडित राहुल सांकृत्यायन रामवृक्ष बेनीपुरी , राष्ट्कवि रामधारी सिंह दिनकर जैसे लोगों ने स्वामी सहज़ानन्द सरस्वती के किसान आंदोलन का न केवल समर्थन किया बल्कि उसमें भाग भी लिया था और कई लोगों ने उनपर कविताएं भी लिखी थीं।स्वामी जी उस जमाने मे इतने लोकप्रिय हो गए कि उन पर लोकगीत भी लिखे गए।स्वामी जी उस ज़माने में गांधी जी से अधिक लोकप्रिय थे।उनकी सभाओं में लाखों लोग आते थे।

स्वामी जी की आत्मकथा "मेरा जीवन संघर्ष" के अंग्रेजी अनुवादक एवं भारतमें स्वामी जी नेतृत्व में हुए किसान आंदोलन के अमरीकी अध्येयता वाल्टर हाउज़र के सहयोगी कैलाश चन्द्र झा ने स्वामी जी के कई दुर्लभ पत्रों को पहली बार हिंदी साहित्य के सामने उजागर किया है जिसमें तीन महत्वपूर्ण पत्र आचार्य शिवपूजन सहाय के भी हैं जिससे पता चलता है कि स्वामी जी के किसान आंदोलन में शिवपूजन जी भी गहरे रूप से जुड़े हुए थे और वह तो जेल जाते-जाते बच गए थे हालांकि अवधेश प्रधान द्वारा संपादित इस पुस्तक में सहाय जी के पत्रों को शामिल नहीं किया गया है क्योंकि ये पत्र अभी हाल ही में श्री झा को मिले हैं जब श्री झा ने वाल्टर हाउजर के निधन के बाद उनकी सारी सामग्री को अमेरिका से लाया।।शिवपूजन जी के इन ऐतिहासिक पत्रों को स्त्री लेखा पत्रिका ने प्रकाशित किया है। श्री झा को जे पी ,राहुल जी और नागार्जुन के स्वामी जी के नाम लिखे पत्र भी मिले हैं।श्री झा और हाउज़र ने मिलकर स्वामी जी की आत्मकथा का अनुवाद किया है।

अगर इन सारे प्रसंगों को देखा जाए तो पता चलता है कि 1930 के दशक में हिंदी के लेखकों ने स्वामी जी के किसान आंदोलन में न केवल भाग लिया बल्कि उनकी रचनाओं में भी किसान जीवन सामने आया।श्री कैलाशचन्द्र झा के अनुसार बाबा नागर्जुन ने भी स्वामी जी के किसान आंदोलन में भाग लिया था।

अवधेश प्रधान ने स्वामी जी की आत्मकथा "मेरा जीवन संघर्ष" के साथ-साथ उनकी एक और पुस्तक "महारुद्र का महा तांडव " को भी इसके साथ शामिल किया है क्योंकि" मेरा जीवन संघर्ष" में केवल 1940 तक की घटना का जिक्र है जबकि दूसरी पुस्तक 1948 में लिखी गयी और उसमें उसके बाद की घटनाओं का जिक्र है।स्वामी जी ने मेरा जीवन संघर्ष समेत 8 किताबें हजारीबाग जेल में लिखी थी जब वे 1940 से 42 तक उसमें रहे। लेकिन उनकी आत्मकथा उनके जीते जी नहीं छपी ।उसका भी एक दिलचस्प किस्सा है ।श्री कैलाश चन्द्र झा को हाल ही में स्वामी जी और किताब महल के बीच पत्रव्यहार में से एक पत्र मिला है जिसमें इस पुस्तक के न छपने की कहानी छिपी है।अब तक लोगों को यह नहीं पता था कि आखिर क्यों उनकी यह आत्मकथा उनके जीवन काल में नहीं प्रकाशित हुई ।इस पत्र से पता चलता है कि स्वामी जी ने अपनी आत्मकथा को प्रकाशित करने के लिए किताब महल को पांडुलिपि भेजी थी लेकिन प्रकाशक ने यह शर्त रखी की इस किताब को थोड़ा रोचक बनाइये और यह काम किसी दूसरे लेखक से करवाया जाए लेकिन स्वामी जी को यह प्रस्ताव पसंद नहीं आया और उन्होंने अपनी पांडुलिपि किताब महल से वापस ले ली थी यानी स्वामी जी प्रकाशकों की शर्त के आगे झुकना नहीं चाहते थे क्योंकि वे बड़े स्वाभिमानी व्यक्ति थे और जिंदगी भर अपने सिद्धांत और उसूलों के लिए लड़ते रहे। उनकी आत्मकथाउनके निधन के बाद सीताराम ट्रस्ट से निकली थी।यह ट्रस्ट भी स्वामीं जी ने बनाया था।इस जीवनी के कई संस्करण बाद में निकले और लोगों ने संपादित किया पर अवधेश प्रधान द्वारा संपादित पुस्तक इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि उसमें 

राहुल सांकृत्यायन रामवृक्ष बेनीपुरी के अलावा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व महासचिव राजेश्वर राव , स्वतंत्रता सेनानी, शीलभद्र याजी ,पुराने किसान नेता किशोरी प्रसन्न सिंह प्रसिद्ध वामपन्थी नेता भूपेंद्र झा आचार्य हरि बल्लभ शास्त्री आचार्य श्रुति देव शास्त्री के संस्मरण भी शामिल हैं। साथ ही जाने माने दिवंगत अंग्रेजी पत्रकार अरविंद नारायण दास और अशोक कुमार का एक मूल्यांकन परक लेख भी है। इसके अलावा दिनकर ,लक्ष्मी त्रिपाठी ,कन्हैयालाल शर्मा आदि की स्वामी जी पर लिखी गई कविताएं भी शामिल की गई हैं । इस तरह पहली बार स्वामी जी के व्यक्तित्व एवं उनके अवदान पर एक संपूर्ण पुस्तक प्रकाशित हुई है।इससे स्वामी जी को नए सिरे से समझा जा सकता है।वैसे ग्रंथ शिल्पी ने 2000 में यह किताब छापी थी।इसमें कुछ नई सामग्री जोड़कर इसे अद्यतन किया गया है।

उत्तरप्रदेश के गाजीपुर जिले के देवा गांव में 1889 को महाशिवरात्रि के दिन नवरंग राय के रूप में जन्मे स्वामी जी राहुल जी औ शिवपूजन जी से मात्र चार साल बड़े थे।वे प्रेमचन्द से 9 साल छोटे थे।

 पुस्तक के संपादक अवधेश प्रधान ने भूमिका में लिखा है --"

आज जब हमारे चारों ओर साम्प्रदायिक उन्माद और पुनरुत्थानवाद के नारे लगाने वाले साधुओं-संयासियों की भारी भीड़ जमा है, तो यह कल्पना करना भी अजीब लगता है कि अभी पचास वर्ष पहले भारत में एक ऐसा भी संन्यासी था जो किसानों को अपना "भगवान" मानता था, जिसने अँग्रेजी राज और सामन्ती हितों के विरुद्ध संघर्ष में किसानों का नेतृत्व किया और मरते समय भी जिसकी आँखों में मजदूर किसान राज्य का सपना बसा था। यह विलक्षण संन्यासी थे स्वाधीनता संग्राम और संगठित किसान आन्दोलन के अग्रणी नायक स्वामी सहजानन्द सरस्वती। एक खाते-पीते किसान परिवार में जन्म लेने वाले होनहार बालक से गृहत्यागी युवा संन्यासी, फिर संन्यासी से एक जुझारू किसान नेता के रूप में उनका विकास धीरे-धीरे अनेक मोड़ों और पड़ावों से गुजरकर हुआ था। 1940 की गर्मियों में हजारीबाग सेण्ट्रल जेल में अपनी आत्मकथा 'मेरा जीवन संघर्ष' में अपनी जीवन-यात्रा का सिंहावलोकन करते हुए उन्होंने लिखा, 'मैं तो धीरे-धीरे आगे बढ़ा हूँ। मेरे अनुभवों ने ही मेरे गुरु, शिक्षक और पुस्तकों का काम दिया है। ... लेकिन इतना कह सकता हूँ कि बराबर आगे बढ़ता रहा हूँ-यह प्रक्रिया बराबर जारी है।' उसी समय उसी हजारीबाग सेण्ट्रल जेल में राहुल जी भी अपनी आत्मकथा लिख रहे थे-मेरी जीवन- यात्रा। जिस प्रकार राहुल जी की 'जीवन-यात्रा' जीवन संघर्ष के अद्वितीय अनुभवों से भरी हुई है उसी प्रकार सहजानन्द का 'जीवन संघर्ष' जीवन-यात्रा की बेहद दिलचस्प मंजिलों से होकर गुजरा है।"

स्वामी जी वह विलक्षण सन्यासी थे जिन्होंने कांग्रेस के साथ पहले मिलकर आजादी की लड़ाई में भाग लिया परजब जमींदारों के खिलाफ लड़ाई में कांग्रेस ने उनक़ा साथ नहीं दिया तो महात्मा गांधी से भी उनक़ा मोहभंग हो गया और कांग्रेस ने1939 में उंनको पार्टी से निकाल दिया। 

स्वामी जी की गांधी से 1920 में पटना में मुलाक़ात हुई और उनसे लंबी बात हुई और वे राजनीति में कूद पड़े लेकिन 1930 में नमक सत्याग्रह के दौरान बांकीपुर और हजारी बाग जेल में कांग्रेसियों से मोहभंग हुआ।1934 तक आते आते उनक़ा मोहभंग गांधी जी से भी हो गया क्योंकि उनक़ा मानना था गांधी जी भी जमींदारों के प्रति सहानुभूति रखते है ।कांग्रेस को जमींदारों की पार्टी होने के भी आरोप लगते रहे हैं।

पुस्तक के अनुसार स्वामी जी को सी पी आई ने अपनी पार्टी में शामिल होने के लिए प्रस्ताव दिया था लेकिन स्वामी जी ने उसमें शामिल होने से मना कर दिया था, हालांकि आजादी के बाद उन्होंने 18वाम संगठनों को मिलकर एक वाम मोर्चा बनाने की कवायद की थी ।लेकिन आज़ादी के बाद 26 जून 1950 को ही उनक़ा निधन हो गया इसलिए उनका सपना पूरा नहीं हो सका।

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