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ओडसी में लास्य के बहुरंगी रंग

ओडिसा की समृद्ध नृत्य शैली ओडिसी के प्रमुख गुरुओं में एक बड़ा नाम श्री हरिकृष्ण बेहरा का है। इस नृत्य...
ओडसी में लास्य के बहुरंगी रंग

ओडिसा की समृद्ध नृत्य शैली ओडिसी के प्रमुख गुरुओं में एक बड़ा नाम श्री हरिकृष्ण बेहरा का है। इस नृत्य के वे पहले गुरू थे जिन्होंने सात दशक के पहले आसपास दिल्ली में आकर न सिर्फ ओडिसी नृत्य का प्रचार प्रसार किया बल्कि घर-घर जाकर युवाओं को इस लास्य प्रधान नृत्य को सीखने के लिए प्रेरित किया। उन्हीं के प्रयास से यह नृत्य इस महानगर में फलफूलां और एक बड़ी तदाद में युवाओं को आकर्षित करके सीखने के लिए सम्मान पैदा किया। उनकी निगरानी में सीखी सोनलमान सिंह, माधवी मुदगल, प्रिया पवार, यामिनी कृष्णमूर्ति कविता द्विवेदी से लेकर अनेक हैं। जिन्होंने देश-विदेश में ओडिसी नृत्य का परचम फैराया।

हाल ही में संचारी फाउंडेशन ने गुरु हरिकृष्ण बेहरा की स्मृति में तृतीय सरोहा फेस्टिवल का आयोजन अलायंस फ्रेन्चाइस के सभागार में किया। गुरू के भावभिनी श्रृद्धांजलि देने के लिए ओडिसी, भरतनाट्यम और कुचिपुड़ी कलाकारों ने नृत्य की प्रस्तुतियां दी। इस समारोह को विस्तार देने में संचारी की निदेशक सुश्री कविता द्विवेदी ने महत्वपूर्ण कार्य किया है।

उद्धाटन रस्म अदायिगी के उपरांत संचारी फाउंडेशन ने नृत्यांगना कविता द्वारा नृत्य में संरचित शिव पनचाक्षर के समूह नृत्य में प्रस्तुति हुई। इसे कविता, अनशुहा चौधरी और सोनाली बरुआ ने शिव के असीम रूप और उनके कृतित्व को नृत्य अभिनय में भक्तिभाव से उजागर किया। ओडिसी के पारम्परिक शुद्ध नृत्य यानि नृत में बटु को फाउंडेशन के युवा छात्रों ने सही चलन और गति में प्रस्तुत करने का अच्छा प्रयास किया।

भरतनाट्यम की मशहूर नृत्यांगना और गुरु रमा वैद्यनाथन की शिष्या स्वर्णनालि कुन्डू ने इस नृत्य शैली में देवी स्तुति और जयदेव के गीत गोविंद की अष्टपदी में उदृत प्रसंग ‘कुरु यदु नंदन’ की प्रस्तुति में स्वाधीनपतिका नायिका को चित्रित किया। इसमें नायिका राधा कृष्ण से उसे सजाने के लिए अग्रह करती है। इसे सरसता से नृत्य और अभिनय भाव में दर्शाने में स्वर्णनालि का सुन्दर प्रयास था। 

इस समय ओडिसी में उभरते प्रतिभावान नर्तक विश्वनाथ मंगराज इस लास्य प्रधान नृत्य में पूरी तरह पारंगत दिख रहे हैं। ओडिसी की मशहूर नृत्यांगना और गुरू शेरोन लावेन की छत्रछाया में सीखकर नृत्य को खूबसूरती से तराश कर उन्होंने रंग भरने का अच्छा प्रयास किया है, नृत्य में उनका अंग संचालन, मुद्राएं और भावभंगमिओं में मोहक और लालित्यपूर्ण आमा दिखती है। उन्होंने अष्टपदी की काव्य रचना-‘रति सुख सारे धीरे समीरे’ युमान तीर में नायिका राधा और कृष्ण के मिलन में श्रृंगार इस भाव का जो स्पर्श है उसका विश्वनाथ मंगराज के अभिनय में चित्रण मर्मस्पर्शी था। 

कुचिपुड़ी नृत्य की नृत्यांगना और गुरु वानश्री राव की शिष्या अयना मुखर्जी द्वारा संर्कीतन देव देवम भजे में राम द्वारा रावण से महायुद्ध करने से पहले देवी दुर्गा की उपासना में संत कवि अन्नमाचार्य द्वारा रचित भक्ति गीत की प्रस्तुति थी। इसमें राम को भगवान विष्णु के अवतार की कथा का विवर्ण आयना ने नृत्य-अभिनय के माध्यम से इस चित्रित करने का सहासिक प्रयास किया। गुरु वानश्री राव ने नृत्य संरचना में देवी को संतुष्ट व खुश करने है, उनमें एक कमल नष्ट हो जाने पर विकल्प के रूप में श्री राम अपनी एक आँख न्योछावर कर देते हैं देवी प्रसन्न हो जाती है और उनकी शक्ति पाकर राम युद्ध में रावण का वध कर देते हैं। इस कथा को लयात्मकगति से परिपूर्ण कुचिपुड़ी नृत्य की थिरकती लय और भावपूर्ण आवेश में नृत्यांगना ने संजीदगी से प्रस्तुत किया। आखिर में राग हिन्डोल और रुपकम तालम में निबद्ध भगवान विष्णु के दशावतारों की प्रस्तुति थी। हर अवतार की दर्शनिक व्याख्या और उसकी प्रसंगिकता पर विवेकपूर्ण नृत्य संरचना गुरू वानश्री राव ने गहरी सूझ से की थी।

आज के नए दौर में नृत्य के क्षेत्र में ढेर सारे नए प्रयोग हो रहे हैं। इस सम्बंध में कविता द्विवेदी का कथन है कि समय के बदलाव के साथ ओडिसी नृत्य शैली भी अपने को बदलती रही और नए रूपों में ढलती रही। पर ओडिसी ने अपना आध्यात्मिक पक्ष बरकरार रखा। यही ओडिसी का लास्य सौंदर्य आज भी बना हुआ है।

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