विधानसभा चुनावों में भाजपा के इस गढ़ को तोड़ चुकी कांग्रेस के लिए लोकसभा चुनाव में भी उसे मात देना आसान तो नहीं लगता। मुख्यमंत्री कमलनाथ के लिए यह कठिन परीक्षा साबित हो सकती है। वे कुछ इलाकों में सेंध जरूर लगा सकते हैं और 2014 के मुकाबले कांग्रेस को अच्छी स्थिति में ला सकते हैं। करीब चार दशक तक किंगमेकर की भूमिका में रहे कमलनाथ दो महीने में मुख्यमंत्री के तौर पर कोई छाप नहीं छोड़ सके हैं। इसके उलट जिन्हें वह किंग बनाते रहे, उनसे ही परेशान हैं। खासकर अपने बड़े भाई और 90 के दशक में कमलनाथ की मदद से मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह से। इंदौर विमानतल पर स्पीकर ऑन करके मोबाइल से दिग्विजय सिंह ने एक दावेदार को टिकट देने के लिए कमलनाथ से बात की, उससे लोगों में अच्छा संदेश नहीं गया और मुख्यमंत्री के तौर पर कमलनाथ की साख पर बट्टा ही लगा। दिग्विजय सिंह अपने पुराने लोगों को टिकट दिलाने में लग गए हैं।
यहां भाजपा में भी घमासान मचा है। आरएसएस ने अपने आंतरिक सर्वे के बाद आधे से अधिक भाजपा सांसदों को दोबारा टिकट नहीं देने का सुझाव दिया है। विधानसभा चुनाव से पहले भी आरएसएस ने ऐसा ही सुझाव दिया था, जिसे भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने नहीं माना था और सत्ता हाथ से चली गई। वैसे राज्य में चुनाव का सुरूर चढ़ने में थोड़ा वक्त है। यहां कई चरणों में मतदान 29 अप्रैल को शुरू होंगे।
भाजपा नए चेहरों की तलाश में लगी है। लेकिन नए चेहरे के नाम पर परिवारवाद हावी हो रहा है। परिवारवाद का विरोध करने वाले और कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को परिवारवाद के नाम पर आड़े हाथों लेने वाले भाजपा नेता इस चुनाव में अपने बेटे- बेटियों को चुनाव लड़वाना चाहते हैं। नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव का कहना है कि किसान का बेटा किसानी करता है, अधिकारी का बेटा सरकारी नौकरी करता है, सेठ का बेटा व्यापार करता है तो नेता के बेटे को क्या भीख मांगना चाहिए? उन्होंने कहा कि नेता के जो लायक बेटा-बेटी होंगे, उन्हें टिकट मिलेगा।
गोपाल भार्गव के पुत्र अभिषेक भार्गव दमोह लोकसभा सीट से दावेदार हैं। राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय का कहना है कि नेताओं के बेटा-बेटी को टिकट देने का फैसला पार्टी को करना है। कैलाश विजयवर्गीय ने अपने बेटे को विधायक बनवा लिया है। पूर्व मंत्री गौरीशंकर बिसेन ने अपनी बेटी मौसम के लिए बालाघाट सीट से टिकट मांगा है। पूर्व स्पीकर सीताशरण शर्मा अपने भाई गिरजाशंकर और भतीजे पीयूष शर्मा के लिए होशंगाबाद से टिकट चाहते हैं। खजुराहो सांसद नागेन्द्र सिंह और देवास सांसद मनोहर ऊंटवाल के विधानसभा चुनाव जीतने के बाद अब उनकी जगह लोकसभा चुनाव में पार्टी नए चेहरे को मौका देगी। बीजेपी की परंपरागत सीट भोपाल और विदिशा से भी पार्टी इस बार नए चेहरों को मौका देने की तैयारी में है। विदिशा सीट से मौजूदा सांसद और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने 2019 का लोकसभा चुनाव नहीं लड़ने का एेलान कर दिया है। ऐसे में पार्टी विदिशा संसदीय सीट से किसी बड़े चेहरे को मैदान में उतारने की तैयारी कर रही है।
विदिशा से पूर्व मुख्यमंत्री और पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष शिवराजसिंह चौहान या उनके परिवार के किसी सदस्य को चुनाव लड़ाया जा सकता है। शिवराज यहाँ से सांसद रह चुके हैं। उज्जैन में जातिगत समीकरणों के चलते सांसद चिंतामणि मालवीय फिर मजबूत दावेदारी कर रहे हैं। इंदौर सीट से आठ बार की सांसद और वर्तमान में लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन ने भी लोकसभा चुनाव न लड़ने के संकेत दिए हैं। ऐसे में सुमित्रा महाजन की जगह पार्टी किसी बड़े नेता को मैदान में उतार सकती है। सुमित्रा महाजन का भाजपा के पुराने नेता सत्यनारायण सतन ने विरोध भी शुरू कर दिया है। कहा जा रहा है कि विरोध के पीछे कैलाश विजयवर्गीय का हाथ है।
धार में सावित्री ठाकुर, खंडवा में नंदकुमार सिंह चौहान, खरगोन में सुभाष पटेल की जगह भी नए प्रत्याशी की तलाश है। रतलाम-झाबुआ में भाजपा के पास कोई मजबूत प्रत्याशी नहीं है। झाबुआ, धार और खरगोन जैसे आदिवासी बहुल सीटों पर कांग्रेस मजबूत दिख रही है, क्योंकि इन क्षेत्रों में सक्रिय जय युवा आदिवासी शक्ति (जयस) कांग्रेस के साथ है। डॉ. हीरालाल जयस के संरक्षक के अलावा कांग्रेस के विधायक भी हैं, लेकिन मंत्री नहीं बनाए जाने से नाराज बताए जाते हैं। झाबुआ के वर्तमान सांसद कांतिलाल भूरिया के लिए भी बड़ी चुनौती है। उनका बेटा विक्रम भूरिया झाबुआ से ही चुनाव हार गया। यहाँ भाजपा मजबूत उम्मीदवार उतारती है तो उसे फायदा हो सकता है। बैतूल से दो बार की सांसद ज्योति धुर्वे जाति प्रमाण पत्र विवाद में उलझी हैं।
मंडला से फग्गन सिंह कुलस्ते की स्थिति भी मजबूत नहीं मानी जा रही है। जबलपुर सांसद और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष राकेश सिंह के खिलाफ अजय विश्नोई ताल ठोंक रहे हैं। भिंड के मौजूदा सांसद डॉ. भागीरथ प्रसाद भी बदले जा सकते हैं। भोपाल, विदिशा, भिंड, इंदौर और दमोह ऐसे संसदीय क्षेत्र हैं, जहां पर भाजपा का तीन दशक से ज्यादा समय से कब्जा है। सागर, जबलपुर, खजुराहो, मुरैना और बैतूल भी डेढ़ दशक से भाजपा के खाते में है। छिंदवाड़ा कांग्रेस की परंपरागत सीट है। 1977 के जनता लहर में भी कांग्रेस को यह सीट मिली थी। 1980 से यहां कमलनाथ लगातार चुनाव जीतते रहे हैं। गुना भी कांग्रेस का गढ़ है, यहां से ज्योतिरादित्य सिंधिया सांसद हैं। छिंदवाड़ा से कमलनाथ के बेटे नकुलनाथ चुनाव लड़ेंगे। सिंधिया के प्रभाव वाले ग्वालियर में भी सिंधिया परिवार से किसी को चुनाव लड़ाया जा सकता है। कांग्रेस अधिक से अधिक सीटें जीतने के लिए अपने बड़े नेताओं को भी मैदान में उतारने की सोच रहा है। वैसे तो दिग्विजय सिंह परंपरागत रूप से राजगढ़ से लड़ते रहे हैं, लेकिन उनका नाम भोपाल से चल रहा है। दिग्विजय सिंह के नाम पर मुस्लिम वोटों का फायदा देखा जा रहा है।
होशंगाबाद सीट के लिए पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश पचौरी, पूर्व सांसद रामेश्वर नीखरा और पूर्व विधायक सविता दीवान का नाम चल रहा है। तीनों हारे हुए हैं। दिग्विजय सिंह विदिशा से राजकुमार पटेल को टिकट दिलाना चाहते हैं। हालांकि पटेल एक बार सुषमा स्वराज के खिलाफ मैदान छोड़ चुके हैं। इंदौर के लिए भी अच्छे चेहरे की तलाश है। फिल्म स्टार सलमान खान का नाम भी चर्चा में है। इस क्षेत्र से उनका पारिवारिक संबंध है। हाल ही में चुनाव हारे अजय सिंह, राहुल भैया को सीधी से और विधानसभा के पूर्व उपाध्यक्ष राजेंद्र सिंह को सतना से कांग्रेस प्रत्याशी बनाया जा सकता है। रिश्ते में मामा-भांजा हैं, लेकिन एक-दूसरे को काटने में लगे हैं।
शहडोल सीट से दावेदार हिमाद्री सिंह के खिलाफ स्थानीय कांग्रेस नेता एकजुट हो गए हैं। हिमाद्री सिंह लोकसभा का उपचुनाव लड़ी थीं, उस समय उन्हें जिताने के लिए सभी ने काम किया था। विधायक फुंदेलाल मार्को ने रायशुमारी के दौरान ही हिमाद्री का विरोध किया। हिमाद्री सिंह के पति भाजपा में हैं। कांग्रेस ने 17 सीटों पर एक-एक नाम का पैनल तैयार कर लिया है, लेकिन बाजी पलटने वाले नाम नहीं हैं।
वैसे तो लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दे ज्यादा हावी होंगे। जीएसटी, नोटबंदी, रोजगार के मुद्दे भी लोगों को प्रभावित करेंगे। एयर स्ट्राइक और राफेल लोगों की भावना से जुड़ेगा, इसकी उम्मीद कम है। किसान और आदिवासियों के हित के फैसले वोट को प्रभावित कर सकते हैं। इसमें कमलनाथ सरकार के दो महीने की उपलब्धि भी जुड़ जाएगी। मध्य प्रदेश में बसपा-सपा और सवर्ण पार्टी के भी प्रत्याशी रहेंगे, लेकिन मुकाबला भाजपा और कांग्रेस में ही रहेगा। मध्य प्रदेश में भले सरकार कांग्रेस की है, लेकिन विधानसभा चुनाव में भाजपा को आधी फीसदी वोट ज्यादा मिले थे। दोनों के विधायकों की संख्या में अंतर भी कम है। भाजपा ने 2014 में राज्य की 29 में से 27 सीटें जीती थी। कमलनाथ के लिए चुनौतियां कठिन हैं। अब देखना है कि वे किस तरह कांग्रेस को जीत दिलाते हैं। चुनाव में फिलहाल कोई लहर दिखाई नहीं दे रही है। विधानसभा चुनाव में आदिवासी सीटों पर कांग्रेस को अच्छी सफलता मिली थी। इन सीटों से उसे लोकसभा चुनाव में भी उम्मीद है।