नरेंद्र मोदी सरकार के लिए किसान आंदोलन सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। आम तौर पर आत्मविश्वास से लबरेज रहने वाले भाजपा के शीर्ष नेता पहली बार बेबस दिख रहे हैं। पहले सरकार किसानों की मांगें मानने के लिए तैयार नहीं थी, लेकिन आंदोलन ने उसे अपना रुख नरम करने के लिए मजबूर किया है। सचिव से लेकर मंत्री और अंत में गृह मंत्री अमित शाह तक, छह दौर की बातचीत में कोई समाधान नहीं निकल सका है। सरकार ने अपनी तरफ से कृषि कानूनों में संशोधन का प्रस्ताव दिया है, लेकिन किसान इन कानूनों को खत्म किए जाने से कुछ भी भी कम पर मानने को तैयार नहीं हैं। सूत्रों का दावा है कि कृषि कानूनों को वापस लेना संभव नहीं है। भाजपा के एक महासचिव ने कहा, “हम जितना देने के इच्छुक थे, उससे अधिक दे चुके हैं। अब किसानों को भी अपना रुख नरम करना चाहिए, ताकि बीच का कोई समाधान निकल सके।” दरअसल, सरकार उस शर्मिंदगी से बचना चाहती है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आने के 15वें महीने ऐसा ही विवादास्पद भूमि अधिग्रहण अध्यादेश वापस लेने की घोषणा की थी।
मोदी ने 30 अगस्त 2015 को ‘मन की बात’ में कहा था, “किसानों को भ्रमित किया गया और उनके भीतर डर पैदा किया गया।” सरकार कृषि कानूनों को लेकर भी वही तर्क दे रही है। प्रधानमंत्री ने कहा था, “मेरे लिए देश की हर आवाज महत्वपूर्ण है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण आवाज किसान की है। हमने एक अध्यादेश जारी किया था, कल 31 अगस्त को उसकी समय सीमा खत्म हो रही है। मैंने निर्णय लिया है कि उस अध्यादेश को खत्म होने दिया जाए।” तब कदम वापस खींचना मोदी सरकार के लिए सबसे बड़ी शर्मिंदगी मानी जा रही थी। अब जब सरकार अधिक मजबूत है, वह उस शर्मिंदगी से बचना चाहती है।
पार्टी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, “कृषि कानूनों की वजह से सरकार पहले ही बहुत कुछ खो चुकी है। इसकी सबसे पुरानी सहयोगी पार्टी शिरोमणि अकाली दल अलग हो गई। उसके नेता प्रकाश सिंह बादल ने पद्म विभूषण सम्मान लौटा दिया है। भाजपा 2022 में पंजाब विधानसभा चुनाव अकेली लड़ना चाहती है, लेकिन उसकी छवि को काफी नुकसान पहुंच रहा है।”
पंजाब में तो भाजपा की उम्मीदें कमजोर हैं ही, हरियाणा में भी उसकी सरकार एक कमजोर धागे पर टिकी है। जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) के नेता दुष्यंत चौटाला पर मनोहरलाल खट्टर सरकार से समर्थन वापस लेने और प्रदर्शनकारी किसानों का समर्थन करने का दबाव है। प्रदेश के एक वरिष्ठ भाजपा नेता के अनुसार, “खट्टर भी पार्टी नेताओं के दबाव का सामना कर रहे हैं। उन्होंने केंद्रीय नेतृत्व को भरोसा दिलाया था कि प्रदेश का एक भी किसान आंदोलन में हिस्सा नहीं लेगा। वे निरंतर एक बोझ बनते जा रहे हैं।”
आंदोलन को खालिस्तानी रंग देने का खट्टर का दांव भी उल्टा पड़ गया। उक्त भाजपा नेता के अनुसार, “खालिस्तान के नाम पर आंदोलन को बदनाम करने के पक्ष में केंद्रीय नेतृत्व भी था। लगा था कि इससे आंदोलन में फूट पड़ जाएगी और पंजाब के किसान अलग-थलग पड़ जाएंगे। लेकिन हुआ इसका उल्टा। किसानों की नाराजगी बढ़ गई और उनका रुख पहले से भी अधिक सख्त हो गया।”
यह बात तो स्पष्ट है कि मोदी सरकार किसान आंदोलन से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं थी। उसने इसे कमतर आंका। पार्टी महासचिव के अनुसार, “शुरू में हमसे उनकी संगठनात्मक क्षमता का आकलन करने में भूल हुई। हमें यह अंदाजा नहीं था कि वे राजधानी तक पहुंच जाएंगे।”
पंजाब यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र विभाग के प्रमुख आशुतोष कुमार के अनुसार, “सरकार को इतनी बड़ी तादाद में किसानों के आंदोलन में शामिल होने का अंदाजा नहीं था, खासकर हरियाणा से।” आउटलुक से बातचीत में वे कहते हैं, “पंजाब सबसे बुरी तरह प्रभावित राज्य है। यहां से अनेक उद्योग हिमाचल प्रदेश के बद्दी चले गए हैं। कोई नया निवेश नहीं हो रहा है। हरित क्रांति अब पूरी हो चुकी है। राज्य मुख्य रूप से कृषि पर ही निर्भर है। इसे समझने में सरकार ने गलती की। उन्हें लगा कि नोटबंदी और जीएसटी की तरह कृषि कानून भी लागू कर देंगे।”
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोशल सिस्टम्स के प्रो. सुरेंद्र सिंह जोढका कहते हैं, “1984 के बाद यह किसानों की सबसे बड़ी लामबंदी है, जब कई हफ्तों तक पंजाब के राजभवन का घेराव किया गया था। तब बिजली की ऊंची दरों के विरोध में करीब 40,000 किसानों ने राज्यपाल के निवास की घेराबंदी की थी।” किसानों की प्रतिबद्धता के सामने सरकार को झुकना पड़ा।
जोढका के अनुसार, सरकार सब्सिडी से मुक्ति पाना चाहती है, लेकिन वह जल्दबाजी में ऐसा नहीं कर सकती। पहले किसानों को आश्वस्त किया जाना चाहिए था कि उनके हित सुरक्षित रहेंगे। सुधार, लोगों को अधिकार देने वाले होने चाहिए और किसानों को इस बात का भरोसा भी होना चाहिए।
मंत्रियों के साथ बातचीत करने दिल्ली स्थित विज्ञान भवन पहुंचे किसान संगठनों के नेता
भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) जैसे संगठन अराजनीतिक हैं और दशकों से किसानों के लिए काम कर रहे हैं। प्रो. जोढका कहते हैं, “मैं बलबीर सिंह राजेवाल (भाकियू प्रमुख) को वर्षों से देखता आ रहा हूं। किसान नेता समझदार हैं। सरकार को अब तक इस बात का एहसास हो गया होगा कि उन्हें न तो बेवकूफ बनाया जा सकता है, न ही उन्हें बांटा जा सकता है।”
किसानों ने अपना मोर्चा तो संयुक्त बना रखा है, लेकिन सरकार के भीतर से अलग-अलग आवाजें उठ रही हैं। जब राज्यसभा में इन कानूनों के विधेयक पेश किए गए थे, तब भी भाजपा के अनेक नेताओं का मानना था कि यह सुधार लागू करने का सही तरीका नहीं है। एक वरिष्ठ भाजपा नेता बताते हैं, “प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को इतने बड़े विरोध का अंदाजा नहीं था। उन्हें लगा था कि थोड़ा-बहुत विरोध होगा और उसके बाद किसान नए कानूनों को स्वीकार कर लेंगे। उन्होंने कभी इस बात की कल्पना नहीं की थी कि आंदोलनकारी किसान राजधानी का घेराव करेंगे और सरकार की बात ठुकरा देंगे।”
कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और वाणिज्य तथा खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री पीयूष गोयल के साथ वाणिज्य राज्यमंत्री सोम प्रकाश भी किसानों के साथ वार्ता में शामिल हैं। वे कहते हैं, “ऐसे आंदोलनों से देश को फायदा नहीं होगा। लोकतंत्र में सिर्फ बातचीत से समस्या का हल ढूंढा जा सकता है।” सोम प्रकाश स्वीकार करते हैं कि किसानों के साथ बातचीत आसान नहीं रही है। उन्हें लगता है कि किसानों को थोड़ा लचीलापन दिखाना चाहिए।
कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद विपक्ष, खासकर कांग्रेस पर दोहरा मानदंड अपनाने का आरोप लगाते हैं। वे यह तो नहीं कहते कि विपक्षी इस आंदोलन को हवा दे रहा है, लेकिन यह आरोप जरूर लगाते हैं कि गैर-भाजपा पार्टियां राजनीतिक लाभ के लिए किसान आंदोलन के समर्थन में कूद पड़ी हैं। वे सवाल करते हैं, “कांग्रेस ने 2019 के चुनाव घोषणापत्र में एपीएमसी कानून खत्म करने की बात कही थी। अब पार्टी यह दोहरा मानदंड क्यों अपना रही है?”
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के महासचिव सीताराम येचुरी, जो 9 दिसंबर को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से मिलने गए विपक्ष के प्रतिनिधिमंडल में शामिल थे, के अनुसार विपक्ष ने संविधान का संरक्षक होने के नाते राष्ट्रपति से अपील की है। वे कहते हैं, “जिस तरह कृषि कानून पारित किए गए, वह अलोकतांत्रिक है। सरकार ने पर्याप्त बहस और मशविरा करने की हमारी मांग अनसुनी कर दी। किसान जो मुद्दे उठा रहे हैं, उन्हें संसद में भी उठाया गया था। अगर तभी उनका समाधान किया गया होता तो आज किसान सड़कों पर नहीं होते।”
किसान तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग कर रहे हैं और अभी तक सरकार ऐसा न करने पर अड़ी है। सरकार इस उम्मीद में है कि धीरे-धीरे किसान थक जाएंगे और तब उनका रुख नरम होगा। तब तक सरकार ने किसानों को नए कृषि कानूनों के फायदे बताने का अभियान चलाने का फैसला किया है।