केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान खेती के तौर-तरीकों को बदलने और किसानों की तरक्की के लिए दिन-रात जुटे हुए हैं। इन दिनों वे ‘विकसित कृषि संकल्प अभियान’ के लिए पूरे भारत का दौरा कर रहे हैं। बिहार से शुरू हुआ यह अभियान गुजरात में संपन्न होगा। खेती-किसानी के परंपरागत तरीकों में वैज्ञानिक बदलाव लाने के लिए वे विज्ञान और किसान को पास लाने की मुहिम में जुटे हुए हैं। देश का यह पहला अभियान है, जहां वैज्ञानिकों और अधिकारियों की 2,170 टीमें पूरे भारत के गांवों में जाकर किसानों से मिल रही हैं। शिवराज सिंह चौहान न सिर्फ खुद भारत भर के किसानों और वैज्ञानिकों से संवाद कर रहे हैं, बल्कि एक तरह से कार्यक्रम की निगरानी भी कर रहे हैं। इसी अभियान के सिलसिले में मध्य प्रदेश के सीहोर जिले के इछावर गांव पहुंचे थे। इसी दौरान उन्होंने इस अभियान और किसानों के कई मुद्दों पर आउटलुक की वरिष्ठ सहायक संपादक आकांक्षा पारे काशिव से बात की। बातचीत के अंश:
बिहार के चंपारण से आपने ‘विकसित कृषि संकल्प अभियान’ की शुरुआत की है। गांधीजी ने भी अपने सत्याग्रह की शुरुआत वहीं से की थी। आजादी के अमृतकाल में क्या यह किसानों की आत्मनिर्भरता के लिए नया सत्याग्रह है?
गांधीजी का सत्याग्रह बहुत बड़ा था। मैं तो अभी बस शुरुआत कर रहा हूं। लेकिन इतना कह सकता हूं कि हम किसानों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं। किसान आत्मनिर्भर होगा, तो देश की तरक्की को कोई नहीं रोक सकता है। मैं किसानों के हित के लिए जो संभव हो सकेगा वह करूंगा। यह भी एक तरह की क्रांति ही है। सोच में परिवर्तन की क्रांति, देश के लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने की क्रांति, उत्पादन करने की क्रांति और ये क्रांति सब मिल कर कर रहे हैं। सब एक दिशा में मिल कर सोच रहे हैं। लैब से रिसर्च करने वाले अब लैंड पर आ गए। किसान और वैज्ञानक अब मिल गए हैं। यह भी एक तरह की क्रांति है कि लैब टू लैंड एक हो गई है।
विकसित कृषि संकल्प अभियान की जरूरत क्यों पड़ी?
मुझे किसानों के लिए कुछ करना था। कृषि मंत्री होने के नाते मुझे लगा कि किसानों के प्रति मेरे कुछ कर्तव्य हैं, जिसे मुझे निभाना चाहिए। यही वजह रही कि मैंने सोचा किसानों के लिए कुछ करना चाहिए, जो वाकई उनके लिए फायदेमंद हो। मैंने सोचा यदि मैं कृषि मंत्री होकर भी किसानों के लिए कुछ नहीं कर पाया, तो फिर मेरे मंत्री होने का क्या फायदा। खेती को उन्नत करना, इसके तरीके सोचना मेरी जिम्मेदारी है। मैं जिम्मेदारी निभा रहा हूं। मंत्री होने के नाते नहीं, किसानों का दोस्त होने के नाते भी।
आपने बड़ी संख्या में वैज्ञानिकों को प्रयोगशालाओं से निकालकर खेतों तक भेज दिया। यह एक क्रांतिकारी कदम है। सरकार इसे स्थायी व्यवस्था बनाना चाहती है, जिससे कृषि अनुसंधान और किसानों के बीच की दूरी हमेशा के लिए मिट जाए?
यह व्यवस्था स्थायी तौर पर रहेगी या नहीं यह कहना अभी जल्दबाजी होगी, लेकिन हां इतना जरूर है कि वैज्ञानिकों के जाने से किसानों की दशा में स्थायी बदलाव जरूर आएगा। यदि किसानों के लिए काम करना है, तो गांवों में, किसानों के पास तक जाना ही होगा। दिल्ली में बंद कमरे में बैठ कर यह नहीं किया जा सकता। वैज्ञानिक लैब में बैठकर काम कर रहे हैं, किसान खेत में। यदि दोनों मिल जाएं, तो सोचिए कितना फायदा होगा।
मैं वैज्ञानिकों से कहता हूं कि आपकी असली प्रयोगशाला तो किसानों के खेत हैं। आप वहां जाए बिना कैसे उनकी समस्या समझेंगे। यह अभियान इन दोनों के बीच की दूरी को घटाएगा। सोचिए कहीं किसी मिट्टी में जिस खाद या दवा की जरूरत नहीं है, तब भी किसान उस दवा को वहां डाले जा रहे हैं। कई बार वैज्ञानिकों को किसानों की परेशानी के बारे में पता नहीं होता। जब दोनों आपस में बात करेंगे, तो समाधान अपने आप निकलेंगे। कौन से बीज किस मिट्टी के लिए उपयुक्त हैं, जलवायु परिवर्तन के हिसाब से भी खेती के बारे में हमें सोचना होगा। पहले इस तरह की पहल नहीं हुई। लेकिन अब हुई है, तो सकारात्मक परिणाम मिलेंगे। इसमें सबसे दिलचस्प यह है कि सभी वैज्ञानिक प्रसन्न हैं।
अभियान का डॉक्यूमेंटेशन भी हो रहा है?
हां, बिलकुल। यह अभियान चलाया ही इसलिए जा रहा है कि किसान और वैज्ञानिक मिल कर जो समाधान निकालें, उसकी एक रिपोर्ट बने, ताकि उस पर आगे काम किया जा सके। वैज्ञानिकों की टीमें किसानों से मिलेंगी और जो भी बात सामने निकल कर आएगी, उसकी रिपोर्ट मंत्रालय में आएगी। इसके बाद उन मुद्दों पर विचार किया जाएगा। उसके हिसाब से सरकार एक एक्शन प्लान तैयार करेगी। फिर बाद में खेती में और क्या रिसर्च होना चाहिए उसकी दिशा तय होगी। विस्तृत कृषि कार्यक्रमों के लिए यह बहुत जरूरी है।
आपने कहा था, “कृषि मंत्री सबसे पहले किसानों का प्रधान सेवक होता है।” इस भूमिका को निभाने के लिए आपका प्राथमिक राष्ट्रीय एजेंडा क्या है?
सिर्फ कहा ही नहीं, मैं इसे करना भी चाहता हूं। हमको बदलते समय के हिसाब से काम करना होगा। प्रधान सेवक कहने का मतलब सिर्फ यह नहीं है कि मैं सिर्फ नीतियां बनाऊं। उनके लिए ठोस काम करना है। शोध करना है।
आपने बिहार की लीची और चूड़ा को अंतरराष्ट्रीय बाजारों तक पहुंचाने की बात की है। क्या यह ‘वन डिस्ट्रिक्ट–वन प्रोडक्ट’ जैसी योजना है, इस मॉडल को आगे बढ़ाया जाएगा?
निश्चित रूप से। जहां-जहां जो फसल होती है, उसे यदि दूसरी जगह भेजा जाए, तो किसानों को ही फायदा होगा। उत्तराखंड अब सेब उत्पादित कर रहा है। वहां मडुआ होता है, यह मिलेट्स में आता है, यह बहुत ही पौष्टिक है। पूर्वोत्तर के फल और सब्जियां अलग हैं। इन फसलों का प्रमोशन होना चाहिए। वहां की हल्दी, कंद, मिर्च खूब प्रसिद्ध हैं।
आपने नकली कीटनाशकों पर सख्त कार्रवाई की बात की है। ऐसे समय में जब भारत सतत कृषि की ओर बढ़ रहा है, क्या राष्ट्रीय जैविक प्रमाणन नीति या कृषि रसायन निगरानी तंत्र की योजना पर विचार हो रहा है?
अभी इतना ही विचार किया है कि अमानक स्तर के न बीज आएं न कीटनाशक। कई शिकायतें आई हैं कि पेस्टीसाइड काम नहीं कर रहा है। कई बार यह भी होता है कि जो दवा किसान अपने यहां डाल रहे हैं, हो सकता है उस दवा की उस मिट्टी को जरूरत ही न हो। अभी जो भी लोग अमानक स्तर के बीच या पेस्टीसाइड बेच रहे हैं, उनके लिए कोई कड़ा कानून नहीं है। जुर्माना देकर छूट जाते हैं, तो इसके लिए कड़ा कानून बनाने की कोशिश जारी है।
मक्का और धान का उत्पादन बढ़ाने के लिए आपने उन्नत बीज और पानी की बचत वाली किस्मों की बात की है। क्या यह नीति देश के अन्य राज्यों में भी लागू की जाएगी। इसका लक्ष्य क्या है- जैव विविधता, उत्पादकता या निर्यात क्षमता?
यह पूरे देश में लागू की जाएगी। अभी धान की दो किस्में, जो 30 प्रतिशत उत्पादन बढ़ाएंगी और फसल भी जल्दी ही तैयार हो जाएगी। इसमें पानी भी कम लगेगा। डायरेक्ट सीडींग यानी सीधे बीज बोने पर भी काम चल रहा है। मैं पंजाब में करके आया हूं। यानी धान रोंपने की जरूरत नहीं है। सीधे बो देने से काम हो जाएगा। मीथेन गैस का उत्सर्जन कम होगा, तो पर्यावरण भी बचेगा।
आपने कहा कि 1.45 अरब भारतीयों को भोजन उपलब्ध कराना लक्ष्य है। ऐसे में, फसल विविधीकरण और बागवानी मिशन को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन से कैसे जोड़ा जा रहा है?
किसान लाभ की खेती करें, तो यह काम आसान हो जाएगा। इसके लिए काम करना होगा। आने वाली पीढ़ी सुरक्षित रहे, उनके लिए खाना हो यह भी तो सोचना है। फसल का विविधिकरण होगा, तो यह काम कम चुनौतीपूर्ण होगा। मैंने आपको बताया कि एक खाद्य सुरक्षा निश्चित करना है। आज हमारे यहां अनाज के भंडार भरे हुए हैं, जबकि कभी देशवासी लाल गेहूं खाने के लिए भी विवश थे। भविष्य के लिए अन्न रखना और सभी को पौष्टिक आहार दिलाना हमारा काम है। साथ ही धरती को बचाना भी महत्वपूर्ण है, ताकि धरती बीमार न हो। आने वाली पीढ़ी के लिए अन्न तभी उत्पादित हो सकेगा, जब धरती की सेहत ठीक रहेगी। जब रोटी ही नहीं होगी, तो कोई भी काम कैसे होगा। भूखे भजन न होई गोपाला।
किसान चौपाल क्या है
बड़ी सभा में एकतरफा संवाद होता है। चौपाल में छोटे से छोटा व्यक्ति भी अपनी बात कह सकता है। जब तक सबकी सुनेंगे नहीं, तब तक समाधान कैसे निकलेगा। किसानों को सुनना हमारी प्राथमिकता है। किसान चौपाल का मकसद यही है। किसान अपनी बात रखने के लिए हमेशा दूर-दूर तक नहीं जा सकते। एक ऐसी व्यवस्था होना चाहिए जहां वे अपनी बात रख सकें। दरअसल अब तक किसान सबसे आखिरी पायदान पर रहता था। नई पीढ़ी तो यह भी नहीं जानती कि किसान अनाज का उत्पादन करता है, तब हमें खाना मिलता है। नई पीढ़ी के ज्यादातर युवा खेती से दूर होते जा रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है, किसान बनकर कुछ हासिल नहीं है। पर अब ऐसा नहीं होगा। उनकी भी सुनवाई होगी और उन पर ध्यान दिया जाएगा।
आपने ‘वन नेशन, वन एग्रीकल्चर, वन टीम’ का नारा दिया है। इससे केंद्र और राज्यों की कृषि योजनाओं के बीच किस प्रकार समन्वय स्थापित होगा?
प्रधानमंत्री जी का विचार, उनकी सोच यह सब इसके पीछे है। वे देश के लिए वरदान की तरह हैं। वे जितना किसानों के लिए सोचते हैं, कोई नहीं सोचता। विकसित भारत बनाने के लिए विकसित खेती जरूरी है। तब ही किसान समृद्ध होंगे। जो जरूरत की चीज है, वो हम पैदा करें। उत्पादन बढ़ाएं। खेती के अच्छे अभ्यास को हर जगह ले जाएं। देश में डायवर्सिफिकेशन हो। इन सब बातों पर विचार करके एक नई दिशा खेती को मिल रही है।
क्या यह माना जाए कि यह 2047 की योजना है, जिसका लक्ष्य प्रधानमंत्री लेकर चल रहे हैं?
प्रधानमंत्री जी का देश के लिए जो संकल्प है, उसे पूरा करना हम सबका कर्तव्य है। इसलिए हम सब इसमें जुटे हुए हैं। हम कृषि मंत्री किसके लिए हैं, किसानों के लिए ही तो हैं। दफ्तर-बंगले में बैठ कर यह काम नहीं किया जा सकता। इसके लिए खेत में उतरना जरूरी है। सब एक-दूसरे से मिलेंगे, तभी काम होगा।