प्राचीन महाकाव्यों में धीरोदात्त नायक मिलते हैं जो विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी धीरज नहीं खोते और युद्ध में भी नैतिकता का ध्यान रखते हैं। क्या समकालीन राजनीति में ऐसे नायक खोजे जा सकते हैं? निराशा अपरिहार्य है, लेकिन हर बुरे दौर में कुछ अपवाद भी होते हैं। ये अपवाद बताते हैं कि राजनीति कुछ अलग तरह की भी हो सकती है। ऐसे कुछेक अपवादों में एक थे शरद यादव। लगभग पांच दशकों तक देश के सार्वजनिक जीवन में सक्रिय रहते हुए असाधारण भूमिका निभाने वाले प्रतिबद्ध समाजवादी, उत्कृष्ट सांसद, मौलिक चिंतक शरद यादव का निधन बेहद दुखद और स्तब्धकारी है। वे पिछले करीब ढाई वर्षों से किडनी संबंधी समस्याओं से जूझ रहे थे और कुछ समय से उससे उबरकर सक्रिय होने की कोशिश कर रहे थे। विभिन्न राजनीतिक दलों के अपने मित्रों और करीबी सहकर्मियों से उनका मिलना-जुलना भी जारी था, लेकिन अचानक तबीयत बिगड़ने के बाद 12 जनवरी को उनका निधन हो गया।
मध्य प्रदेश में होशंगाबाद जिले के आंखमऊ नामक गांव में 1 जुलाई, 1947 को एक कृषक परिवार में जन्मे शरद यादव अपने छात्र जीवन में जबलपुर विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे। छात्रनेता के रूप में समता और सामाजिक न्याय जैसे मूल्यों और सरोकारों से उनका जुड़ाव हुआ और माध्यमिक शिक्षकों तथा पुलिसकर्मियों के आंदोलन में सक्रिय भागीदारी करते हुए वे जेल गए। 1969 से 1974 तक छात्र आंदोलन में सक्रिय रहते हुए ही उनके संसदीय जीवन की ऐतिहासिक शुरुआत हुई। 1974 में जिस वक्त जयप्रकाश नारायण (जेपी) का आंदोलन चरम पर था, उसी दौरान जबलपुर संसदीय क्षेत्र के लिए उपचुनाव हुआ। सर्वोदयी नेता दादा धर्माधिकारी के सुझाव पर जेपी ने शरद यादव को संयुक्त विपक्ष की ओर से जनता उम्मीदवार बनाया। यह उम्मीदवारी अपने आप में ऐसा चरित्र प्रमाण-पत्र थी, जो जेपी के हाथों किसी और को कभी नसीब नहीं हुई।
शरद यादव जेल में थे। उनके पास चुनाव लड़ने के लिए न तो कोई पार्टी थी और न ही जरूरी संसाधन और सहयोगी। ऐसे उम्मीदवार के हिस्से में आम तौर पर हार ही आती है, लेकिन जेपी की नैतिक अपील, विपक्षी दलों खासकर सोशलिस्ट पार्टी के सहयोग, अपनी जुझारू छवि और जनता के विश्वास के सहारे चुनाव जीत कर शरद यादव भारतीय संसद के सदस्य बने।
शरद यादव को उनके आलोचक और देश का मीडिया अपने पूर्वाग्रहों के चलते अकसर जनाधारविहीन नेता बताता रहा है, लेकिन हकीकत है यह है कि वे सात बार लोकसभा और चार बार राज्यसभा के लिए चुने गए। सवाल है कि जो व्यक्ति सात बार लोकसभा का चुनाव जीता हो उसे जनाधारविहीन कैसे कहा जा सकता है? पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, पी.वी. नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी और पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार के साथ शरद यादव देश के ऐसे पांचवें राजनेता रहे जो अलग-अलग समय में देश के तीन राज्यों से लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए। उन्होंने मध्य प्रदेश के जबलपुर, उत्तर प्रदेश के बदायूं और बिहार के मधेपुरा संसदीय क्षेत्र का लोकसभा में प्रतिनिधित्व किया। राज्यसभा में भी उन्होंने देश के दोनों बड़े सूबों उत्तर प्रदेश और बिहार की नुमाइंदगी की। संसद के दोनों ही सदनों में उन्होंने संसदीय शिष्टाचार और मर्यादा का पालन करते हुए देश के वंचित और शोषित तबकों की आवाज को बेबाकी और तार्किकता से बुलंद किया और संसदीय बहसों को समृद्ध करने में अपना सार्थक योगदान दिया। संसद में वे जब बोलने के लिए खड़े होते थे तो पूरा सदन उन्हें गंभीरता से सुनता था। भारतीय संसदीय समूह ने शरद यादव को 2012 में ‘असाधारण सांसद पुरस्कार’ से नवाजा था।
विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय मोर्चा सरकार और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार में कैबिनेट मंत्री के रूप में शरद यादव ने कपड़ा, फूड प्रोसेसिंग, नागरिक उड्डयन, श्रम, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण तथा उपभोक्ता मामलों से संबंधित महत्वपूर्ण मंत्रालयों का दायित्व संभाला और अपनी प्रशासनिक क्षमता और कुशलता की छाप भी छोड़ी। यही नहीं, एनडीए और उसकी सरकार का हिस्सा रहते हुए उन्होंने जॉर्ज फर्नांडीस, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार के साथ मिल कर भाजपा को अयोध्या, अनुच्छेद 370 और कॉमन सिविल कोड जैसे विवादास्पद और विभाजनकारी मुद्दे उठाने से भी रोके रखा।
अपने समूचे राजनीतिक जीवन में शरद यादव ने अपने राजनीतिक पुरखे डॉ. राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण की शिक्षाओं की शानदार विरासत के बूते समाज के पिछड़े वर्गों यानी देश की लगभग आधी आबादी को सामाजिक न्याय दिलाने की दिशा में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कराने जैसा युगांतरकारी फैसला कराने में अहम भूमिका निभाई।
राजनीति में नैतिकता और शुचिता की बातें तो बहुत होती हैं लेकिन उन्हें अपनाने वाले बहुत कम नेता देखे जाते हैं। शरद यादव ने दो बार लोकसभा की सदस्यता से नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दिया और एक बार नैतिकता के आधार पर राज्यसभा की सदस्यता गंवाई। इमरजेंसी के दौरान जब 1976 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकसभा की अवधि पांच साल से बढ़ाकर छह साल कर दी, तो उनके इस नितांत असंवैधानिक कदम के खिलाफ लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा देने वाले सिर्फ दो ही नेता थे- एक मधु लिमये और दूसरे शरद यादव। अन्याय और अनियमितता का विरोध और नैतिकता का आग्रह शरद यादव को अपने राजनीतिक पुरखों से विरासत में मिला। इस बात को शरद यादव ने 1995 में उस वक्त भी प्रमाणित किया जब जैन हवाला मामले में उनका नाम आया। उन्होंने यह कहते हुए लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया कि जब तक वे इस मामले में अपने को बेदाग साबित नहीं कर देंगे तब तक सदन में प्रवेश नहीं करेंगे।
मौजूदा दौर में जब सिद्धांतों की राजनीति का लोप हो चुका है और हर नेता के लिए सत्ता ही सर्वोपरि हो गई है, तब भी शरद यादव ऐसे नेता थे जो अपने सिद्धांतों की खातिर सत्ता को ठुकराने का साहस रखते थे। अपनी सिद्धांतनिष्ठ राजनीति के चलते ही कुछ वर्षों पहले जब उनके वर्षों पुराने साथी तथा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उनका साथ छोड़कर भाजपा के साथ जा मिले थे तो उन्होंने न सिर्फ नीतीश कुमार से नाता तोड़ लिया बल्कि अहम जिम्मेदारी के साथ सत्ता में भागीदारी के भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की पेशकश को भी बेरहमी से ठुकरा दिया। इस घटनाक्रम के चलते शरद यादव ने अपनी राज्यसभा की सदस्यता की भी परवाह नहीं की। सरकार के दबाव में राज्यसभा के सभापति ने तमाम नियमों और कानूनों से परे जाकर उन्हें राज्यसभा से बेदखल कर दिया। इसके बावजूद शरद यादव पूरी संजीदगी से भाजपा के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने में लग गए। इस सिलसिले में उन्होंने ‘साझा विरासत बचाओ’ अभियान भी शुरू किया था।
शरद यादव अपने राजनीतिक जीवन में बेशक लंबे समय तक संसद में रहे लेकिन उन्होंने सड़क से अपना नाता कभी नहीं तोड़ा। जन आंदोलनों में भाग लेने और जेल जाने का जो सिलसिला उनके संसद में पहुंचने से पहले ही शुरू हो गया था, वह कभी भी थमा नहीं। पुलिसकर्मियों की कार्यदशा में सुधार की मांग को लेकर आंदोलन हो या शिक्षकों और मजदूरों की समस्याओं को लेकर संघर्ष या फिर महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई, हर मोर्चे पर शरद यादव आगे रहे और कई बार जेल गए। शरद यादव का यह आंदोलनकारी स्वरूप सिर्फ संसद के बाहर ही नहीं बल्कि संसद में भी मुखर रूप में सामने आता रहा है।
उनकी बेदाग छवि का प्रमाण यह है कि वे 40 साल से ज्यादा समय तक संसद के सदस्य और दो बार केंद्र सरकार में मंत्री रहे, लेकिन अपने लिए उन्होंने कोई मकान या संपत्ति नहीं बनाई। पिछले दो-ढाई साल से अपनी बीमारी के चलते वे सक्रिय राजनीति से दूर हो गए थे लेकिन देश में व्याप्त सांप्रदायिक नफरत का माहौल, सरकार की जनविरोधी नीतियां और संवैधानिक संस्थाओं का कमजोर होना उन्हें बेहद परेशान करता था। अपने से मिलने आने वाले हर विपक्षी नेता के समक्ष वे एक ही इच्छा व्यक्त करते थे कि मौजूदा सरकार को हटाने के लिए विपक्षी दल एकजुट हो जाएं। अपनी इसी अधूरी इच्छा को लेकर वे इस दुनिया से विदा हो गए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और समाजवादी आंदोलन में सक्रिय रहे हैं)