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31 मार्च 2025 · MAR 31 , 2025

विमर्शः वसंत का असमंजस

वसंत की चिंता सिर्फ ट्रम्प के कारण होती तो मुसीबत इतनी बड़ी न होती, वह दृष्टि पंचायतों, परिषदों में फैली हुई है
पर्यावरण की चिंता किसी को नहीं

वसंत पंचमी के दिन लगा था कि इस बार वसंत समय पर आ पहुंचा है। आश्चर्य हुआ था कि जब हर ऋतु आगे पीछे चल रही है, तो वसंत को कैसे निर्धारित दिन याद रहा। फिर ध्यान आया कि वह ऋतुराज है, जिम्मेदारी समझता है, मनुष्य के प्रति हमदर्दी रखता है, अतः अपनी तरफ से नियम की कोताही नहीं करना चाहता। आखिर इतने बड़े-बड़े कवियों ने उसका बखान किया है, इसलिए वह हमें निराश नहीं करना चाहता।

अगले ही दिन ठंड लौट आई और मेरी सुखद कल्पना धराशायी हो गई। बगीचे में कई फूल खिल चुके थे, एकदम बैठ गए। दो-चार तितलियां भी उन पर मंडराई थीं, निराश होकर लौट गईं। मैंने सोचा, एक-दो दिन की बात है-वसंत लौटेगा, अभी तो फरवरी शुरू ही हुई है। पर ठंड लगातार चार दिन बनी रही, फिर अचानक मौसम गरमाया-इतना जैसे सीधे गरमी आ पहुंची हो। भविष्यवक्ताओं ने कहा, हमने कहा नहीं था कि इस वर्ष गरमी गहुत ज्यादा पड़ेगी?

उधर, जलवायु परिवर्तन के विमर्श को सिरे से खारिज करने वाले महाबली ट्रम्प ने तमाम विषयों पर ऊलजलूल बातों की बौछार शुरू कर दी। पेरिस में हुए अंतरराष्ट्रीय समझौते से हाथ खींचने की घोषणा वे कर ही चुके हैं। इस समझौते का उद्देश्य धरती के बढ़ते तापमान पर रोक लगाना है। कैलीफोर्निया की आग हो या फ्लोरिडा की बाढ़, ट्रम्प के लिए किसी भी प्राकृतिक आपदा का कोई अर्थ या महत्व नहीं है। वे वैज्ञानिकों की राय में यकीन नहीं करते। वे पर्यावरण के संकट की चिंता का मजाक उड़ाते हैं। वे अमेरिका एक बार फिर ग्रेट बनाने की बात करते हैं और सोचते हैं कि ऐसा करने के लिए ऊर्जा के संसाधनों का ताबड़तोड़ दोहन होना चाहिए। पर्यावरण का संतुलन बिगड़ता है तो बिगड़े, धरती का तापमान बढ़ता है तो बढ़े, ध्रुवों की बर्फ पिघलती है तो पिघले, अपनी बला से। ऐसा नजरिया जब किसी नेता का हो, तो प्रकृति पर तरस आता है, पर कौन नहीं जानता कि प्रकृति बदला लेना जानती है और लेती है। जब करुणा चुक जाती है तो विभिषिका की शुरुआत लाजिमी है। कई लक्षण दिखा रहे हैं कि शुरुआत हो चुकी है। वसंत का असमंजस एक बड़ा लक्षण है।

वसंत की चिंता सिर्फ ट्रम्प के कारण होती तो मुसीबत इतनी बड़ी न होती। ट्रम्प की दृष्टि नगरपालिकाओं, पंचायतों, परिषदों में फैली हुई है। किसी को फिक्र नहीं है कि गरमी में पानी कहां से आएगा, बारिश में कहां से निकलेगा। आपदा भी एक आदत बन गई है। पत्रकारों का प्रशिक्षण कुछ ऐसा रूप ले चुका है कि कहर के बाद ही खबर देते हैं। वरना कुम्भ या नई दिल्ली स्टेशन की भगदड़ पहले से पकड़ में आ जाती। पर ऐसी आशा भी नादानी का संकेत ही कही जाएगी। राजकुमार केसवानी ने भोपाल की विकराल गैस त्रासदी की चेतावनी एक से अधिक बार दी थी, पर त्रासदी होकर रही। उसकी चालीसवीं बरसी पर केसवानी की स्मृति भी अखबारों से नदारद है।

इतनी बड़ी कोताहियों के सामने वसंत का असमंजस क्या मायने रखता है? अवश्य वह अलग-अलग रूप में एक सा रूप नहीं ले रहा होगा। मैं ऐसे कई नगरों और गांवों को जानता हूं, जहां वसंत की अभिव्यक्ति के लिए जगह नहीं बची है। वह कब आया कब गया, गौर करने की फुर्सत किसी को नहीं। आखिर कौन करे फिक्र? बच्चों के लिए यह मौसम इम्तहान और उसके बाद की चिंता का है, जिसमें माता-पिता भी शामिल हैं, यद्यपि उनमें से कई इसी मौसम में आयकर के अग्रिम भुगतान की चिंता भी कर रहे होते हैं। वृक्ष पत्ते गिराकर हल्के हो लेते हैं, वैसे ही बचत खाते टैक्स का भुगतान करके खाली हो जाते हैं। कई पेड़ तो पत्ते गिराकर ही फूलों को स्थान दे पाते हैं। तभी निराला ने लिखा था, ‘रूखी री यह डाल वसन वासंती लेगी।’

पक्की बात है, वसंत कवियों के पास सुरक्षित रहेगा। पद्माकर ने लिखा था, ‘बनन में, बागन में बगरों वसंत है।’ दो सदियां बीत चुकी हैं, पर पद्माकर के बाद किसी ने वसंत के बगरने की बात नहीं लिखी। निराला ने चेतावनी के स्वर में लिख डाला, ‘सुमन  न लिए, सखि वसंत गया।’ कुछ ऐसी ही दशा मानवता को झेलनी पड़ेगी।

कृष्ण कुमार

(प्रतिष्ठित शिक्षाविद और साहित्यकार)

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