लाला राम इतने धार्मिक नहीं थे कि खुद ही उठकर 2 जुलाई को बाबा भोलेनाथ के सत्संग में चले जाते। उनकी पत्नी कमलेश ने बाबा की उपचारी ताकत के बारे में किसी से सुना था, तो वे वहां जाना चाहती थीं। उनके एक छोटी बच्ची भी थी। वह बीमार चल रही थी, तो उसे भी साथ ले जाना पड़ा। सत्संग स्थल पर औरतों के लिए अलग से बनाए गए पंडाल में दोनों को छोड़ते वक्त लाला ने आखिरी बार उन्हें जिंदा देखा था।
‘‘मेरी जिंदगी की वह सबसे बड़ी गलती थी,’’ हादसे के अगले दिन रोते हुए 28 बरस के लाला राम ने बताया। कमलेश केवल 22 बरस की थी। उनकी शादी को पांच साल ही हुए थे। सत्संग में मची भगदड़ में मां और बच्ची दोनों की जान चली गई। मारे गए श्रद्धालुओं की संख्या 121 बताई गई, जिसमें 114 औरतें और सात बच्चे हैं।
हादसे में मारे गए परिजन का अंतिम संस्कार
हाथरस के बगला जिला अस्पताल में बीवी और बच्ची की लाश लेने आए लाला राम को अफसोस रह गया कि वे उन्हें बचा नहीं पाए, ‘‘मैं वहीं पर था, फिर भी उन्हें नहीं बचा सका।’’ उस रात उन्होंने बच्ची की लाश को दफनाया और पत्नी का दाह संस्कार किया। परिवार के नाम पर बचा उनका इकलौता बेटा कभी मां की जलती हुई चिता तो कभी बाप की धधकती हुई आंखों को देख रहा था।
जीटी रोड से लगे फुलरई मुगलगढ़ी गांव में एक दिन पहले उजड़ चुके सत्संग स्थल के तम्बू के नीचे कीचड़ से भरे गड्ढे में उलटे मुंह एक खिलौना तैर रहा था। यहां-वहां बिखरे लोगों के माल असबाब- टूटे हुए चश्मे, अधखाये टिफिन के डब्बे, दुपट्टे, चप्पलें, यहां तक कि शादी के न्योते के कार्ड की गड्डी और भोले बाबा को श्रद्धालुओं का चढ़ावा- हादसे का पता दे रहे थे।
पिछले कई महीनों से हाथरस में लाउडस्पीकर से एक सत्संग की मुनादी करवाई जा रही थी। चौक-चौराहे बैनरों से पटे हुए थे। बाबा के सेवादार घर-घर जाकर न्योता दे रहे थे। दिहाड़ी मजदूरी करने वाली सोखना गांव की रेनु ने बताया, ‘‘हर कोई उसी की बात कर रहा था।’’ रेनु खुद बाबा की भक्त नहीं हैं फिर भी वे अपनी सहेलियों के साथ सत्संग में चली गईं। वे जवान बेटी साधना को भी साथ गई थी। ये लोग जब पहुंचे तो बैठने की जगह भर चुकी थी। पूरा पंडाल औरतों से भरा पड़ा था। वे बताती हैं, ‘‘वहां घुसते ही हम लोग कीचड़ में फिसल गए थे।’’
हादसे के निशानः हॉल के बाहर बिखरे सामान
पूरा प्रवचन शांतिमय माहौल में हुआ। बाबा के वहां से निकलने के बाद क्या हुआ और भगदड़ कैसे मची, इस पर लोगों में एक राय नहीं है। रेनु की मानें तो भगदड़ तब मची जब कुछ लोग बाबा के काफिले के पीछे भागने लगे, ‘‘भीड़ जीटी रोड पर निकल आई जिसके चलते कुछ औरतें जो पहले से सड़क पर थीं वे फिसल कर सड़क के किनारे गिर पड़ीं।’’ सोखना की ही रहने वाली रेनु की सहेली चमेली के मुताबिक बाबा के पीछे भक्तों की भगमभाग आम बात थी। वे पहले भी बाबा के सत्संग में आ चुकी थीं। उन्होंने बताया, ‘‘लोग बाबा के पैर छूने या शोभायात्रा के फूल चुनने की कोशिश करते हैं।’’
कुछ और लोग खराब यातायात प्रबंधन को दोष देते हुए कहते हैं कि बाबा के जाने के घंटे भर बाद भगदड़ मची। हादसे में मारी गईं 45 साल की सावित्री देवी के देवर संजय कुमार जाटव ने बताया, ‘‘सत्संग खत्म होने के बाद बाबा जब निकल गए तब एक साथ ढेर सारे लोग वहां से निकलने लगे जिससे सड़क पर जाम लग गया।’’ विश्व हिंदू परिषद के एक स्थानीय नेता मुकेश गुप्ता ने बताया, ‘‘बाबा तो एक बजे ही निकल लिए थे, भगदड़ दो बजे के करीब मची।’’ हालांकि संजय और मुकेश दोनों ही मौके पर उस वक्त मौजूद नहीं थे।
उत्तर प्रदेश पुलिस ने 3 जुलाई को यह कहते हुए एक मुकदमा दर्ज किया कि सत्संग के आयोजकों ने प्रशासन से मंजूरी लेते वक्त श्रद्धालुओं की अपेक्षित संख्या सही नहीं बताई थी। अनुमति 80,000 की मांगी गई थी लेकिन पहुंचे ढाई लाख लोग। पुलिस का यह भी कहना है कि आयोजकों ने यातायात प्रबंधन में सहयोग नहीं किया और भगदड़ के बाद उसके साक्ष्य छुपा लिए। सिकंदरा राव के एसडीएम की डीएम को भेजी आरंभिक रिपोर्ट कहती है कि बाबा के भक्त जब उनके दर्शन के लिए उनके काफिले के नजदीक पहुंचे तो बाबा के सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें धकेल दिया, जिसके बाद एक फिसलदार ढलान के चलते हालात बेकाबू हो गए और भगदड़ मच गई।
बाबा भोलेनाथ पुलिस की एफआइआर में नामजद नहीं हैं। उन्होंने हादसे के लिए असामाजिक तत्वों को जिम्मेदार ठहरा दिया है। उनके वकील एपी सिंह का कहना है कि ‘‘जो कुछ हुआ उससे उन्हें बहुत पीड़ा है’’ लेकिन वे उसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं। सिंह ने बताया, ‘‘यह हादसा उन लोगों के कारण हुआ जो बाबा को बदनाम करना चाहते थे। यह उन्हें बदनाम करने की साजिश है।’’
हादसे के अगले हफ्ते में पुलिस ने छह सेवादारों को गिरफ्तार किया तो आयोजन के लिए कथित रूप से जिम्मेदार थे। पुलिस का कहना है कि जरूरत पड़ने पर जांच के दौरान बाबा से भी पूछताछ की जाएगी। एक समाचार एजेंसी से बात करते हुए 6 जुलाई को बाबा ने अपने भक्तों से अनुरोध कि वे ‘‘सरकार और प्रशासन में भरोसा रखें।’’ उन्होंने उन्हें आश्वासन दिया कि जिन्होंने भी ‘‘भगदड़ मचाई है उन्हें बख्शा नहीं जाएगा।’’
मौके पर मौजूद रेनु को अच्छे से याद है कि क्या हुआ था, ‘‘ऐसा लगा कि भीड़ में कोई लहर दौड़ गई है। लोग एक दूसरे के ऊपर गिरने लगे। किसी को समझ में ही नहीं आया कि क्या हो रहा है।’’ रेनु भी अपने लोगों से बिछड़ गई और फिसल कर गिर गई थी। यह बताते-बताते उसकी आवाज भारी हो गई, ‘‘फिर देखते-देखते मेरे ऊपर जाने कितने लोग गिर गए और सांस लेना मुश्किल हो गया। मुझे तो लगा मैं अब नहीं बचूंगी।’’ रेनु ने हिम्मत नहीं हारी। उसने एक झुकी हुई टहनी को पकड़ा और खुद को खींच निकाला, ‘‘एक बार मैं उठ गई तो कुछ नहीं देखा सुना। मुझे किसी तरह बाहर निकलना था, तो हो सकता है लाशों पर पैर पड़ गया हो। भगवान माफ करे।’’
रेनु की एक बुजुर्ग पड़ोसी सोहन देवी खुद को नहीं बचा पाईं। यही हाल 70 साल की जयवन्ती का हुआ जो विनोद की मां थीं। पेशे से मिस्त्री विनोद की 49 वर्षीय पत्नीय राजकुमारी और नौ बरस की बेटी भूमि भी भगदड़ में मर गई। विनोद को जब इसका पता चला उस वक्त वह बरेली में था। मिस्त्री के अलावा वह आसपास के शहरों में बैग बेचता है। रिश्तेदारों ने उसे परिजनों की मौत की खबर दी। उसी रात वह लौटा और अपने तीन बेटों के साथ लाशें ढू़ंढने में लग गया।
विनोद याद करते हुए बताते हैं, ‘‘मां की लाश आगरा में थी, बीवी की अलीगढ़ में और बेटी हाथरस के अस्पताल में मिली।’’ सत्संग में जाने की जिद विनोद की मां ने की थी, जो बीस साल से बाबा की भक्त थीं। विनोद बताते हैं कि उन्होंने हमेशा से अपनी मां को इसके लिए मना किया था, ‘‘मैं उन्हें जाने को मना करता था लेकिन वे सुनती ही नहीं थीं। अबकी पत्नी और बच्ची को भी वे ले गईं। एक झटके में मेरा पूरा परिवार साफ हो गया।’’
फुलराई के रहने वाली रानी देवी मानती हैं कि बाबा के पास उपचारी ताकत है। उनका दावा है कि दस साल पहले हाथरस में ही हुए एक सत्संग में जाने के बाद उन्हें किडनी के पत्थर से निजात मिल गई थी। उन्होंने कभी डॉक्टर को यह बीमारी नहीं दिखाई। ‘‘बाबा ने मुझे ठीक किया’’, वे कहती हैं। ऐसे विश्वासों का बाबा के रहस्यमय और विवादास्पद अतीत से कुछ लेना-देना हो सकता है।
शोकाकुल परिजन
कासगंज के बहादुरपुर गांव के मूल निवासी सूरजपाल सिंह जाटव उर्फ बाबा भोले नाथ एक दलित किसान के घर पैदा हुए। जवानी में उन्होंने पुलिस की नौकरी की, जब वे आगरा में यूपी पुलिस के खुफिया प्रकोष्ठ में तैनात थे। अठारह साल इस पद पर रहने के बाद एसपी देहात के दफ्तर में हेड कांस्टेबल बने। यहां वे सन् 2000 तक रहे, यह बात अलीगढ़ रेंज के आइजी शलभ माथुर ने बताई। इसके बाद उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर एक आध्यात्मिक उपचारक का सफर शुरू किया। उनका दावा था कि वे बीमार को दुरुस्त कर सकते हैं और मरे हुए को जिंदा भी कर सकते हैं। इस चक्कर में उन्हें गिरफ्तार भी होना पड़ा, जब सोलह साल की एक मर चुकी लड़की को वे जबरन उठाकर अपने घर जिंदा करने ले गए। केस बंद हुआ, बाबा रिहा हुए लेकिन तब तक उपचारक के तौर पर उनका प्रभाव जम चुका था। लोग उन्हें दैवीय शक्ति से युक्त मानने लगे थे। उनके अपने गांव बहादुरपुर से फैली यह ख्याति बहुत जल्द आगरा, हाथरस, एटा, अलीगढ़, कानपुर, फर्रूखाबाद और मैनपुरी जैसे जिलों तक पहुंच गई।
बाबा के साथ आने वाले लोग अब सेवादार कहलाने लगे। वे गुलाबी रंग के कपड़े पहनते थे। इनमें आदमी और औरत दोनों थे। ये बाबा के संदेशवाहक बने जो दलित और पिछड़ी आबादी वाले ग्रामीण इलाकों में घूम-घूम कर खासकर औरतों से बात करते थे। बाबा के श्रद्धालुओं में औरतों की संख्या सबसे बड़ी है। उनकी एक अपनी निजी सुरक्षा टुकड़ी भी है जो चौबीसों घंटे मुस्तैद रहती है। सत्संगों में भीड़ का प्रबंधन यही सुरक्षाकर्मी और सेवादार मिल के करते हैं। सफेद सूट और काला चश्माधारी ‘मॉडर्न’ बाबा डिजिटल दुनिया से दूर रहते हैं। उनकी न कोई वेबसाइट है, न वे सोशल मीडिया पर हैं और न ही अपने प्रवचनों का प्रसारण कहीं करते हैं।
भगदड़ में मारी गईं छोटा नबीपुर की आशा देवी की बेटी मोहिनी बताती हैं, ‘‘अनुयायियों को कहा जाता है कि वे सीधे सत्संग में आवें और बाबा के साथ जुड़ें।’’ मोहिनी की मां बाबा की ताकत में भरोसा रखती थीं। वे बाकायदे घर पर बाबा की एक फोटो रखती थीं और बाकी देवी-देवताओं के साथ उसकी भी पूजा करती थीं। ऐसे अनुयायियों का दावा है कि बाबा किसी भी किस्म का चढ़ावा नहीं लेते हैं।
इसके बावजूद बाबा के मैनपुरी, कासगंज, कानपुर, एटा और राजस्थान के दौसा में भव्य आश्रम हैं। बहादुरपुर में उनके पैतृक निवास को उनके पड़ोसी और ग्रामीण अब एक तीर्थ की तरह पूजने लगे हैं। सूरजपाल सिंह जाटव को शुरुआती दिनों से ही कवर कर रहे एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक के एटा निवासी एक वरिष्ठ पत्रकार बताते हैं कि बाबा के मैनपुरी आश्रम राम कुटीर धर्मार्थ ट्रस्ट के भीतर कोई सीसीटीवी कैमरा नहीं लगा है और वहां घुसना प्रतिबंधित है। उन्होंने बताया, ‘‘वे अपने प्रवचनों के दौरान बगल में अपनी पत्नी प्रेमवती को हमेशा बैठाते हैं। इस दौरान वे अपने दैवीय और अमर होने का दावा करते हैं और दूसरों को अपने रास्ते पर चलने को कहते हैं।’’
मैनपुरी के इसी आश्रम में सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हादसे के बाद गए थे। वे फुलराई जाकर हादसे के पीडि़तों से मिले भी थे। राज्य सरकार ने इस हादसे की न्यायिक जांच के आदेश दिए हैं और इलाहाबाद के एक अवकाश प्राप्त जज ब्रजेश कुमार श्रीवास्तनव की अध्यक्षता में मामले की पड़ताल के लिए तीन सदस्यीय टीम बना दी है।
उधर हाथरस में लोगों का एक तबका इंसाफ की मांग कर रहा है तो दूसरा तबका अब भी बाबा का भक्त बना हुआ है। इसमें वे लोग भी हैं जिनके परिजन मारे गए हैं। बिशाना की 60 वर्षीय मुन्नी देवी बीस साल से बाबा की भक्त हैं और वे आज भी मानती हैं कि बाबा के पास चमत्कारिक शक्तियां हैं। उनकी 22 साल की बेटी शिखा कुमारी भगदड़ के दौरान अचेत हो गई थी। उसे हाथरस अस्पताल ले जाया गया। वहां उसकी जान बच गई। बस पेट में कुछ चोटें आई थीं। मुन्नी देवी मानती हैं कि उसे बाबा ने बचाया है क्योंकि उसने अच्छे कर्म किए हैं जबकि बुरे कर्म करने वालों की मौत हुई है। बाबा के बचाव में वे कहती हैं, ‘‘हादसा तो कहीं भी हो सकता है। केदारनाथ या वैष्णो देवी में कितने लोग हादसे में मर जाते हैं। तब लोग शिवजी या दुर्गा माता को दोष देते हैं क्या?”
बाबा के चमत्कारों में ऐसे विश्वास को समझने के लिए उनके भक्तों का करीबी अध्ययन कुछ जटिल कारणों को उजागर करता है। हाथरस और अन्य जिलों में बाबा भोले नाथ के ज्यादातर अनुयायी अनुसूचित जाति और कमजोर आर्थिक वर्ग से आने वाली औरतें हैं। सोखना की रेनु जमादार हैं। मुन्नी देवी खेतिहर मजदूर हैं। मोहिनी की मां आशा देवी विधवा थीं जिन्होंने मजदूरी कर के अपने बच्चों को पाला-पोसा। जयवन्ती भी दिहाड़ी मजदूर थीं। उनके बेटे बताते हैं कि उनका दावा था कि बाबा के चमत्कारिक पानी को पीकर ही उनका आर्थरायटिस ठीक हुआ और काम करते रहने की ताकत आई। विनोद कहते हैं, ‘‘बाबा के शब्दों को सुनकर उन्हें शांति मिलती थी।’’
मनोवैज्ञानिक अध्ययन बताते हें कि सत्संग जैसे आयोजनों से औरतों पर सकारात्मक असर हो सकता है। ऐसा खासकर ग्रामीण इलाकों में देखा जाता है। दिल्ली के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान में मनोविज्ञान पढ़ाने वाली कमलेश सिंह बताती हैं कि सत्संग कई किस्म के होते हैं और औरतों में कुछ सामूहिक प्रवृत्तियां देखी जाती हैं। इन्हें वे सोशल मॉडलिंग और प्लेसिबो इफेक्ट का नाम देती हैं, ‘‘सोशल मॉडलिंग का मतलब यह होता है कि औरतें अपने समाज के बड़े समूह की नकल के चक्कर में धार्मिक या सामाजिक आयोजनों और कर्मकांडों में हिस्सा लेती हैं। इसीलिए हम पाते हैं कि ऐसे आयोजनों में परस्पर जुड़े बड़े समूहों में औरतें पहुंचती हैं।’’ वे बताती हैं कि ‘‘सत्संग के बाद कई प्रतिभागी संतोष, राहत और कल्याण के अहसास की बात करते हैं, यही प्लेसिबो इफेक्ट है।’’
ऐसे प्रभावों के चलते वे इसका श्रेय सत्संग या उससे जुड़े अमुक व्यक्ति को दे देती हैं और एक धारणा कायम कर लेती हैं कि वहां जाने से उनकी समस्याएं दूर हो जाएंगी। इसीलिए बाबा भोले नाथ के भक्त अगर यह दावा करते हैं कि उनके आशीर्वाद से किसी का शराब पीना छूट गया या किसी सास-बहू के बीच होने वाले झगड़े बंद हो गए, तो वे वास्तव में ऐसा मानते भी हैं। सत्संगों में औरतों के कल्याण के लिए एक रणनीति के तौर पर होने वाले भजन-कीर्तन पर अध्ययन कर चुकी सिंह बताती हैं कि ऐसे आयोजन तकरीबन त्योहार के जैसे होते हैं जो समुदायों के बीच सामाजिक समरसता को बढ़ाने का काम करते हैं। उनके मुताबिक ये आयोजन औरतों को ‘अपने रोजमर्रा के खटराग से मुक्त होने और ईश्वर के पावन विचार के साथ जुड़ने’’ की मोहलत देते हैं।
सत्संग वैसे तो शहरी और अभिजात्य तबकों में भी लोकप्रिय हैं लेकिन सिंह के अनुसार औरतों पर इसका खास तौर से केंद्रित होना ग्रामीण परिघटना है। हाथरस में जिस बड़े पैमाने पर भगदड़ हुई है जो पिछले कुछ वर्षों में ऐसे हादसों में सबसे बड़ी मानी जा रही है, उसने बाबा की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
दिवंगत कमलेश के पति लाला राम पूछते हैं कि बाबा अगर इतने ही ताकतवर थे तो वे मुर्दों को जिंदा क्यों नहीं कर पाए। लाला कहते हैं, ‘‘वे तो अपनी ताकत से भगदड़ को रोक सकते थे, कीचड़ में घुट रहे लोगों को ऑक्सीजन दे सकते थे। कम से कम बच्चों को ही बचा लेते।’’
दिवंगत आशा देवी के बेटे सुभाष का मानना है कि बाबा की जांच होनी चाहिए। उन्हें आश्चर्य है कि अब तक बाबा को हिरासत में लेकर पूछताछ क्यों नहीं की गई, ‘‘यह सरकार तो अपराधियों के खिलाफ बहुत सख्त मानी जाती है, सीधे बुलडोजर से इंसाफ करती है। जाहिर है आयोजकों की लापरवाही के कारण इतनी बड़ी त्रासदी हुई है, तब भी बाबा से पूछा नहीं जा रहा। भोले बाबा को क्यों बचाया जा रहा है?”
इसका जवाब पश्चिमी उत्तर प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य में मिल सकता है, जहां दलित और ओबीसी की आबादी काफी ज्यादा है। स्थानीय पत्रकार परवेश दीक्षित बताते हैं कि इलाके के 26 जिलों में दलितों-पिछड़ों के ऊपर बाबा का प्रभाव था, ‘‘जाटवों में उनका बड़ा जनाधार है।’’ इसीलिए स्थानीय लोग उन्हें ‘दलितों के बाबा’ कहते हैं।
नया नंगला के दलित हालांकि ऐसे किसी नाम से इंकार करते हैं। यहां के भी दो लोग हादसे में मारे गए हैं। स्थानीय दलित कहते हैं कि उनके तो केवल एक ही बाबा हैं डॉ. बीआर आंबेडकर। मुन्नी देवी के बेटे सोनू कहते हैं, ‘‘हां, बिरादरी के कई लोग उन्हें इसलिए समर्थन देते हैं क्योंकि वे भी हमारी ही बिरादरी से हैं और हमारे बीच से बहुत लोग बाबा नहीं बनते। इसका मतलब ये थोड़ी है कि हम अंधविश्वासी बन जाएं। इतने सारे लोगों की मौत को जाति-धर्म के मामले तक सीमित नहीं करना चाहिए। प्रशासन और बाबा दोनों का दोष है और उन पर कार्रवाई होनी ही चाहिए।’’