अपराध के राजनीतिक रिश्तों की बात हो तो झारखंड से दिलचस्प जगह नहीं। सभी पार्टियों का यहां से सीधा वास्ता रहा। दबंगई और राजनीति का ऐसा मेल शायद ही कहीं और देखने को मिले। कोयले की राजधानी नाम से मशहूर धनबाद में कोयले की काली कमाई और वर्चस्व को लेकर पांच दशक से जारी लड़ाई में काला सोना की जमीन लाल होती रही। नीचे कोयला, तो सतह पर गैंगवार की आग धधक रही है, जिसमें अब तक कई बड़े नेता और दबंग सहित 350 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। अवैध खनन और ढुलाई आदि में रंगदारी को लेकर सालाना पांच-छह सौ करोड़ रुपये से अधिक का खेल होता है। घुसपैठ के लिए दूसरे माफिया उत्तर प्रदेश के ब्रजेश सिंह, मुख्तार अंसारी और श्रीप्रकाश शुक्ल जैसे दबंगों की भी मदद लेते रहे। यहां होने वाली हत्याओं में उनके नाम आते रहे।
कोयलांचल के डॉन की चर्चा हो तो सूर्यदेव सिंह का नाम सबसे पहले आता है। कोयले की काली कमाई में लंबे समय तक इनकी बादशाहत रही। कोयला क्षेत्र का असली शासन तो इनके धनबाद के सरायढेला-गोविंदपुर रोड स्थित ‘सिंह मैंशन’ से ही चलता था। एक बार को छोड़ 1977 से झरिया विधानसभा सीट पर इन्हीं के परिवार का कब्जा है। वे खुद चार बार जीते। बलिया का होने के कारण पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से सूर्यदेव सिंह की मित्रता थी। चंद्रशेखर ‘सिंह मैंशन’ भी आते थे, 1990 में प्रधानमंत्री बनने के बाद भी आए थे। एक बार तो जेल में सूर्यदेव सिंह से मिलने गए। सवाल उठा तो साफ कहा- किसी से मेरी दोस्ती रही है तो पद पर पहुंच जाने के बाद उसे कैसे नकार सकता हूं।
कहा जाता है कि बलिया से लोटा और लाठी लेकर धनबाद आने वाले सूर्यदेव सिंह कोल माफिया बिंदेश्वरी प्रसाद सिन्हा (बीपी सिन्हा) के लठैत बन गए। कोयलांचल में एकछत्र राज चलाने वाले सिन्हा की 1978 में हत्या के बाद सूर्यदेव सिंह को बादशाहत हासिल हुई। आरोप सूर्यदेव सिंह पर भी लगा मगर अदालत से बरी हो गए। कहा जाता है कि कांग्रेस के मजदूर संघ इंटक में सिन्हा की तूती बोलती थी। एसके राय, राजदेव राय, सत्यदेव सिंह, नौरंगदेव सिंह, सूर्यदेव सिंह के साथ गैंग्स ऑफ वासेपुर के शफी खान भी उनके दरबार में हाजिरी लगाते थे।
श्रमिक नेता पंडित बिंदेश्वरी दुबे अविभाजित बिहार के मुख्यमंत्री बने तो माफिया और तमाम दबंग डॉ. जगन्नाथ मिश्र के पाले में चले गए। बाद में भागवत झा आजाद बिहार के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने माफिया और दबंगों के खिलाफ कड़े तेवर दिखाए। धनबाद में तब मदन मोहन झा उपायुक्त थे। उन्होंने माफिया और दबंगों का आर्थिक स्रोत खत्म करने का जोरदार अभियान चलाया। सूर्यदेव सिंह सहित कई माफिया के कब्जे की सरकारी संपत्ति जब्त की गई। कहते हैं, आजाद के जाते ही माफिया ने मिठाइयां बांट कर मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिंह का स्वागत किया। सूर्यदेव सिंह को पार्टी में भारी विरोध के बाद भी जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर ने टिकट दिला दिया था और वह झरिया से विधायक बन गए थे।
वर्तमान समय में कोयलांचल में हर दल में दबंगों का बोलबाला है। भाजपा और कांग्रेस में तो दबंग ही प्रभावशाली बन गए। कतरास कोयलांचल में सत्यदेव सिंह का प्रभाव खत्म होने के बाद सकलदेव सिंह और बिनोद सिंह का साम्राज्य स्थापित हुआ, मगर ये विरोधियों के हाथों मारे गए। फिलहाल, कतरास-बाघमारा क्षेत्र में भाजपा के दबंग विधायक ढुल्लू महतो का सिक्का चलता है। रघुवर दास के मुख्यमंत्री रहते ढुल्लू की दबंगई से सब त्रस्त थे। प्रशासन उनके खिलाफ किसी शिकायत को तवज्जो नहीं देता था। कोलियरी में कोयला लोडिंग के लिए ढुल्लू को प्रतिटन के हिसाब से रंगदारी टैक्स देना पड़ता था। हेमंत सोरेन की सरकार बनने के बाद से ढुल्लू जेल में है। रामगढ़ और करीबी कोयला पट्टी में भोला पांडेय, सुशील श्रीवास्तव और अमन साव का गिरोह कोयला और रेलवे साइडिंग से वसूली पर वर्चस्व के लिए टकराता रहता है। कथित नक्सली संगठन टीपीसी-टीएसपीसी (तृतीय सम्मेलन प्रस्तुति समिति) ने भी वसूली में अपनी जगह बना ली है। अनिल शर्मा, अखिलेश सिंह, सुजीत सिन्हा जैसे हत्या-रंगदारी के दर्जनों मामलों के आरोपी अभी सलाखों के पीछे हैं, लेकिन उनका कारोबार वहीं से चल रहा है।
वासेपुर की कहानी
धनबाद के इलाके वासेपुर पर ही गैंग्स ऑफ वासेपुर फिल्म बनी है। यह फहीम खान और साबिर खान के बीच गैंगवार की कहानी पर आधारित है। वासेपुर के ही जीशान कादरी की कहानी पर यह फिल्म बनी है। वासेपुर का किस्सा भी सूर्यदेव सिंह से शुरू होता है। 1980 के दशक में जेल के भीतर शफी खान और झरिया के तत्कालीन विधायक सूर्यदेव सिंह के बीच विवाद हुआ। बाद में 1983 में बरवा अड्डा पेट्रोल पंप पर फहीम खान के पिता शफी खान की हत्या कर दी गई। इल्जाम सूर्यदेव सिंह के सिर आया। उसके बाद जो गैंगवार का सिलसिला चला तो बीसियों लाशें गिरीं। शफी के बड़े बेटे शमीम को 1986 में धनबाद सिविल कोर्ट में और छोटे बेटे छोटा खान को रांगा टांड़ ग्वालापट्टी में विरोधी गुट ने ढेर कर दिया। 2010 में साबिर के भाई वाहिद की भी रांची में हत्या हो गई। भिड़ंत में फहीम और साबिर दोनों के परिवार और गिरोह के कई सदस्य मारे गए। इसी क्रम में कांग्रेस नेता फजलू हक भी फहीम गिरोह की भेंट चढ़ गया। फहीम अभी हजारीबाग जेल में है।
कहते हैं, बिहार के एक समाजसेवी जमींदार ने वासेपुर के जंगल को कटवाकर मोहल्ला बसाया था, तब यहां की आबादी कोई डेढ़ सौ रही होगी। वहां सुल्तान, सूर्यदेव सिंह का हथियार बना। सुल्तान की हत्या के बाद उसका गिरोह कमजोर पड़ा। मगर छोटे-मोटे गिरोह अब भी जोर-आजमाइश करते रहते हैं। हां, पहले वाला खौफ का माहौल अब नहीं है।
लठैत से डॉन का सफर
बिंदेश्वरी प्रसाद सिन्हा बेगूसराय से 1950 में धनबाद आए थे। कोलियरी मालिकों में पैठ बनाने के बाद इंटक से जुड़कर अपनी दखल बढ़ाई। इनके पास कई कोयला खदानों का काम था। मजदूरों पर नियंत्रण के लिए लठैतों की टीम बनाई, जिनमें बलिया से नौकरी की तलाश में आए सूर्यदेव सिंह और वासेपुर के शफी खान भी थे। बाद में सूर्यदेव सिंह ने अपने भाइयों को भी बुला लिया और कोयला कारोबारियों के बीच पैठ गहरी कर ली। 1970 के करीब ही विरोधियों को पछाड़ते हुए धनबाद में वर्चस्व कायम कर लिया था। यही दौर था कि शफी खान से उनकी अदावत शुरू हो गई थी।
1991 में सूर्यदेव सिंह आरा संसदीय सीट से चुनाव लड़ रहे थे, उसी दौरान हृदय गति रुकने से उनकी मौत हो गई। इसके बाद उनकी सल्तनत पर कब्जे को लेकर आपस में ही टकराव शुरू हो गया। अनुज बच्चा सिंह ने उनकी राजनीतिक और जनता मजदूर संघ की विरासत पर कब्जा जमाया तो सूर्यदेव सिंह की पत्नी कुंती सिंह और बड़े बेटे राजीव रंजन विरोध में खड़े हुए। सबसे छोटे भाई राजन सिंह का परिवार बच्चा सिंह के साथ चला गया। राजन के पुत्र नीरज सिंह, सूर्यदेव के झरिया से विधायक पुत्र संजीव के खिलाफ एक राजनीतिक प्रतिस्पर्धी बन गए। संजीव सिंह के खास रंजय सिंह की हत्या नीरज सिंह के निवास ‘रघुकुल’ के पास हुई तो कुछ दिनों बाद संजीव के आवास ‘कुंती निवास’ के सामने चार लोगों के साथ नीरज सिंह की दिनदहाड़े हत्या कर दी गई। नीरज की हत्या के मामले में संजीव जेल में है।
धनबाद में दो दशक से अधिक समय से पत्रकारिता कर रहे संजीव झा कहते हैं कि बीते विधानसभा चुनाव में संजीव सिंह की पत्नी रागिनी सिंह और नीरज सिंह की पत्नी पूर्णिमा सिंह झरिया विधानसभा सीट पर आमने-सामने थीं। जेठानी-देवरानी या कहें ‘सिंह मैंशन’ और ‘रघुकुल’ की लड़ाई में पूर्णिमा सिंह विजयी हुईं। अभी रघुकुल का पलड़ा भारी लग रहा है और शांति भी है। वैसे, कोयलांचल में कई और गिरोह हैं। जब तक सालाना अरबों रुपये का अवैध खेल चलता रहेगा, वर्चस्व को लेकर माफिया गिरोह टकराते रहेंगे, कभी कम-कभी ज्यादा।