सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों- प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायाधीश एस.ए. बोबडे, न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायाधीश अशोक भूषण और न्यायाधीश ए. अब्दुल नजीर का अयोध्या फैसला कई बारीक विश्लेषणों का विषय बन गया है।
यह ऐसे दौर में आया है, जब दुनिया भर में कट्टर अनुदारवादियों की ‘चमत्कारी’ संवैधानिक निरंकुशता सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर भारी दबाव पैदा कर रही है, किसी तरह की असहमति और शक-शुबहा जताने वाले विरोधी मतों को राष्ट्रीय एकता और अखंडता के खिलाफ बताया जा रहा है। हालांकि उदार लोकतांत्रिक मूल्यों को राजनीति में बनाए रखने के लिए दूसरे लोग भी सक्रिय हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं कि बेहद जरूरी होने पर भी सार्वजनिक मसलों पर तर्कसंगत बहस करना मुश्किल हो गया है। सुप्रीम कोर्ट उन्हीं लोगों को निराश करने के लिए तीखी आलोचनाओं की जद में आ गया है, जिनसे उसे न्यायिक समीक्षा की ताकत मिलती है।
अदालत ने अपने फैसले के निचोड़ का अंत यह कहकर किया कि हममें से एक “तर्कों और निर्देशों से सहमत होते हुए भी इस बारे में अपने अलग तर्क दर्ज किए हैं ” कि “विवादास्पद ढांचा क्या हिंदू श्रद्धालुओं की मान्यता और आस्था के अनुसार भगवान राम का जन्मस्थान है” और “विद्वान न्यायाधीश के ये तर्क परिशिष्ट में दिए गए हैं।” यह सबसे असामान्य प्रक्रिया और असंवैधानिक है क्योंकि भारत के लोगों के पास सर्वानुमति से दिए गए न्यायिक फैसलों से न संचालित होने का भी एक अधिकार है। पूरे फैसले (929 पन्नों के) पर कोई राय बनाने के पहले 116 पन्नों को इस अहस्ताक्षरित परिशिष्ट को अलग कर देना होगा। यह भी दुखद है, जैसा कि कुछ आलोचकों ने सही ही कहा है कि फैसला “हिंदुओं” और “मुस्लिमों” की बात करते हुए गलती कर बैठता है क्योंकि ये एकदम से अलग-अलग सामाजिक और धार्मिक श्रेणियां हैं।
अदालतों की निष्पक्ष और सामाजिक रूप से जिम्मेदार आलोचना करने के लिए फैसलों का बारीक अध्ययन जरूरी होता है। अयोध्या का फैसला इलाहाबाद हाइकोर्ट के फैसले पर आई अपीलों से संबंधित है। हाइकोर्ट ने 2010 में विवादास्पद स्थल को भगवान राम, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड के बीच तीन हिस्सों में बांट दिया था और सभी को एक-एक तिहाई हिस्सा दे दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर 41 दिनों तक सभी पक्षों की दलीलें सुनीं और अपना सर्वानुमति फैसला “मुगल काल, औपनिवेशिक काल और मौजूदा संवैधानिक काल” की विशाल अवधि में फैली घटनाओं के “कानूनी समाधान के रूप में सुनाया।” अदालत का सर्वानुमति से किया गया फैसला वाकई सराहनीय है क्योंकि पिछले कुछ दशकों से फैसलों में कई तरह के मत देखे गए हैं। यह सर्वानुमति इस वजह से भी चमत्कारिक है क्योंकि 4304 पन्नों के इलाहाबाद हाइकोर्ट के फैसले पर सुनवाई 929 पन्नों में कर आया है।
लगता है कि मौजूदा सक्रिय रवैए में यह बात भी भुला दी गई है, जो अदालत ने ही पहले कहा था कि वह सिर्फ संपत्ति विवाद को ही सुनेगी और इस मामले के व्यापक संवैधानिक पहलू पर विचार करने से उसने इनकार कर दिया गया था। अदालत ने इस मामले को सुलझाने के लिए मध्यस्थता की ओर भी ध्यान दिया, क्योंकि कई दूसरी सामाजिक, धार्मिक और सरकारी पहल बेमानी हो गई थी। सभी पक्षों ने यह भी ऐलान कर दिया था कि वे न्यायिक फैसले का पालन करेंगे। यह भी हो-हल्ला का विषय नहीं बना जब अदालत ने इस संदर्भ में भी अपना मत नकारात्मक व्यक्त किया कि “वह ढांचा जहां स्थित था, वहां बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि के निर्माण के पहले कोई हिंदू मंदिर या किसी तरह का हिंदू धार्मिक स्थल था।”
तो, क्या यह फैसला भविष्य में किसी दूसरे धर्मस्थल को अपवित्र करने या ढहाने की संभावना पैदा करता है? सिद्धांत रूप में 1991 के धार्मिक उपासना स्थल कानून को बदलना तो संभव है। लेकिन यह वैसे ही जैसे आसमान को जमीन पर उतारना। 15 अगस्त 1947 को स्थित किसी भी पूजास्थल (अयोध्या को छोड़कर क्योंकि वह मामला पहले ही अदालतों में था) को बदलने के लिए संसदीय बहुमत का इस्तेमाल करना अब बहुत मुश्किल है क्योंकि अदालत ने धर्मनिरपेक्षता को संवैधानिक प्रतिबद्धता और दायित्व बताया है और सभी धर्मों और धर्मनिरपेक्षता को संविधान के बुनियादी पहलुओं में एक समान माना है। इस तरह यह सिद्धांत “अपरिवर्तनीय” घोषित किया जा चुका है।
आलोचक बाबरी मस्जिद गिराने जैसी घटना भविष्य में भी दोहराए जाने की बात कह सकते हैं, लेकिन क्या भविष्य में ऐसा निश्चित रूप से होगा? अगर दुर्भाग्यवश ऐसा होता भी है तो क्या उसके लिए कोर्ट को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जिसने ऐसे काम को गैर-कानूनी ठहराया है? कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि वह मालिकाना हक के सवाल को इस बात तक सीमित नहीं कर सकता कि किस समुदाय की आस्था ज्यादा मजबूत है। सर्वोच्च न्यायालय ने मुश्किल समय में एकमत से जो फैसला दिया है, उसमें धर्मनिरपेक्षता का मजबूत भरोसा है। किसी न्यायिक फैसले को राजनीतिक रंग देना या इस आधार पर आलोचना करना गलत होगा कि भविष्य में इसका गलत इस्तेमाल किया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सबसे विवादित हिस्सा यह है कि उसने दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद को गिरा कर किए गए गलती को दुरुस्त करने के लिए संविधान के अनुच्छेद-142 में मिले विशेषाधिकारों का इस्तेमाल करते हुए सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड को अयोध्या में मस्जिद निर्माण के लिए पांच एकड़ जमीन देने का आदेश दिया। अगर यह सिर्फ अनुच्छेद 142 में मिले न्यायिक अधिकार की बात है तो इसे न्यायोचित कहा जा सकता है। लेकिन मैं फैसले को अलग तरीके से देखता हूं। कोर्ट ने यहां संवैधानिक शक्ति और कर्तव्य को मिला दिया है। यानी यह कोई संवैधानिक दरियादिली नहीं, बल्कि संवैधानिक बाध्यता की दिशा में आगे बढ़ाने वाला कदम है। कोर्ट ने इस महत्वपूर्ण काम को बेहतरीन अंजाम दिया है। मस्जिद के लिए जमीन देना दरियादिली नहीं, बल्कि पूर्ण न्याय सुनिश्चित करना है। भले ही 6 दिसंबर 1992 के उस काले दिवस की घटना से आहत लोगों को इस बात का एहसास देर से हो। अब यह कार्यपालिका और विधायिका का दायित्व है कि आहत समुदाय के नुकसान की भरपाई करे।
क्या कोर्ट संवैधानिक दायित्व से इतर जाने से बचने में सफल रहा है? फैसले में स्पष्ट कहा गया है कि 22-23 दिसंबर 1949 की दरम्यानी रात बाबरी मस्जिद के केंद्रीय गुंबद में हिंदू देवताओं की मूर्तियां रखना और 1992 में मस्जिद को तोड़ना कानून के राज का घोर उल्लंघन है। कोर्ट आगे कहता है कि संविधान के तहत स्थापित धर्मनिरपेक्ष संस्था होने के नाते उसे तमाम संभावित व्याख्याओं में से किसी एक को चुनना है। अदालत ने अनिवार्य तौर पर यह स्पष्ट किया है कि उसका निर्णय किसी मान्यता पर नहीं, बल्कि धर्मनिरपेक्ष कानून और सबूतों पर आधारित है।
आलोचकों ने जिस दूसरे विवादास्पद मामले को उठाया है, वह है अदालत की “संभावनाओं पर निर्भरता” और एएसआइ की रिपोर्ट को धर्मनिरपेक्ष सबूत के रूप में उसका मानना। एएसआइ की रिपोर्ट को अदालत ने दो संदर्भों में लिया है कि रिपोर्ट के अनुसार, “वहां पहले से किसी ढांचा के सबूत मिलते हैं और दूसरे, ऐसा सबूत नहीं मिलता कि उस ढांचे को गिराकर और उसके मलबे से बाबरी मस्जिद का निर्माण हुआ था।”
“संभावनाओं के संतुलन” का तर्क अदालत ने इस आधार पर दिया है कि लगभग 375 साल के दौर पर विचार नहीं किया जाए, जो मस्जिद निर्माण से लेकर अंग्रेजों द्वारा वहां ईंट की दीवार बनाने तक का है। सुन्नी वक्फ बोर्ड इस अवधि में कब्जे का कोई सबूत पेश नहीं कर पाया है और न ही वह यह सबूत पेश कर पाया कि उस दौरान मस्जिद में नमाज पढ़ी जाती थी। दीवानी के मामलों में न्यायिक सिद्धांत में संभावनाओं के संतुलन का तर्क स्वीकार्य है। ऐसे मामलों में इस तथ्य को भी ध्यान रखा जाता है कि मालिकाना हक का दावा करने वाले पक्ष को अपने बेरोकटोक और निरंतर कब्जे की बात साबित करनी होगी।
अयोध्या मामले में रामलला के वकील यह साबित करने में सक्षम रहे हैं कि बाबरी मस्जिद के भीतरी और बाहरी प्रांगण में उनकी पहुंच बेरोकटोक रही है। लेकिन सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील, अदालत के मुताबिक, ऐसा ही साक्ष्य देने में नाकाम रहे हैं। यहां यह भी गौर करने लायक और पूरी तरह विश्वासयोग्य है कि वक्फ के दस्तावेज 1857 में अवध पर अंग्रेजों के कब्जे के दौरान नष्ट कर दिए गए या यह भी स्वीकार करने योग्य है कि इस्लामी राज्य के दौरान मस्जिद स्वाभाविक रूप से नमाज के लिए इस्तेमाल की गई होगी। लेकिन कानूनी प्रक्रिया में बिना दस्तावेजी प्रमाण के इस बात का विशेष महत्व नहीं है।
अदालत ने कहा है, “कानून को इतिहास, विचारधारा या धर्म की राजनैतिक व्याख्याओं से अलग रहना चाहिए।” अदालत ने बड़े स्पष्ट ढंग से यह भी दर्ज किया है कि “अदालत मालिकाना हक का फैसला आस्था या विश्वास के आधार पर नहीं, बल्कि सबूतों के आधार पर करती है,” और “सबूतों के स्थापित सिद्धांतों” को मालिकाना हक के दावे पर फैसला देते वक्त ध्यान में रखा जाना चाहिए। जहां तक मालिकाना हक के विवाद को हल करने का सवाल है, अदालत ने ठीक यही किया है।
मौजूदा फैसले की तरह सभी भारी-भरकम फैसलों में जैसा हमेशा होता है, फैसले की घोषणा के फौरन बाद किसी तरह के आधिकारिक विश्लेषण में जल्दीबाजी का खतरा रहता है। फिर इस विवाद में तो धर्म और आस्था, इतिहास और पुरातत्व जैसे एकदम विपरीत विषय शामिल रहे हैं। सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले में खुद यह कहा है कि उसे “उस विवाद को हल करने का दायित्व दिया गया, जिसकी बुनियाद उतनी ही पुरानी है, जितनी भारत विचार की।” फिर भी शायद यही बेहतर होगा कि इस मामले के नतीजों को कानून और संविधान के सिद्धांतों के नजरिए से निष्पक्ष होकर देखा जाए।
(लेखक प्रख्यात विधिवेत्ता और ब्रिटेन में वारविक यूनिवर्सिटी में विधि के प्रोफेसर हैं। वे दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति भी रह चुके हैं)