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आवरण कथा/असम: ‘मिया’ का सहारा

सीएए-एनआरसी का जिक्र करने से भी बच रही भाजपा बदरुद्दीन अजमल को ‘दुश्मन’ बता चुनाव जीतने की जुगत में
चुनावी सभा को  संबोधित करते एआइयूडीएफ के नेता बदरुद्दीन अजमल

असम के इतिहास में मुगलों का जिक्र खासकर दुश्मन की तरह ही आता है, जिन्हें 18 बार हराया गया। आखिरी लड़ाई 1671 में सरायघाट में हुई, जहां आक्रांताओं को ‘अहम’ साम्राज्य से बुरी हार झेलनी पड़ी। आज राज्य की राजधानी गुवाहाटी के पास सरायघाट में मुगलों को परास्त करने वाली अहम सेना के सेनापति लचित बरफूकन की रणनीतियों के बारे में पढ़कर ही कई पीढ़ियां जवान हुई हैं। इस उपमहाद्वीप के विशाल इलाके में कई सदियों तक राज करने वाली मुगल सल्तनत की छाप असम में बहुत थोड़े वक्त के लिए मामूली-सी ही रही है। यही वजह है कि मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने हाल ही में जब दावा किया कि “असम में मुगलों का आक्रमण आज भी जारी है,” तो राज्य में बहुसंख्यक आबादी को हंसी-ठट्ठा का मसाला मिल गया।

यह चुनाव की बेला है और अमूमन वोटरों के आगे तमाम तरह की साजिश की बातें और बढ़-चढ़कर वादे परोसे जाते हैं। फिर भी, नाम न जाहिर करने की शर्त पर एक भाजपा नेता कहते हैं, “मैं भी कहूंगा कि मुगल आक्रमण का जिक्र कुछ ज्यादा ही है। असम में एक भी मुगल स्मारक नहीं है। देश के दूसरे हिस्सों के विपरीत, असम में एक भी हिंदू पूजास्‍थल तोड़े जाने का कोई जिक्र नहीं है। तो, किस मुगल की बात वे कर रहे हैं?” भाजपा ने फौरन इससे परदा हटाया। राज्य भाजपा के प्रवक्ता रितुबरन सरमा कहते हैं, “मुगलों का जिक्र किसी व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि मानसिकता के लिए है...जो भारत के, असम के खिलाफ है।”

इसी के साथ इन चुनावों में भाजपा की ध्रुवीकरण की आजमाई रणनीति की शुरुआत होती है। 2016 में जब पार्टी पहली दफा असम में जीती तो उसने “अवैध प्रवासियों” के पुराने घाव को कुरेदा था और बहुसंख्यक असमी भाषी वोटरों को लुभाने के लिए एनआरसी का चुग्गा डाला था। पांच साल, और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को अपडेट करने की विवादास्पद और उथल-पुथल भरी कोशिश के बाद भाजपा ने “अवैध प्रवासियों” का मुद्दा एकदम से रद्दी की टोकरी में डाल दिया। पार्टी ने विवादास्पद नागरिकता (संशोधन) कानून (सीएए) पर भी चुप्पी साध ली है, जिससे 2020 में राज्य में भारी नाराजगी और हिंसा भड़क उठी थी। भाजपा के लिए एनआरसी की सारी कार्रवाई पूरी तरह भुला देने का सबब बन गई क्योंकि सूची से बाहर महज 19 लाख लोग ही रह गए, जो असम में अवैध रूप से रह रहे “तथाकथित बांग्लादेशियों” की बताई जा रही संख्या से काफी कम थी। यही नहीं, बाहरी बताए गए लोगों में बड़ी संख्या हिंदुओं की है, जिन्हें पार्टी सुरक्षा प्रदान करने और भारत में शरण देने का संकल्प जाहिर कर चुकी है।

मौजूदा चुनावों में कहानी बदल भी गई है। कांग्रेस की अगुआई में एआइयूडीएफ समेत आठ पार्टियों के गठजोड़ से भाजपा को कड़ी चुनौती मिल रही है, लेकिन भाजपा ने सिर्फ परफ्यूम कारोबारी और सांसद बदरुद्दीन अजमल को असम का ‘दुश्मन नंबर 1’ बताते हुए ‘अहमिया बनाम मिया’ का सहारा लिया है। असम में बांग्लादेश से आए बांग्लाभाषी मुसलमानों के लिए ‘मिया’ शब्द इस्तेमाल किया जाता है।

प्रदेश के मंत्री और भाजपा के रणनीतिकार हिमंत बिस्वा सरमा कहते हैं कि मिया ने कभी असमियों के साथ घुलने-मिलने की कोशिश नहीं की। भाजपा अजमल को मिया समुदाय का नेता ठहराने की कोशिश कर रही है। हाल ही सरमा ने कहा था, “यह सभ्यताओं का टकराव है। एआइयूडीएफ के संग हाथ मिलाकर कांग्रेस ने चुनाव को सांप्रदायिक बना दिया है।”

सरमा की टिप्पणी का कांग्रेस मजाक उड़ाती है। पार्टी के सांसद गौरव गोगोई कहते हैं, “भाजपा के पास अब कोई मुद्दा नहीं बच गया है। वह लोगों से एनआरसी या सीएए के नाम पर वोट नहीं मांग सकती है। विकास के नाम पर भी उसके पास कहने को कुछ नहीं है। इसलिए वह ध्रुवीकरण के अपने पुराने एजेंडे पर लौट आई है। लेकिन इस बार यह काम नहीं करेगा। लोग उसके इस एजेंडे को भी परख चुके हैं।”

कांग्रेस के नेतृत्व वाला गठबंधन भी सीएए के खिलाफ लोगों की नाराजगी और भाजपा के खिलाफ मुस्लिम वोटों से आस लगाए बैठा है। गठबंधन को उम्मीद है कि भाजपा विरोधी हिंदुओं के अलावा मुसलमानों और एआइयूडीएफ का साथ मिलने से वह सत्तारूढ़ पार्टी की सोशल इंजीनियरिंग को तोड़ देगा। कांग्रेस को राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा के मंदिर और नामघर (वैष्णवों के प्रार्थना घर) जाने से भी आस है। उसे लगता है कि इससे हिंदू मतदाता आकर्षित होंगे, जिनके लिए असमी पहचान के साथ धार्मिक पहचान भी समान रूप से महत्वपूर्ण है।

 

“हम असम को घुसपैठियों की जगह नहीं बनने देंगे। हम आपको (बदरुद्दीन अजमल) असम से बाहर फेंक देंगे”

असम की एक रैली में अमित शाह

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