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पुस्तक समीक्षाः राजधानी में विस्थापन

पलायन और विस्थापन इस दौर के सबसे ज्यादा भयावह शब्द है
ओ री कठपुतली

पलायन और विस्थापन इस दौर के सबसे ज्यादा भयावह शब्द है। वैश्विक स्तर पर कभी वर्चस्व की लड़ाई, कभी जमीन के टुकड़े पर हक, कभी सौंदर्यीकरण के नाम पर उजाड़ दिया जाना बहुत ‘साधारण’ होता जा रहा है। पलायन-विस्थापन की खबरें कुछ दिन सुर्खियां बटोरती हैं। फिर सब कुछ सामान्य हो जाता है। विकट परिस्थितयों के पलायन के बीच पीड़ादाई विस्थापन पर पुरजोर ढंग से बात नहीं होती कि इन बाशिंदों की कहानियां बाहर आ सकें।

अपनी ही जमीन से उजड़ कर, अपने मकान, जड़ों से हट कर ये लोग एक तमगा पा जाते हैं, ‘रिफ्यूजी।’ इस उजाड़ दिए जाने में सरकारी वर्जन हमेशा ‘अतिक्रमण’ होता है। राष्ट्रीय राजधानी की चकाचौंध में बसी ऐसी ही एक कठपुतली मुहल्ले को जब उजाड़ा गया, तब अखबारों में खूब खबरें आईं, मार्मिक शब्दों में उनकी पीड़ा लिखी गई। अखबारी भाषा में कहें, तो ‘ह्यूमन इंटरेस्ट’ की स्टोरी। इसी ह्यूमन इंटरेस्ट की स्टोरी को लेखिका ने ऐसा झकझोरा कि उन्होंने इस पर बाकायदा शोध किया। कॉलोनी के लोगों की पीड़ा समझी और जो नतीजा निकला, वह ओ री कठपुतली के रूप में सामने है।

कलाकारों को ऊंचे पायदान पर रखने वाली दुनिया ने कठपुतली कलाकारों को शायद कलाकार न माना होगा। तभी वे उजाड़ दिए गए। फिर वे कहां गए, कैसे दोबारा बसे यह बात सरकार की चिंता सूची से भी बाहर हो गई। पुस्तक नट, बाजीगर, रेड लाइट पर करतब दिखाते बच्चों, तमाशे दिखाने वालों की कहानी कहती है। यह पुस्तक उस दुनिया में ले जाती है, जहां निचली बस्तियों के लोग भीख नहीं मांगते बल्कि हुनर दिखाते हैं। लेकिन विकास कब किसी कलाकार के लिए ठहरा है, जो कठपुतली कॉलोनी में ठहरता। इसलिए विकास यहां चला आया, बुलडोजर पर सवार और चंद घंटों में सब कुछ अपने साथ ले गया।

बसने और उजड़ जाने की यह ऐसी कहानी है कि समूचा तंत्र निर्ममता से खड़ा दिखता है और पात्र मजबूती से लोहा लेते दिखाई देते हैं।

ओ री कठपुतली

अंजू शर्मा

प्रकाशक | सेतु

पृष्ठः 237 | मूल्यः 350

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