अभय मिश्र की नई किताब उनके द्वारा लंबे समय से की जा रही पर्यावरणीय पत्रकारिता का पड़ाव है। इससे पहले वे पंकज रामेंदु के साथ मिल कर ‘दर दर गंगे’ नाम से एक महत्वपूर्ण किताब लिख चुके हैं। पुस्तक के तीस अध्याय गंगा पथ (गंगोत्री से गंगासागर तक) पर स्थित प्रमुख शहरों को केंद्र में रखकर लिखी गई है। किताब की सामग्री इसे भिन्न-भिन्न रुचियों के पाठकों के लिए उपयुक्त बनाती है। इसमें भूगोल, समाजशास्त्र, आध्यात्म, दर्शन, इत्यादि विषयों का प्रयोग किया गया है। साथ ही समाज में हो रहे मानसिक बदलाव और नैतिक पतन का जिक्र भी कहीं इशारे से तो कहीं खुलकर किया गया है। जैसे ‘गंगा को माई नहीं मालगाड़ी की तरह देखना’, ‘जीवन से कला और संगीत का गायब हो जाना’, ‘गंगा के नाम पर चल रही दुकानें’, ‘नहरों का समाजशास्त्र’, आदि जैसे वाक्य विषयों की गंभीरता पर सोचने को विवश करते हैं।
यह किताब भारत में निषादों की बदहाल स्थिति से लेकर पंडों के बीच वर्चस्व की लड़ाई और धार्मिक संस्थानों का राजनीतिक दलों से करीबी संबंध जैसे कई मुद्दों की तरफ पाठकों का ध्यान आकर्षित करता है। साथ ही यह धर्म के बदलते समीकरणों का भारतीय समाज पर प्रभाव, जाति-प्रथा की शुरुआत, बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म के बीच टकराहट के परिणाम, इस्लाम धर्म के आने पर सामाजिक परिस्थितियों में हुए बदलाव और भारत के लंबे ऐतिहासिक वैविध्य दर्शाता है। गंगा नदी को केंद्र में रखकर भारत के सामाजिक परिवेश में कॉर्पोरेट, एनजीओ, आदि की बढ़ती भूमिका और इससे राजनीति और अर्थव्यवस्था पर प्रभाव आदि जैसे कारकों को भी लेखक बारीकी से महसूस करते हुए लिखते हैं। किताब में टिहरी में बांध बनने के बाद से भागीरथी में पानी का कम होना, गंगापथ पर अवैध रेत खनन और इसका व्यवसायीकरण, नदी की इकोलॉजी बिगड़ना, बाढ़ की विभीषिका का बढ़ना, गन्ने की खेती से जमीन की उर्वरता का घटना सबके आपसी संबंधों के बारे में बताया गया है।
इस किताब का संदेश है कि मनुष्य जितना प्रकृति से विमुख होता जाएगा, समाज के लिए परिणाम उतना ही घातक सिद्ध होगा। इसके संकेत उत्तराखंड में होने वाली प्राकृतिक आपदाओं से लेकर बाढ़ की बढ़ती संख्या है। इस किताब की खास बात इसमें प्रयोग हुए कई क्षेत्रीय शब्द हैं, जो पाठकों के पर्यावरणीय ज्ञान को समृद्ध करते हैं। जैसे, नदी से रेत उठाने के क्रम में ‘चुगान’ और ‘खनन’ में फर्क, ‘कछुआरा लगाना’ मतलब गंगा की जमीन पर तरबूज-खरबूज-खीरे की खेती करना, आदि। हालांकि, कई जगहों पर सत्य और नाटकीय घटनाक्रम की एकरूपता पाठक के लिए दुविधा उत्पन्न करती है। किताब का केंद्र बिंदू गंगा नदी जरूर है पर यह बराबरी से प्रकृति की दुर्दशा को भी दिखाती है।
विहंगम: गंगापथ के भागीरथ आख्यान
अभय मिश्र
प्रकाशक | पेंगुइन प्रकाशन
कीमतः 399 रुपये
पृष्ठः 295