युवा कवयित्री शैलजा पाठक के कविता संग्रह ‘जहां चुप्पी टूटती है’ की पहली कविता की पहली पंक्ति है, “एक औरत तेज बुखार में बड़बड़ा रही है।” संग्रह की आखिरी कविता की आखिरी पंक्ति है, “ये (दुनिया) छोटी-छोटी गांठों के दर्द से रिसती रहती है।” बीच की कविताओं में घाव, अंधेरा, दर्द, बदनामी, हूक, त्रासदी, धुआं, आंसू, रुलाई, हिचकी जैसे शब्द बार-बार आते हैं। ये इस संग्रह के बीज शब्द हैं। दुख इस संग्रह का चेहरा है।
दुख की व्याप्ति हिंदी कविता में नई नहीं है। मीरा और महादेवी से लेकर समकालीन कवयित्रियों तक यह दुख तरह-तरह की शक्लों में प्रकट होता और परिभाषित किया जाता रहा है। फिर शैलजा पाठक नया क्या करती हैं? वे तमाम स्त्रियों के दुख लगभग उसी तरह लिखती हैं जैसे उन्हें जिया गया है। उनकी दिनचर्या में उतर कर, उनकी रसोई को देखते हुए, उनकी क्रियाओं में साझेदार बन कर, उनके अनुभव को अपने स्तर पर जीती हुई, अपने अनुभव उनमें जोड़ती हुई और जैसे अपनी बहनों-मां, सखियों-सहेलियों-सगियों का कोई कर्ज उतारती हुई। ‘अपनी ओर से’ उन्होंने लिखा भी है, “मेरी कविताओं में आई तमाम औरतों में जिंदगी से दो-दो हाथ करती कुछ जिंदा हैं, कुछ मर गईं। ये औरतें मेरे अंदर हूक-सी उठती रहीं। ये संख्या में इतनी हैं कि अगर मैं इनकी एक-एक आवाज पर इनके पास ठहरूं तब यह जिंदगी भी कम पड़ जाएगी।”
जिनकी आवाज सुनने की कोशिश में जिंदगी कम पड़ जाए, वे कौन सी औरतें हैं? क्या वे शैलजा पाठक की निर्मित औरतें हैं? इन कविताओं से गुजरते हुए, लगभग सिहरते हुए हम महसूस करते हैं कि यह तो अपने आसपास का पूरा स्त्री-संसार है। उन बहुत सारी सुनी-अनसुनी, रोती-सिसकती, आंसुओं में डूबी कही-अनकही कथाओं का स्त्री-संसार जिसे हमने बनाया भी है, सताया भी है।
ये कविताएं बहुत सारी स्त्रियों के दुख से बनी एक अंतहीन कथा है जिसके किरदारों को शैलजा ने सजीव ढंग से गढ़ा है। फिर दोहराने की जरूरत है कि भारत के मध्यवर्गीय समाज के भीतर बनाया गया स्त्रीत्व का यह पाठ नया नहीं है, लेकिन कुछ इस सहजता और प्रामाणिकता के साथ रचा गया है कि इसे पढ़ते हुए मन विचलित होता है। यह खयाल भी आता है कि कई बार कविता अपनी कसौटियों पर भले खरी न लगे, लेकिन अनुभवों की आंच में पक कर ऐसी हो जाती है कि हम उसके दबाव को अपनी धड़कन पर महसूस करते हैं। इस संग्रह की कुछ कविताएं सपाट बयानी तक पहुंचती दिखती हैं, कुछ कविताएं अनगढ़ भी हैं, पहली कविता उदय प्रकाश की कविता ‘औरतें’ की याद दिलाती है, लेकिन इसके बावजूद शैलजा के पास अपना काव्य तत्व है जो उन्हें उनके समकालीनों के बीच अलग बनाता है।
यह काव्य तत्व कैसे बनता है? किसी निजी अनुभव का निजत्व खंडित किए बिना उसे एक सामूहिक अनुभव में बदल देने से। लेकिन यह कौशल का काम नहीं है, यह अपने अनुभव को दुनिया के आईने में देखना है। यह जीवन को महसूस करने की, अपने कायांतरण और रूपांतरण की एक प्रक्रिया है जो हमारे भीतर चुपचाप चलती रहती है। शैलजा इक्कीसवीं सदी की कवयित्री हैं। यहां तक आते-आते किसी को स्त्री-प्रतिरोध की भाषा सीखनी नहीं पड़ती। यह नई लड़की या लेखिका के गुण सूत्रों में धीरे-धीरे समाती जा रही है। लेकिन यह प्रतिरोध अभी शुरू ही हुआ है, उसका संघर्ष बहुत लंबा है।