पहले कविता संग्रह ‘अपने जैसा जीवन’ के अरसा बाद इस संकलन की कविताओं में कवयित्री का वही रूप सामने है, जो सोच के स्तर पर हमें अपने भीतर ले जाता है। यह भीतर ले जाना बाहर से खुद को काटना या अकेला होना नहीं, बल्कि बाहर और अंदर को जोड़ने वाली चेतना के तार को झंकृत करने वाला है। मिलना एक उम्मीद है/जो बची रहती है चलाती/इस सौरमंडल को/हमारी इस दूरी के बीच ही तो/सारे नक्षत्र नाचते हैं/हमें इन्हें साथ-साथ देखना चाहिए...।
समर्पण पेज पर सविता लिखती हैं, “उसे जो है “नहीं” सा।” ‘नहीं’ सविता सिंह के जीवन साथी पंकज सिंह के एक कविता संग्रह का नाम है। इस संकलन की कविताएं उन्हीं की याद को समर्पित हैं। अपने साथी को लेकर एक तरह की ऊहापोह आजीवन चलती रहती है। जीवन बीतता-बिखरता जाता है बंद मुट्ठी में रेत की तरह। उसे ही इन कविताओं में स्वर दिया गया है। एक पत्ता डाल से लगा हुआ था किसी तरह/पतझड़ में आज वह भी गया/इसे किसी पीले रंग ने खुद में मिला लिया...।
पहले कविता संकलन की एक कविता ‘जब पत्ते झर रहे होते हैं’ में सविता सिंह लिखती हैं, ‘ऐसे में क्या करती हो तुम/...जब पत्ते झर रहे होते हैं एक कठोर निरंतरता में/जब प्रकृति उदास मुख लिए हवा सी/बहती रहती है तुमसे लगकर।’ प्रकृति और जीवन की यह उदासी इस संकलन में भी प्रकट होती है। पहले संकलन में यह उदासी जहां एक तरह की नि:संगता लिए दिखती है वहीं एक संग-साथ छूट जाने की टीस इसमें ध्वनित होती दिखती है, ‘न प्रेम न नफरत/एक बदरंग उदासी है/जो गिरती रहती है भुरभुराकर आजकल/लाल-गुलाबी संसार का किस सहजता से विलोप हुआ/वह हमारी आंखें नहीं बता पाएंगी।’
उदात्तता पुरुषों की थाती मानी जाती रही है। पहले संकलन में भी उदात्तता की ताकत का अपने ढंग से सफल प्रयोग किया था कवयित्री ने। यह संकलन भी इस मामले में महत्वपूर्ण है। सविता की इन कविताओं की विशेषता यह है कि यहां खुद कवयित्री प्रकृति स्वरूप होकर स्थितियों को अभिव्यक्त करती हैं, ‘मेरे लिए तो यही एक खुशी थी/कि हम शाम ठंडी हवा के मध्य/उन फूलों को देखते/जो इस बात से प्रसन्न होते/कि उन्हें देखने के लिए/ उत्सुक आंखें बची हुई हैं इस पृथ्वी पर।’
‘खोई चीजों का शोक’ संकलन की एक लंबी कविता है जिसमें जीवन, मृत्यु, प्रेम, स्मृति और उसकी छायाएं अपनी चरम नाटकीयता में एक अद्भुत दृश्य बुनती हैं। इस कविता में साथ की विकट चाह जैसे अपने साथी की रचना करती हैं और फिर दृश्य पूरा होता है किसी पुरानी फिल्म सा। कविता पढ़ते हुए जैसे, ‘तू’ और ‘मैं’ का द्वैत मिट सा जाता है और ‘तुम’ के आत्मीय भाव की रचना होती है, ‘कोई जाता नहीं कहीं/ हूं पहले से अधिक तुम्हारा ही/ तुम्हारे शोक में घुला हुआ...। ’ यह कविता कवयित्री के अलावा कवि पंकज सिंह के दौर की पुनर्रचना करती उसके वैचारिक पक्ष को भी स्थापित करती है, ‘लड़ने संघर्ष करने से ही आखिर फर्क पड़ता है चीजों में/ करता रहा वही/ तुम साक्षी हो मैं परवाह करता था/ तारों की असली चमक की।’
खोयी चीजों का शोक
सविता सिंह
प्रकाशक| राधाकृष्ण प्रकाशन
मूल्य: 150 रुपये | पृष्ठः 395