कोई कितना भी पढ़ा-लिखा या खुले दिमाग वाला क्यों न हो, ट्रांसजेंडर सुनते ही ‘हिजड़ा’ शब्द अपने तमाम नकारात्मक अर्थों में कौंध जाता है। क्या ट्रांसजेंडर समुदाय को हमेशा नकारात्मक रूप में देखा जाता रहा है? तथ्य यह है कि हमारी भारतीय संस्कृति में, सेक्स और सेक्सुअलिटी के संदर्भ में आक्रांताओं और औपनिवेशिक शक्तियों के प्रवेश करने से पहले सहिष्णुता और समावेशी माहौल हुआ करता था। रामायण और महाभारत जैसे भारतीय महाकाव्यों और अन्य शास्त्रों में भी कई मिथक उभयलिंगी कामुकता के उदाहरणों से भरे हुए हैं, जिन्हें त्यागने के बजाय अपनाया और सेलिब्रेट किया गया है। हालांकि पश्चिमी सभ्यता में इस संदर्भ में लोगों की परेशानी हाल तक दिखाई दी क्योंकि वहां लोग इस तरह की श्रेणियों में निहित अस्पष्टताओं और अंतर्विरोधों से असहज महसूस करते थे। हिंदू धर्म न केवल ट्रांसजेंडर, समलैंगिक, उभयलिंगी और ऐसी अस्पष्टताओं को समायोजित करता है, बल्कि उन्हें सार्थक और शक्तिशाली भी मानता है। हिंदू पौराणिक कथाओं में अर्द्घनारीश्वर अर्थात संयुक्त पुरुष-महिला की शक्ति एक महत्वपूर्ण विषय है।
तो, ट्रांसजेंडर क्या है? ट्रांसजेंडर एक सामान्य शब्द है, जो उन लोगों का वर्णन करता है जिनकी लैंगिक पहचान या स्त्री-पुरुष या कुछ और होने की उनकी आंतरिक भावना, जन्म के समय उन्हें हासिल लिंग से मेल नहीं खाती। कुछ ट्रांसजेंडर लोगों में स्त्री या पुरुष में एक नहीं, बल्कि दोनों तत्वों का योग हो सकता है। इन्हें अक्सर ‘गैर-बाइनरी’ के रूप में वर्णित किया जाता है। एक और शब्द जिसे कभी-कभी इस श्रेणी के लोगों का वर्णन करने के लिए प्रयोग किया जाता है, वह है ‘जेंडरक्यूअर।’
दो दशकों से अधिक समय तक एलजीबीटीक्यूआइ बिरादरी के समानता के अधिकार के लिए सक्रिय कार्यकर्ता और 9 वर्षों से उनके अधिकारों के लिए संयुक्त राष्ट्र समानता चैंपियन होने के कारण मुझे यही महसूस होता है कि लोग एक पल के लिए भी रुककर सोचने को तैयार नहीं हैं कि उनके विचारों में हल्का-सा बदलाव कैसे किसी दूसरे व्यक्ति के जीवन को हमेशा के लिए बदल सकता है।
एलजीबीटीक्यूआइ और ट्रांसजेंडर समुदाय के हक में कानूनों में फेरबदल से पहले, मैंने सड़कों पर एलजीबीटीक्यूआइ स्वतंत्रता सेनानियों के साथ लड़ाई लड़ी, कानूनों का विरोध किया। मैंने वह बदलाव लाने का फैसला किया, जो मैं अपने भीतर देखना चाहती थी। हम सामाजिक मानदंडों और पुराने समय से चले आ रहे औपनिवेशिक कानूनों से इस कदर प्रभावित रहे हैं कि शिक्षित से शिक्षित की मानसिकता भी इस समुदाय के प्रति प्रतिगामी लगती है। भारत में ट्रांसजेंडर समुदाय के प्रति रूढ़िवादी सोच और समझ को दूर करने के लिए हमें लंबा रास्ता तय करना है। मेरा हमेशा से मानना रहा है कि किसी भी तरह के भेदभाव का मुकाबला करने के लिए न केवल कानून और नीतियों में, बल्कि आम लोगों के दिलोदिमाग में भी बदलाव की आवश्यकता है। इस समुदाय के बारे में अभी भी समझ की कमी है। भारत में समाज किसी भी स्तर पर समलैंगिकता स्वीकार करने को तैयार नहीं है। कारण धार्मिक से लेकर सरासर अज्ञानता, कुछ भी हो सकते हैं।
भारतीय सिनेमा ने हर पृष्ठभूमि के लोगों की मानसिक कंडीशनिंग करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हालांकि हाल के वर्षों में इस दिशा में सकारात्मक पहल हुई है, लेकिन अधिकांश हिंदी फिल्में अभी भी ऐसे पात्रों का चित्रण रूढ़िवादी और हिकारत भरे अंदाज में करती हैं। एक अभिनेता के नाते मैं हमेशा सोचती रही हूं कि ट्रांस व्यक्ति को ‘सामान्य’ से इतर क्यों समझा जाता है? विडंबना है कि बड़े पैमाने पर ट्रांसफोबिया के बावजूद, बॉलीवुड में इतने वर्षों बाद भी एक विशेष ट्रेंड लोकप्रिय है कि कोई पुरुष अभिनेता महिला की वेशभूषा में उतरे और उसकी हर अदा पर लोग वाह-वाह करें। तो, फिर ट्रांस लोगों के ऐसे व्यवहार को असामान्य क्यों माना जाता है? इस दोहरे व्यवहार को समझना मेरे लिए हमेशा मुश्किल रहा है।
ट्रांस लोगों को ट्रांस भूमिकाओं में कास्ट करना अभी भी चुनौती है, क्योंकि ऐसी भूमिकाएं मुख्यधारा के अभिनेताओं को पुरस्कार जीतने का मौका मुहैया कराती हैं। इसके अलावा निर्माता-निर्देशक वैसे ही अभिनेताओं को ट्रांसजेंडर की भूमिका देना चाहते हैं, जो उनके हिसाब से दर्शकों को बॉक्स ऑफिस की ओर आकर्षित करें। 2020 में जब मैंने फिल्मों में वापसी की, तो निर्देशक राम कमल मुखर्जी की बहुपुरस्कृत फिल्म सीजंस ग्रीटिंग्स- ए ट्रिब्यूट टू रितुपर्णो घोष, के लिए हां कहने का मुख्य कारण यही था। पहली बार इस फिल्म में एक ट्रांस महिला (श्री घटक) को महत्वपूर्ण रोल दिया गया था। इस तरह की ट्रांस समावेशी फिल्म की लीड ऐक्ट्रेस बनना अभिनेता और कार्यकर्ता दोनों रूप में ऐतिहासिक क्षण था। सीजन्स ग्रीटिंग्स, चित्रांगदा, सुपर डीलक्स, (तमिल) और नजन मैरी कुट्टी, (मलयालम) जैसी फिल्मों ने ट्रांस प्रतिनिधित्व की दिशा में अद्भुत योगदान दिया है। ट्रांस लोगों को ट्रांस भूमिकाओं में कास्ट करना महत्वपूर्ण है। केवल वे ही अपनी यात्रा की पीड़ा और खुशियों के प्रकाश स्तंभ बन सकते हैं। उनसे जुड़े विषयों पर फिल्म बनाते वक्त निर्माता को संवेदनशील, सहानुभूतिपूर्ण और तर्कसंगत होना चाहिए। ट्रांस पात्रों का चित्रण कितना भी जटिल क्यों न लगे, लोगों के साथ सम्मानजनक और समान व्यवहार करना कठिन नहीं है और इसके लिए किसी विशेष शिक्षा की आवश्यकता भी नहीं है।
(बॉलीवुड अभिनेत्री सेलिना जेटली लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर समुदाय के समानता के अधिकार के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आवाज बुलंद करने के कारण संयुक्त राष्ट्र इक्वलिटी चैंपियन, मानवतावादी, एक्टीविस्ट और लेखक हैं। वे मिस इंडिया और मिस यूनिवर्स रनर-अप भी रही हैं। उन्हें पीपुल फॉर एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स (पेटा) मानवाधिकार पुरस्कार से भी नवाजा गया है। उन्हें मिस्र की सरकार संस्कृति और पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए पर्यटन राजदूत का खिताब प्रदान कर चुकी है। सेलिना जेटली ने हिंदी फिल्मों में अपना करियर अभिनेता-निर्देशक फिरोज खान की जानशीन (2003) से शुरू किया और नो-एंट्री (2005) और गोलमाल रिटर्न्स (2008) जैसी सुपरहिट फिल्मों में काम किया। फिल्मों से पहले उन्होंने 2001 में एमटीवी एशिया के साथ एक लोकप्रिय वीजे के रूप में भी काम किया। भारत में एलजीबीटीक्यूआइ समुदाय के लिए उनकी सक्रियता ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कार्यालय का ध्यान आकर्षित किया और उन्हें 2013 में इक्वलिटी चैंपियन का दर्जा दिया गया। सेलिना ने होमोफोबिया और ट्रांसफोबिया का मुकाबला करने और अधिकारों के सम्मान को बढ़ावा देने के लिए संयुक्त राष्ट्र के फ्री ऐंड इक्वल कैंपेन का समर्थन भी किया। हाल ही में उन्हें प्रतिष्ठित हार्वे मिल्क फाउंडेशन के लीला वॉटसन अवॉर्ड से सम्मानित किया गया। 2020 में सेलिना ने समीक्षकों द्वारा प्रशंसित फिल्मकार राम कमल मुखर्जी की शॉर्ट फिल्म सीजन्स ग्रीटिंग्स- ए ट्रिब्यूट टू रितुपर्णो घोष के साथ फिल्मों में वापसी की है जिसके लिए उन्हें न्यूयॉर्क ग्लोबल फिल्म फेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार का पुरस्कार मिला। फिलहाल वे ऑस्ट्रिया में अपने परिवार के साथ रहती हैं)