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द्रविड़ आंदोलन शताब्दी: आज भी गहरा असर

तमिलनाडु में द्रविड़ आंदोलन ने मंचीय कला, सिनेमा, साहित्य को औजार बनाया और राज्य के सामाजिक ताने-बाने में ऐसे बस गया कि उसके अलावा राजनीति का कोई मुहावरा नहीं
द्रविड़ आंदोलन से सौ साल

तमिलनाडु में सिनेमा 1930 के दशक में आधुनिक, तकनी‌क संचालित नया कला माध्यम ले आया और 1950 के दशक की शुरुआत से द्रविड़ आंदोलन के नेताओं ने बड़े प्रभावी ढंग से उसका इस्तेमाल किया और लोगों में अपनी पैठ बनाई। तेतै पेरियार ने 1925 में कांग्रेस छोड़ने के बाद 'आत्मसम्मान आंदोलन' की शुरुआत की। आगे चलकर यह द्रविड़र कषगम (डीके) और फिर द्रविड़ मुनेत्र कषगम (द्रमुक) राजनैतिक पार्टी के रूप में विकसित हुआ। अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम (अन्नाद्रमुक) भी उसी विरासत का हिस्सा है। अब इस आंदोलन को लगभग सौ वर्ष हो चुके हैं, और सत्ता में पहली बार आने को लगभग 60 वर्ष बीत चुके हैं। आज तमिलनाडु पर शासन कर रही द्रमुक अपने राजकाज को “द्रविड़ मॉडल” कहती है।

आइए देखा जाए कि यह सौ साल पुराना आंदोलन आज भी इतना मजबूत क्यों है? इसकी वजह लोगों में उसका भारी असर है। विचारधारा और सक्रिय कार्यक्रमों के जरिए द्रविड़ दर्शन विद्वानों से लेकर साधारण लोगों तक समाज के हर हिस्से में पहुंचा है। दरअसल 19वीं सदी के उत्तरार्ध में भारत में अंग्रेजी राज से आजादी की चेतना उभरने लगी। आजादी के लिए आंदोलन और विरोध बढ़ने लगा, तो अंग्रेजों ने यह कहना शुरू किया कि “भारत के लोग समूचे देश में खुद शासन चलाने के काबिल नहीं हैं; उनके पास ऐसी कोई ऐतिहासिक परंपरा नहीं है।” जवाब में भारतीय विद्वानों में अपने इतिहास के प्रति गहरी जागरूकता पैदा हुई। कहा जा सकता है कि वह काल भारतीय इतिहास-निर्माण के लिए हर तरह से अत्यंत उर्वर था।

पेरियार ने आत्मसम्मान आंदोलन की शुरुआत 46 वर्ष की आयु में की। वे 94 वर्ष तक जीवित रहे। आंदोलन की स्थापना करने के बाद उन्होंने अपने जीवन के लगभग 50 वर्ष जगह-जगह घूमकर भाषण देने में बिताए। कहा जाता है कि उन्होंने 10,000 से अधिक सभाओं को संबोधित किया। हर वर्ष 200 से अधिक सभाओं में वे बोलते थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन इसी  के अनुसार व्यवस्थित किया। उनकी पत्नी नागम्मयार का निधन हुआ, तो उन्होंने लिखा कि “एक बड़ी रुकावट दूर हो गई।”

पेरियार न तो कोई घर चाहते थे, न किसी एक जगह स्थायी रूप से रहना। उनका मन हमेशा यात्रा करते रहने और लोगों से मिलने-जुलने में रमता था। जब तक नागम्मयार जीवित थीं, उनकी यह इच्छा पूरी तरह पूरी नहीं हो सकी। उनकी मृत्यु के बाद, पेरियार ठीक वही जीवन जीने लगे जैसे वे चाहते थे। यानी यात्रा करना, सभाओं में बोलना, और जिस भी शहर में पहुंचते, वहीं रुक जाना, उनका जीवन बन गया।

पेरियार अकेले ही इतनी सभाओं को संबोधित कर पा रहे थे, तो सोचिए कि अगली पीढ़ी के नेताओं की सभाओं को जोड़ लें तो कुल संख्या लाखों में पहुंच जाएगी। अमेरिकी मानवशास्त्री बर्नार्ड बॅट ने द्रविड़ राजनैतिक वक्तृत्व-कला पर विशेष शोध किया है और इस विषय पर व्यापक रूप से लिखा है।

द्रविड़ आंदोलन ने लोगों में खूब पढ़ने की आदत को योजना बनाकर आगे बढ़ाई। पेरियार जिस भी सभा में बोलते, बेहद सस्ते पर्चे, छोटी-छोटी पुस्तिकाएं बेची जाती थीं। अमूमन ये 10 पन्ने या उससे कम की होतीं और उनमें एक या दो लेख होते थे। समय के साथ पर्चे-पुस्तिकाओं की बिक्री द्रविड़ आंदोलन के हर आयोजन का हिस्सा बन गई। संगठन ने ढेरों लोगों को जिम्मेदारी लेने के अवसर दिए। हर गांव में एक या दो पदाधिकारी होते। बिना किसी आधिकारिक पद के भी लोग सम्मानपूर्वक तोंडर (स्वयंसेवक) कहलाते थे।

तमिल भक्ति साहित्य की परंपरा में 'तोंडर' का अर्थ 'दास' और 'थोंडु' का अर्थ 'दासता' था। 1930 के दशक में बनाए गए तमिल शब्दकोश  में दोनों शब्दों का यही अर्थ दिया गया है। लेकिन 1992 के क्री-ए मॉडर्न तमिल डिक्‍शनरी में अर्थ बदल गया: 'तोंडर' का अर्थ है 'वह व्यक्ति जो किसी राजनैतिक दल या सामाजिक संगठन में बिना मेहनताने के काम करता हो', और 'तोंडु' का अर्थ है 'कोई काम जो निःस्वार्थ भाव से, बिना किसी लाभ की अपेक्षा, सबके कल्याण के लिए किया जाए।'

यह अर्थ बदलाव द्रविड़ आंदोलन ने ही लाया था। उसे केवल भाषाई परिवर्तन नहीं माना जा सकता। द्रविड़ आंदोलन ने 'तोंडर' शब्द का अर्थ वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ जुड़ने वाला कार्यकर्ता कर दिया। इससे यह कहना आम हो गया कि 'वह आत्मसम्मान आंदोलन का तोंडर है', 'वह पेरियार तोंडर है', या 'वह द्रविड़ आंदोलन का तोंडर है।'  आज भी कुछ बुजुर्गों को 'पेरियार पेरुन-तोंडर' (पेरियार के महान स्वयंसेवक) जैसे सम्मानजनक संबोधन दिए जाते हैं। स्थानीय स्तर पर तोंडर होना, गर्व की बात मानी जाने लगी।

सिर्फ पेरियार का परिवार ही नहीं, बल्कि द्रविड़ आंदोलन के तोंडरों के परिवार भी आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल थे। मार्च 1967 में सी.एन. अन्नादुरै तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने। 1968 में उनके शासन के पहले वर्ष की उपलब्धियों को बताने के लिए उत्सव आयोजित किए गए। मेरी पत्नी का जन्म मार्च 1968 में हुआ। यह मानते हुए कि अन्नादुरै की सरकार में राज्य चमक उठा है, मेरे ससुर ने अपनी बेटी का नाम “एझिलरासु” (सुंदर/न्यायी राजा) रखा। बाद में जब वे स्कूल में दाखिल हुईं, तो प्रधनाध्यापक ने कहा कि “एझिलरासु” लड़कों का नाम होता है, और उन्होंने उसे “एझिलरासी” कर दिया। यह नाम इस बात का संकेत है कि द्रविड़ आंदोलन परिवारिक जीवन में कितनी गहराई तक पहुंच चुका था।

यहां मुझे एक व्यक्तिगत अनुभव साझा करने की जरूरत महसूस होती है। 1970 के दशक में जब मैं स्कूल में ही था, मेरे पिता ने मुझे अखबार पढ़ने की लत लगाई। वे अन्ना के कट्टर समर्थक थे। जब एमजीआर ने द्रमुक छोड़कर अन्नाद्रमुक की स्थापना की, तो मेरे पिता भी उसके साथ हो लिए। उस समय हमारे गांव में केवल एक ही घर था जहां अखबार आते थे। वह घर एक तोंडर का था, जिसने हिंदी विरोधी आंदोलन में हिस्सा लिया था और अपना पूरा जीवन द्रविड़ आंदोलन को समर्पित कर दिया था। वह घर काफी छोटा था, बस एक झोपड़ी, जिसके चारों तरफ सूखे मलंगीझावै (इंडियन ऐश ट्री) की झाड़ियों की बाड़ लगी थी। एक नीम के पेड़ के नीचे चबूतरा बैठने के लिए था। एक तरफ अखबारों का ढेर रखा होता था। वे सभी द्रमुक-समर्थित पत्र-पत्रिकाएं होती थीं, जिनमें अन्नाद्रमुक और एमजीआर की तीखी आलोचना होती। फिर भी मेरे पिता मुझे वहां जाकर पढ़ने को कहते थे। वे पढ़ नहीं सकते थे। कभी-कभी वे मेरे साथ जाते और मुझसे सुर्खियां पढ़ने को कहते। उन्हीं सुर्खियों के आधार पर वे तीखी आलोचनाएं शुरू कर देते। वहां और लोग मौजूद होते, तो गरमागरम बहसें होने लगतीं।

छोटे कस्बों और ग्रामीण केंद्रों में, उस समय चाय और नाई की दुकानें पढ़ने का केंद्र बन गई थीं। कई गांवों में द्रविड़ आंदोलन को बोलचाल में “नाई की पार्टी” भी कहा जाने लगा था। कई जगहों पर पडिप्पगम (रीडिंग रूम) मौजूद थे। छोटी-छोटी जगहें, जहां अक्सर दान की गईं पत्रिकाएं और अखबार ही मिलते थे। कोई भी वहां जा सकता था, पढ़ सकता था। ये लगभग छोटी लाइब्रेरी की तरह काम करती थी।

‘द्रविड़ आंदोलन पत्रिकाएं’ शीर्षक से तमिल में कई संकलन और अध्ययन प्रकाशित हुए हैं। इन्हें पढ़ने से पता चलता है कि 20वीं सदी में, खासकर द्रमुक के सत्ता में आने से पहले द्रविड़ आंदोलन से जुड़े लोगों ने सैकड़ों पत्रिकाएं प्रकाशित की थीं।

द्रविड़ आंदोलन में शामिल हर नेता ने किसी न किसी स्तर पर या तो कोई पत्रिका चलाई थी या संपादक के रूप में काम किया था। कपड़ाें ने भी द्रविड़ आंदोलन को आम लोगों तक पहुंचाने में बड़ी भूमिका निभाई। वेष्टि (धोती), शर्ट और गमछा, जिन्हें पहले केवल त्योहारों या पारिवारिक आयोजनों पर पहना जाता था, सामान्य दैनिक पहनावे में शामिल हो गए। पेरियार ने काली शर्ट और काला गमछा द्रविड़ आंदोलन की पहचान बना दिए। द्रमुक की स्थापना के बाद, पार्टी के झंडे के काले और लाल रंग की किनारी वाली वेष्टि और गमछे पार्टी कार्यकर्ताओं की पहचान बन गए।

करैवेट्टी (किनारी वाली वेष्टि) जैसा नया शब्द तमिल शब्दावली में शामिल हो गया। आज भी करै-वेष्टि पार्टी का एक प्रतीक बनी हुई है। नाटक, सिनेमा और आधुनिक साहित्य ने भी द्रविड़ आंदोलन के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। समृद्ध प्राचीन तमिल साहित्य से प्रेरणा लेते हुए, इस आंदोलन ने तमिल महानता और प्राचीनता के विचारों का निर्माण किया। साथ ही, विचारों के प्रसार के लिए इसने आधुनिक साहित्यिक विधाओं का भी उपयोग किया। अन्नादुरै ने कई उपन्यास, नाटक और सौ से अधिक लघुकथाएं लिखीं। इसमें द्रमुक के पूर्व प्रमुख एम. करुणानिधि का योगदान भी खास था। एस.एस. तेन्नारसु और टी.के. श्रीनिवासन जैसे लेखकों ने आधुनिक साहित्य पर व्यापक काम किया। आलोचक अक्सर इन रचनाओं को “प्रचार साहित्य” कहकर खारिज करते थे, लेकिन उसे नकारा नहीं जा सकता। इन रचनाओं ने आंदोलन को बहुत मजबूत किया।

इन लेखकों ने जो भी नाटक लिखे, व्यापक रूप से उनका मंचन हुआ। इस बहाने कई नाट्य मंडलियां उभरीं। इसमें एम. आर. राधा और एन.एस. कृष्णन जैसे प्रतिष्ठित अभिनेताओं के मंचन प्रभावशाली थे। कई लोगों ने अपनी स्वयं की नाटक कंपनियां भी चलाईं। भरतिदासन के नाटक इरानीयन अल्लथु इनैयात्र वीरन (अतुलनीय वीर) पर सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था। एम.आर. राधा ने तिरुवरूर तंगरासु की लिखी रामायण की पैरोडी नाटक कीमायनम का मंचन किया, उस पर भी प्रतिबंध लगा। प्रतिबंध की परवाह न करके उन्होंने इसे अलग-अलग शीर्षकों से इसका मंचन जारी रखा।

सिनेमा की अपार पहुंच और प्रभाव को समझते हुए आंदोलन के सदस्य गहराई से इसके साथ शामिल हो गए। अन्नादुरै और करुणानिधि की लिखी कहानियों और संवादों वाली फिल्में रिलीज की गईं। 1950 के दशक में करुणानिधि सबसे प्रतिष्ठित कहानी और संवाद लेखकों में से एक बन गए। उनकी लिखी और शिवाजी गणेशन की पहली फिल्म पराशक्ति ने बखेड़ा खड़ा कर दिया। के.आर. रामासामी, एस.एस. राजेन्द्रन और एमजीआर जैसे अभिनेताओं ने अपनी फिल्मों में द्रविड़ आंदोलन विचारों को जोरदार ढंग से उभारा। 1950 से 1970 के बीच, फिल्म उद्योग पर द्रविड़ आंदोलन का गहरा प्रभाव रहा। नायकों को उदयसूर्यन (उगता सूरज) और कतिरावन (सूर्य) जैसे नाम दिए गए। एम.आर. राधा के प्रसिद्ध नाटक रत्न कनीर पर आधारित फिल्म बनाई गई, जिसमें तर्कवादी संवादों की भरमार थी। अन्नादुरै पर एक फिल्म बनाई गई, जिसमें एमजीआर ने अभिनय किया। उसका शीर्षक रखा गया कांची तलैवन।

 द्रविड़ आंदोलन कैसे शक्तिशाली जन-आंदोलन बना इसका इतिहास लंबा और विस्तृत है। इसलिए अगर इसे समझना है, तो इससे संबंधित साहित्य को पढ़ना सबसे जरूरी है। हालांकि केवल इतना पर्याप्त नहीं है, जमीन पर जाकर इसे समझने के लिए मेहनत भी जरूरी है।

पेरुमल मुरुगन

(तमिल लेखक, विद्वान और साहित्य इतिहासकार, विचार निजी हैं)

 

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