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लोकतंत्र के सामने चुनौतियां

राजनैतिक दलों की स्वार्थपरता, अदूरदर्शिता और मूल्यहीनता के कारण बहुत अधिक उम्मीद नहीं जगती
सभी गैर-सांप्रदायिक राजनीतिक दलों को सोचना होगा कि लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक मूल्य न  बचे, तो उनका अस्तित्व बचेगा?

लोकसभा चुनाव के लिए हो रहे मतदान के चार चरण पूरे हो चुके हैं और तीन अभी बाकी हैं। चुनाव को लोकतंत्र का उत्सव कहा जाता है और यह सच भी है। इसी समय देश के सबसे गरीब और दबे-पिसे नागरिक को लगता है कि उसकी भी कोई आवाज है और उसके हाथ में भी कुछ है। वरना तो शेष पांच साल उसके हाथ में सिवाय दुख, दर्द और अभाव के कुछ नहीं होता और न ही कहीं उसकी आवाज सुनी जाती है। लोकतंत्र में जनता अपने हाथों से अपने लिए अपने ही लोगों की सरकार बनाती है, लेकिन उसके ये अपने लोग सत्ता में पहुंचते ही उसे भूल जाते हैं। वे यह भी भूल जाते हैं कि सत्ता में आने के लिए उन्होंने क्या-क्या वादे किए थे और अंततः चुनाव लोकतंत्र के उत्सवधर्मी कर्मकांड में बदल जाता है।

सभी अपने-अपने अनुमान लगा रहे हैं कि चुनाव जीतकर सत्ता में कौन आएगा? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रशंसक उनकी वापसी की ओर टकटकी लगाकर देख रहे हैं तो उनके विरोधी उनकी विदाई के इंतजार में हैं। पिछले पांच वर्षों में भारत के सामाजिक ताने-बाने और सांप्रदायिक सौहार्द्र को जिस सुनियोजित और सुव्यवस्थित ढंग से तहस-नहस किया गया है, अभिव्यक्ति की आजादी पर जिस तरह से लगातार हमले हुए हैं और मतभेदों के प्रति जिस प्रकार से असहिष्णुता में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है, उसके कारण इस बार के चुनाव परिणाम का महत्व भी बहुत बढ़ गया है। पिछले वर्षों में जो कुछ हुआ है, उसके पीछे सत्तारूढ़ राजनीतिक पार्टी और उसकी हिंदुत्ववादी विचारधारा का प्रत्यक्ष और परोक्ष, दोनों तरह का समर्थन रहा है। इसलिए चुनाव के बाद कौन-सी शक्तियां सत्ता ग्रहण करती हैं, इससे आने वाले वर्षों की रूपरेखा तय होगी।

यदि भारतीय जनता पार्टी सत्ता में नहीं लौटती, तब भी देश के सामने खड़ी चुनौतियों की गंभीरता में कमी नहीं आएगी। इस समय सबसे बड़ी समस्या है, 1980 के दशक से लेकर अब तक राजनीति और समाज के विभिन्न अंगों में जिस तरह का विष प्रविष्ट कराया गया है, उसका असर कैसे कम किया जाए और उसे किस तरह से पूरी तरह निष्प्रभावी बनाया जाए? राजनीतिक दलों की वर्तमान स्थिति और राजनीतिक वर्ग की स्वार्थपरता, अदूरदर्शिता और मूल्यहीनता के कारण बहुत अधिक उम्मीद नहीं जगती।

आजादी के बाद कांग्रेस और अन्य संस्थाओं के चरित्र में बुनियादी बदलाव आए हैं। आजादी मिलने से पहले राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन का नेतृत्व कर रही कांग्रेस का प्रभाव और कार्यक्षेत्र केवल राजनीति तक ही सीमित नहीं थे। बालक-बालिकाओं की शिक्षा, पुस्तकालय आंदोलन, समाज सुधार, साहित्य और संस्कृति से जुड़े क्षेत्र, ग्रामीण अर्थव्यवस्था- कौन-सा क्षेत्र ऐसा था जो राष्ट्रीय आंदोलन के प्रभाव से अछूता हो? लेकिन आजादी मिलने के बाद कांग्रेस ही नहीं, उसके गर्भ से निकल कर बनी पार्टियां भी लगातार राजनीतिक क्षेत्र में ही सिमटती चली गईं। इस शून्य को भारत-विभाजन के समय उत्पन्न सांप्रदायिक तनाव और उसके फलस्वरूप हुई अभूतपूर्व हिंसा की छाया में शक्ति-संचय करके मजबूत बनकर उभरे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भरा। उसने हमेशा ब्रिटिश-विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन के बुनियादी सर्वसमावेशी मूल्यों के विरोध में मुस्लिम-विरोधी हिंदू राष्ट्रवाद के सांप्रदायिक मूल्यों को खड़ा किया।

‘रामायण’ में एक कथा है कि जब रावण युद्ध में परास्त होकर अंतिम सांसें ले रहा था, तब राम ने लक्ष्मण से कहा कि अपने सब अवगुणों के बावजूद रावण अपने समय का महापंडित है। इसलिए उसके पास जाकर उससे कुछ शिक्षा लेकर आओ। इस कथा का सार यही है कि दुश्मन में भी यदि कोई अच्छा गुण हो तो उसे अपनाना चाहिए। संस्कृत में एक सूक्ति भी है जिसका अर्थ है, ‘यदि स्वर्ण नाली में पड़ा हो, तब भी स्वर्ण ही होता है और उसे नाली से निकाल लेना चाहिए।’ इस शिक्षा को संघ ने अपने कार्यकलापों में उतारा और सामाजिक-सांस्कृतिक-शैक्षिक जीवन का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं छोड़ा जहां उसकी उपस्थिति न हो। आदिवासी क्षेत्रों तक में अपनी विचारधारा फैलाने के लिए उसने अपने प्रचारक भेजे। इसके बरक्स कांग्रेस समेत देश के लगभग सभी राजनीतिक दल धीरे-धीरे अपने वैचारिक आधार को खोते चले गए और राजनीति में विचारधारा की भूमिका लगातार कम होती गई। आज क्या समाजवादी पार्टी का कोई संबंध समाजवाद से है? कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़ दें तो शायद हर पार्टी में इन दिनों अपने-आप को समाजवादी चिंतक और प्रखर नेता राममनोहर लोहिया का अनुयायी कहने वाले लोग मिल जाएंगे। लेकिन उनका लोहिया के जीवन-दर्शन, जीवन-शैली और जीवन-मूल्यों से दूर का भी रिश्ता नजर नहीं आता। कभी लोकतांत्रिक समाजवाद की बात करने वाली कांग्रेस ही इस देश में नव्य-उदारवादी आर्थिक नीतियों का सूत्रपात करने वाली पार्टी बनी। धर्मनिरपेक्षता और नागरिक स्वतंत्रताओं के मुद्दों पर भी उसका रवैया अक्सर अवसरवादी रहता है।

लेकिन हिंदुत्ववादी शक्तियों ने इस पूरे दौर में अपनी विचारधारा का अद्भुत उत्साह और लगन के साथ प्रचार-प्रसार किया है। संघ की हर क्षेत्र में उपस्थिति ने इस सांप्रदायिक और विघटनकारी विचारधारा के प्रचार-प्रसार को बेहद आसान बना दिया है। इसीलिए उसके दबाव को अक्सर कांग्रेस सत्ता में होने के बावजूद झेल नहीं पाई है और उसने उसके सामने घुटने टेके हैं। इसलिए यदि इस समय जारी लोकसभा चुनाव का नतीजा आने के बाद सत्ता परिवर्तन हुआ, तो भी इस बात की आश्वस्ति नहीं होती कि राष्ट्रीय जीवन में व्याप्त विष का कोई तोड़ सामने आ पाएगा। उसके लिए सभी गैर-सांप्रदायिक राजनीतिक दलों को अपने-अपने गिरेबान में झांकना होगा और सोचना होगा कि यदि देश में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक मूल्य ही न बचे, तो क्या उनका अपना अस्तित्व बच पाएगा?

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)

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