सबसे बड़े कॉरपोरेट समूह टाटा घराने की मिल्कियत वाले टाटा ट्रस्ट्स से मेहली मिस्त्री की विदाई हो गई। ज्यादातर ट्रस्टियों ने उनकी दोबारा नियुक्ति के खिलाफ वोट किया। इस तरह वे सर दोराब जी टाटा ट्रस्ट और रतन टाटा ट्रस्ट से बाहर कर दिए गए। इन्हीं दोनों ट्रस्टों के पास टाटा संस के 66 फीसदी शेयर हैं, जिससे टाटा समूह पर उसका नियंत्रण है। कहते हैं, मस्त्री को दोबारा लिए जाने का विरोध टाटा ट्रस्ट्स के चेयरमैन नोएल टाटा, टीवीएस ग्रुप के चेयरमैन वेणु श्रीवासन और पूर्व रक्षा सचिव विजय सिंह की ओर से आया। मिस्त्री 2022 में ट्रस्टी बनाए गए थे और उनका तीन साल का कार्यकाल 28 अक्तूबर को समाप्त हुआ। मिस्त्री के साथ रतन टाटा के खेमे के लोग हैं, जबकि नोएल टाटा का खेमा उनका विरोध कर रहा है। दरअसल विवाद भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) के सार्वजनिक निर्गम लाने के आदेश को लेकर है। सितंबर में हुई पिछली बैठक में सात ट्रस्टी इस पर बंट गए थे। मिस्त्री का खेमा सार्वजनिक निर्गम के पक्ष में है, जबकि नोएल टाटा का खेमा टाटा संस को निजी बनाए रखने के पक्ष में है।
आरबीआइ ने 2022 में टाटा संस को "उच्च-स्तरीय" कोर निवेश कंपनी या गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनी के रूप में वर्गीकृत किया था। इस तरह टाटा संस को बड़ी वित्तीय होल्डिंग कंपनी बताया गया। नतीजतन, उसके लिए 30 सितंबर, 2025 तक अनिवार्य सार्वजनिक निर्गम जारी करने और नियम-कायदों को पारदर्शी बनाना जरूरी हो गया। वह समय सीमा खत्म हो गई है।

नोएल टाटा
हालांकि टाटा संस का कहना है कि वह वित्तीय कारोबार से जुड़ा नहीं है, बल्कि औद्योगिक होल्डिंग कंपनी की तरह है। मार्च 2024 में उसने सिर्फ निवेश कंपनी के रूप में अपना पंजीकरण त्यागने की अर्जी दी थी, जो अभी भी आरबीआइ में लंबित है। केंद्रीय बैंक ने कहा है कि ऐसी संस्थाएं अपने आवेदनों की समीक्षा के दौरान अपना कामकाज जारी रख सकती हैं।
लाइसेंस वापस करने के साथ ही टाटा संस ने कर्ज मुक्त रहने का भी वादा किया। रेटिंग एजेंसी इक्रा के मुताबिक, टाटा संस का कुल ऋण मार्च 2023 में 20,642 करोड़ रुपये से घटकर 31 मार्च, 2024 तक 2,680 करोड़ रुपये हो गया है।
लेकिन मामला सिर्फ आरबीआइ का ही नहीं है। उसके छोटे शेयरधारक शापूरजी पलोनजी (एसपी) समूह के मेहली मिस्त्री ने केंद्रीय बैंक को पत्र लिखकर टाटा संस को सूचीबद्ध करने की मांग की। इसकी वजह एक तो 2016 का सत्ता संघर्ष था, दूसरे एसपी समूह का वित्तीय संकट भी है। एसपी समूह भारी कर्ज में डूबा हुआ है, जो कुछ अनुमान के मुताबिक लगभग 60,000 करोड़ रुपये का है। इस कर्ज का बड़ा हिस्सा टाटा संस में उसकी 18 प्रतिशत हिस्सेदारी के आधार पर है और उसका एक हिस्से की भरपाई हाल ही में एक निजी ऋण एजेंसी से कर्ज लेकर की गई है, जो कॉर्पोरेट ऋण से महंगा है।

मेहली मिस्त्री
दोनों पक्ष एसपी समूह को नकदी उपलब्ध कराने के लिए बातचीत कर रहे थे, जिसमें टाटा संस से पूरी तरह बाहर निकलना भी शामिल था। टाटा समूह ने कथित तौर पर 4-5 प्रतिशत हिस्सेदारी वापस खरीदने की पेशकश की है, जिससे एसपी समूह को 29,000 करोड़ रुपये मिल सकते हैं।
हाल में टाटा संस के चेयरमैन एन. चंद्रशेखरन, टाटा ट्रस्ट्स के अध्यक्ष नोएल टाटा और दो ट्रस्टियों के साथ केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन के साथ हुई बैठक में भी इस बायबैक प्रस्ताव पर चर्चा हुई थी। बैठक में सरकार से शेयरों की बायबैक में कुछ नियामक राहत देने का आग्रह किया जाना था, क्योंकि उस पर भारी पूंजीगत लाभ कर लग सकता है और टाटा संस को कर्ज उठाना पड़ सकता है। यह नहीं पता चला कि ऐसा अनुरोध किया गया या नहीं।
अभी यह भी नहीं पता चला है कि मिस्त्री की विदाई में ऐसा कोई सौदा हुआ है। फिलहाल दोनों पक्षों में कड़वाहट बढ़ने की ही खबरें हैं और मिस्त्री खेमा अब अदालत का दरवाजा खटखटाने की सोच रहा है।
कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि टाटा संस की सार्वजनिक निर्गम से बचने की कोशिश अपने प्रमोटरों के मूल लक्ष्यों को सुरक्षित रखने के लिए है। कानूनी फर्म कोचर ऐंड कंपनी के हिस्सेदार राजर्षि चक्रवर्ती ने कहा, "अगर टाटा संस सार्वजनिक हो जाता है और अपने शेयरों को सूचीबद्ध करता है, तो उसके एसोसिएशन नियमों [एओए] में बड़े बदलाव की जरूरत होगी, जिससे टाटा ट्रस्ट्स के मौजूदा अधिक अधिकार खत्म हो जाएंगे, जिसमें वीटो का अधिकार भी हैं।" उन्होंने आगे कहा कि इससे टाटा संस सेबी के नियमों के अधीन हो जाएगा, जिसके तहत एसपी समूह जैसे अपेक्षाकृत छोटे शेयरधारकों को महत्वपूर्ण निर्णयों में मतदान का अधिकार प्राप्त होगा। यानी सार्वजनिक निर्गम से टाटा समूह की होल्डिंग कंपनी टाटा संस पर ट्रस्ट्स का नियंत्रण कम हो सकता है। यही वह मुद्दा है जो मौजूदा विवाद की जड़ में है।
उन्होंने आगे कहा, "ऐसे बदलाव से टाटा ट्रस्ट्स का नियंत्रण ढीला हो सकता है और टाटा संस पर उसके एकछत्र दबदबे में अड़चन पैदा हो सकती है। लिहाजा, सार्वजनिक निर्गम से कंपनी चलाने के नियम-कायदे तेजी से बदल सकते हैं।"

निर्मला सीतारमन और अमित शाह
लेकिन सरकार के लिए जोखिम ज्यादा है। जिन नियमों के तहत टाटा संस को बाजार में सूचीबद्ध होने के लिए कहा गया है, ये नियम आइएलऐंडएफएस और डीएचएफएल संकट के बाद लाए गए थे। बुनियादी ढांचा परियोजना के लिए कर्ज देने वाली प्रमुख कंपनी आइएलऐंडएफएस ने 2018 में 90,000 करोड़ रुपये से अधिक के डूबत कर्ज में डूबी, तो उससे गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनएफएफसी) और म्यूचुअल फंडों में नकदी संकट खड़ा हो गया। तब वह कंपनी सार्वजनिक निर्गम के लिए सूचीबद्ध नहीं थी।
एक साल बाद, आवास निर्माण के लिए कर्ज मुहैया कराने वाली प्रमुख कंपनी डीएचएफएल (जिसका नया रूप अब पिरामल कैपिटल ऐंड हाउसिंग फाइनेंस है) डूबत कर्ज और शेल फर्मों के जरिए 31,000 करोड़ रुपये की हेराफेरी के आरोपों के बोझ तले दब गई।
देश की वित्तीय प्रणाली को लगे इन बड़े झटकों ने गैर-बैंकिंग क्षेत्र में गहरी दरारों को उजागर किया। उससे आरबीआइ और कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय को अधिक वित्तीय पारदर्शिता और बेहतर कामकाज के लिए बड़े निजी समूहों की निगरानी कड़ी करने को मजबूर किया।
ऋषभ गांधी ऐंड एडवोकेट्स के संस्थापक ऋषभ गांधी ने कहा, "रुझान बताते हैं कि टाटा संस अल्पावधि में गैर-सूचीबद्ध इकाई के रूप में काम करना जारी रख सकता है, लेकिन लंबी अवधि में अधिक सार्वजनिक जवाबदेही के लिए नियामक दबाव बढ़ता जाएगा।"
सुप्रीम कोर्ट का 2021 में फैसला साइरस मिस्त्री को चेयरमैन पद से हटाने के मामले में टाटा संस के पक्ष में आया, तो समूह के मौजूदा ढांचे को भी मंजूरी मिल गई। मौजूदा कार्यप्रणाली बरकरार रही, जिसके तहत टाटा संस के बहुमत के फैसले उसके बड़े हिस्सेदार टाटा ट्रस्ट्स के तीन नामित निदेशकों के जरिए होने चाहिए।
टाटा संस के एओए के तहत इन निदेशकों को 100 करोड़ रुपये से अधिक के सभी निवेश या बिक्री पर निर्णय लेने और चेयरमैन तथा बोर्ड के सदस्यों की नियुक्ति करने का अधिकार है।
सुप्रीम कोर्ट के वकील तुषार कुमार के मुताबिक, मूल रूप से ये प्रावधान समूह के परोपकारी चरित्र और निरंतरता को बनाए रखने के लिए किए गए थे, लेकिन समय के साथ ये प्रावधान विवाद का मुख्य कारण बन गए हैं। इसको लेकर ट्रस्टी एक-दूसरे के विरुद्ध खड़े हुए और देश के एक सबसे प्रतिष्ठित समूह में जवाबदेही, पारदर्शिता और नियंत्रण पर बड़े सवाल खड़े किए गए।
उन्होंने आगे कहा, "इसलिए, एओए ट्रस्टीशिप और कॉर्पोरेट कामकाज के बीच एक नाजुक संतुलन है, और उसमें किसी भी मतभेद की गूंज पूरे टाटा साम्राज्य में होती है।"
व्हाइट ऐंड ब्रीफ-एडवोकेट्स ऐंड सॉलिसिटर्स के मैनेजिंग पार्टनर नीलेश त्रिभुवन कहते हैं, "असल में धर्मार्थ उद्देश्यों और व्यावसायिक लक्ष्यों के बीच विसंगति, ट्रस्ट संचालन में पारदर्शिता की कमी और नामित निदेशकों के जरिए कथित नियंत्रण शामिल हैं, जो बोर्ड की स्वतंत्रता पर सवाल उठा सकते हैं।"
बर्गियन लॉ के वरिष्ठ पार्टनर केतन मुखीजा बताते हैं कि इसी तरह की ट्रस्ट-आधारित ढांचे, जैसे विप्रो में अजीम प्रेमजी ट्रस्ट की हिस्सेदारी दिखाती हैं कि कैसे परोपकारी संस्थाएं कॉर्पोरेट दिशा को आकार दे सकती हैं। मुखीजा ने कहा, "धर्मार्थ उद्देश्य और कॉर्पोरेट नियंत्रण का यह मिश्रण अधिक साफगोई की मांग करता है।"
टाटा संस की सूचीकरण की मांग ऐसे समय में आई, जब कंपनी अपनी आय में उतार-चढ़ाव का सामना कर रही है। कॉर्पोरेट-डेटा प्रदाता एसीई इक्विटी के आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले 10 वर्षों में टाटा संस के मुनाफे में बढ़ोतरी में काफी उतार-चढ़ाव दिखा है। कंपनी का कर-पश्चात मुनाफा (पीएटी) वित्त वर्ष 2016 के 23,121.74 करोड़ रुपये से बढ़कर वित्त वर्ष 2024 में 49,000.66 करोड़ रुपये हो गया। लेकिन वित्त वर्ष 2025 में कर-पश्चात मुनाफा 40,985.19 करोड़ रुपये रहा, जो पिछले वर्ष के मुकाबले काफी कम है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि खर्च 4,17,083.58 करोड़ रुपये से बढ़कर 5,37,618.27 करोड़ रुपये हो गया। पिछले साल, टाटा संस की कुल आय 5,92,673.56 करोड़ रुपये थी।
सार्वजनिक लिस्टिंग के साथ ही निवेशकों के लिए शेयरों को आकर्षक बनाए रखने के लिए हर तीन महीने में वृद्धि दर्शाने का दबाव भी होता है, और इस समय, टाटा समूह की कई कंपनियां मुश्किल दौर से गुजर रही हैं। देखना यह है कि टाटा संस का यह झगड़ा अब क्या शक्ल लेता है।