हारे को हरिनाम जैसी वक्रोक्ति क्या गरिमामय अतीत से भरी-पूरी देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की मौजूदा धारासार बैठकों का कोई आईना है? या ये बैठकें यह बता रही हैं कि पार्टी हाल के पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर के चुनावों में लगभग सफाए से नए सिरे से जगी है; अब वह हर सबक को गांठ बांधकर अपनी पूरी ताकत बटोरने और नई लामबंदी में जुट गई है, ताकि ‘देइहौंव उत्तर जो रिपु चढि़ आवा’ के संकल्प के साथ आखिरी लड़ाई में जीत का मंत्र हासिल कर सके। चुनावी नतीजों की समीक्षा के लिए 13 मार्च को कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में अध्यक्ष सोनिया गांधी के कहे में तो कोई वजूद बचाने के लिए आखिरी दांव तक चलने की कसक सूंघ सकता है। उन्होंने कहा, “हम तीनों (वे और राहुल तथा प्रियंका गांधी) के हटने से अगर पार्टी की हालत सुधरती है तो यह बलिदान करने को हम तैयार हैं। हमारे लिए पार्टी सबसे पहले है।” लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या इससे पार्टी जी उठेगी? क्या पार्टी के किसी और नेता की देशभर में अपील या पार्टी नेताओं-कार्यकर्ताओं में स्वीकार्यता है, जो उसे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की चुनावी ताकत से बढ़कर मोर्चेबंदी के लिए तैयार कर सकेगा? या क्या समाधान की राह कांग्रेस से टूटे क्षत्रपों और क्षेत्रीय पार्टियों को समेटकर कुनबा बड़ा करने से मिलेगी? या फिर ऐसे नए युवाओं की नई फौज तैयार करनी होगी, जो भाजपा और संघ परिवार से आमने-सामने टकराने की कूव्वत रखती हो, जैसा कि राहुल गांधी और प्रियंका की कोशिशों से लगता है? और, क्या ऐसे युवाओं का हरावल दस्ता तैयार करने की क्षमता और मौका है? ये सारे सवाल बस यही इशारा करते हैं कि संकट कितना गहरा है और ऐसा दोराहा सामने है, जिसके दोनों ओर रोशनी मद्धिम है।
शायद यह संयोग ही है कि तकरीबन दो दशक पहले 1998 में 14 मार्च को पार्टी को बिखरने से बचाने के लिए सोनिया ने अध्यक्ष पद संभाला था। वे कामयाब भी हुईं और 2004 से लगातार दशक भर पार्टी को नई बुलंदी पर ले गईं। 2009 के चुनावों में तो राहुल गांधी के प्रति क्रेज भी काफी था और खासकर उत्तर प्रदेश में 22 सीटें जीतकर पार्टी ने हिंदी हृदय प्रदेश में अपनी खोई जमीन वापस पाने का जज्बा भी दिखाया था। तब युवाओं में अपील ऐसी थी कि लोकसभा चुनाव के नतीजों के ठीक पहले एनडीए की पहली सरकार में विदेश राज्यमंत्री रहे, जदयू के नेता दिवंगत दिग्विजय सिंह ने एक टीवी डिबेट में कहा था कि भाजपा नेताओं के लड़के-लड़कियां भी राहुल-राहुल बोल रहे हैं।
उस समय सोनिया की टोली में ज्यादातर राजीव गांधी के दौर के मजबूत नेता थे तो राहुल के साथ पुराने कांग्रेसी नेताओं के वारिसों की टोली उभर रही थी। लेकिन तब राहुल ने पद की लालसा से वैसी ही विरक्ति जाहिर की, जैसी उनकी मां ने 2004 में प्रधानमंत्री का पद और उससे भी पहले राजीव गांधी की हत्या के बाद सात साल तक कांग्रेस की कमान संभालने का आग्रह ठुकरा कर त्यागमूर्ति की प्रतिष्ठा हासिल की थी। राहुल ने 2013 में पार्टी उपाध्यक्ष बनाए जाने के वक्त भी जयपुर कांग्रेस अधिवेशन में कहा था कि “सत्ता जहर है।” लेकिन 2014 में पार्टी जब लोकसभा में अपने इतिहास में सबसे कम सीटों 44 पर सिमट गई तो हालात एकदम से बदल गए।
विधानसभा चुनावों के बाद राहुल-प्रियंका दोनों के नेतृत्व पर सवाल उठे
हालांकि उसके बाद भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली सरकार पर राहुल ने ‘सूट-बूट की सरकार’ कहकर हमला बोला तो वह देश भर में चर्चा का विषय बन गया। वे 2015 में गणतंत्र दिवस पर मोदी के पहने नाम लिखे सूट का हवाला दे रहे थे। यही नहीं, मोदी सरकार के जमीन अधिग्रहण कानून में संशोधन के लिए लाए एक के बाद एक तीन अध्यादेशों के खिलाफ किसान आंदोलन ने भी माहौल बनाया और खासकर मध्य प्रदेश के मंदसौर में किसानों पर पुलिस के गोली चलाने के खिलाफ कांग्रेस और राहुल की सक्रियता से भी एक सियासी माहौल तैयार हुआ। बाद में पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और एक हद तक कर्नाटक में भी कांग्रेस की सत्ता में वापसी में उसका खासा योगदान रहा। 2018 में गुजरात में भी कांग्रेस 80 सीटों के साथ सत्ता के बिलकुल करीब पहुंच गई थी, जिसमें पाटीदार आंदोलन से उभरे हार्दिक पटेल, दलित अत्याचारों के खिलाफ मुहिम से उभरे जिग्नेश मेवाणी और पिछड़ी क्षत्रिय जाति के आंदोलन से उभरे अल्पेश ठाकोर जैसे युवा नेताओं को जोड़ने की राहुल की रणनीति भी कारगर हुई। बाद में अल्पेश भाजपा में चले गए। लेकिन हार्दिक और जिग्नेश अब पूरी तरह कांग्रेस में आ गए हैं।
इसी के साथ राहुल ने 2018 में अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभाल ली। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद हालात बदल गए। पार्टी 44 से सिर्फ 53 लोकसभा सीटों तक ही पहुंच पाई। न सिर्फ राहुल खुद अमेठी से चुनाव हार गए, बल्कि उनकी टोली के ज्यादातर युवा नेता चुनाव हार गए और ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, आर.पी.एन. सिंह जैसे उनके कई सिपहसालार भाजपा की ओर मुड़ गए। इसी के साथ गांधी परिवार की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाने का सिलसिला तेज हुआ। हालांकि उसके पहले भी कहा जाने लगा था कि गांधी परिवार अपनी चमक खो रहा है, मगर तब न जी-23 जैसा वरिष्ठ असंतुष्ट नेताओं का समूह उभरा था और न दूसरे नेता सवाल उठा रहे थे। अब स्थिति उलटी है।
अब पार्टी के भीतर ही नहीं, बाहर भी यह तीखी बहस छिड़ गई है कि पार्टी को देश के राजनैतिक फलक पर सफाए से बचाने के लिए गांधी परिवार को नेपथ्य में चले जाना चाहिए। पिछले दो लोकसभा चुनावों में कांग्रेस 543 सदस्यों के सदन में दहाई के आंकड़े से आगे नहीं जा सकी। उसके शासन वाले राज्य 2014 में 13 से घटकर महज चार रह गए हैं। हाल में पंजाब को गंवाने के बाद राजस्थान और छत्तीसगढ़ में ही अपने दम उसकी सरकार है। महाराष्ट्र और झारखंड की गठबंधन सरकारों में वह जूनियर पार्टनर है।
हालिया कार्यकारिणी की बैठक में जी-23 या कुछ नेताओं के हटने के बाद जी-18 गुट के मुखर नेताओं के अलावा पार्टी के कई दिग्गज नेता भी आधिकारिक पदों से या असल मुखिया के तौर पर राहुल और प्रियंका को पार्टी चलाने देने को लेकर सशंकित दिखे। उसमें सोनिया को सितंबर में तय संगठन चुनावों तक अध्यक्ष बने रहने पर रजामंदी जाहिर की गई, लेकिन यह सिर्फ उन्हीं तक सीमित है। राहुल और प्रियंका के तौर-तरीकों पर परोक्ष सवाल भी तीखे ढंग से रखे गए। असंतुष्ट खेमे के अघोषित मुखिया गुलाम नबी आजाद ने पंजाब में हार के संदर्भ में कहा कि कैप्टन अमरिंदर सिंह को चुनाव के नजदीक इस तरह नहीं हटाया गया होता तो शायद बेहतर नतीजे आ सकते थे। इस पर सोनिया ने कहा कि मैं कैप्टन को छोड़ना नहीं चाहती थी। जाहिर है, यह राहुल और प्रियंका की कार्यशैली पर ही सवाल था। कहते हैं, नवजोत सिंह सिद्घू को प्रदेश अध्यक्ष प्रियंका और ऐन चुनाव के पहले चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला राहुल का था। नतीजाः पंजाब की कुल 117 सीटों में से पार्टी 2017 के 77 सीटों से सिमटकर 18 पर रह गई। प्रियंका ने उत्तर प्रदेश में बतौर प्रभारी महासचिव अपनी सक्रियता से सुर्खियां तो बटोरी मगर पार्टी दो सीटों और 2.5 प्रतिशत वोट तक सिमट गई।
दरअसल, 2014 के बाद से ही राहुल गांधी और कई दिग्गज नेताओं के बीच खाई चौड़ी होती गई है। 2019 में लोकसभा चुनावों में पार्टी की हार की जिम्मेदारी लेकर इस्तीफा देते वक्त उन्होंने कई नेताओं की खुलकर आलोचना की थी। उन्होंने कहा था, “नरेंद्र मोदी, भाजपा और संघ परिवार के खिलाफ ये नेता खुलकर बोलने को तैयार नहीं हुए, जिसका खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा।” जब कई नेता पार्टी छोड़कर भाजपा की ओर गए तो युवा कांग्रेस के एक सम्मेलन में उन्होंने कहा, “जो मोदी और संघ परिवार से डरते हैं, वे कांग्रेस छोड़कर चले जाएं।”
हालांकि उनकी आलोचना करने वालों का दावा है कि वे किसी से न मिलते हैं, न सलाह लेते हैं, मनमाने फैसले करते हैं। उनका यह भी कहना है कि वे मुट्ठी भर अनुभवहीन पसंदीदा लोगों या पत्रकारों और एनजीओ टाइप लोगों से घिरे रहते हैं और उन्हीं पर भरोसा करते हैं। उनके चुनिंदा लोगों की नाकामियों से भी हताशा बढ़ी है। पिछले दो साल में राहुल ने चुनाव अभियान की देख-रेख के लिए रणदीप सिंह सुरजेवाला को बिहार, अजय माकन को पंजाब और जयराम रमेश को मणिपुर भेजा। उन्होंने अपने तीन कृपापात्रों जितेंद्र सिंह (असम), देवेंद्र यादव (उत्तराखंड) और हरीश चौधरी (पंजाब) को राज्य प्रभारी भी बनाया। कांग्रेस इन सभी राज्यों में हार गई।
जब कांग्रेस 2021 में चार राज्यों में हारी तो हार के कारणों की समीक्षा के लिए पांच सदस्यों की कमेटी बनाई गई थी। उसमें असंतुष्ट गुट से जुड़े, पंजाब के लुधियाना से सांसद मनीष तिवारी भी थे। हाल में तिवारी ने कहा कि रिपोर्ट पर अब तक कोई बात नहीं की गई। इसी तरह 2014 के बाद पार्टी की हार के सिलसिले पर ए.के. एंटनी की अगुआई में बनी समीक्षा समिति की रिपोर्ट पर भी कभी चर्चा नहीं की गई। हालांकि राहुल के खेमे के सूत्रों का कहना है कि इन्हीं सिफारिशों की बदौलत पिछले पांच विधानसभा चुनावों में उम्मीदवारों के चयन के लिए स्क्रीनिंग कमेटियां बनाई गईं और उम्मीदवारों के नाम तय किए गए। लेकिन उम्मीदवारों का हश्र क्या हुआ, यह नतीजों में दिखा। उत्तर प्रदेश में हाल के चुनावों में प्रियंका की टीम के चुने कुछ उम्मीदवारों के बारे में सुर्खियां तो बनीं, लेकिन पार्टी के प्रदेश नेताओं की नाराजगी भी उभरी। आम शिकायत यह थी कि प्रियंका के साथ कुछेक जेएनयू के पूर्व छात्र थे जो किसी की बात सुनने को तैयार ही नहीं थे। कहते हैं खास सर्वेक्षण के बाद उम्मीदवार चुने गए थे, मगर शिकायत यह है कि सर्वेक्षण करने वाले राज्य की जमीनी सच्चाई से पूरी तरह नावाकिफ थे।
अपने को लगातार दरकिनार किए जाने से परेशान, खासकर जी-23 के नेताओं ने अगस्त 2020 में सोनिया को चिट्ठी लिखकर अपनी नाराजगी जाहिर की थी। नौ सदस्यों के रुखसत होने और चार नए सदस्यों के प्रवेश के साथ अब जी-18 रह गए असंतुष्ट गुट ने कार्यकारिणी की बैठक में संगठन के चुनाव और जवाबदेह नेतृत्व की अपनी मांग फिर दोहराई। कपिल सिब्बल ने कहा कि गांधी परिवार को नेतृत्व से अलग हो जाना चाहिए। उन्होंने एक इंटरव्यू में कह दिया कि “घर की कांग्रेस और बाहर की कांग्रेस” बन गई है। लेकिन असंतुष्ट गुट से बाहर के वरिष्ठ नेता भी राहुल की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठा रहे हैं। इनमें पी.जे. कुरियन जैसे केरल के नेता भी हैं, जहां से राहुल अब सांसद हैं। पिछले चुनावों में केरल में पार्टी की हार के लिए भी राहुल को इसलिए दोष दिया जा रहा है क्योंकि वे पार्टी को एकजुट नहीं कर पाए।
राहुल के सुलभ न होने का मुद्दा असंतुष्ट गुट से इतर दिग्विजय सिंह, मुकुल वासनिक और पूर्व केंद्रीय मंत्री के.एच. मुनियप्पा सरीखे बड़े नेताओं ने भी कार्यकारिणी की बैठक में उठाया। ये तेवर सितंबर में कांग्रेस अध्यक्ष पद पर राहुल की वापसी के खिलाफ जा सकते हैं। सांगठनिक चुनाव पार्टी की केंद्रीय चुनाव समिति देख-रेख में होने हैं, जिसके प्रमुख राहुल के करीबी मधुसूदन मिस्त्री हैं। कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव 10,000 से ज्यादा प्रदेश कांग्रेस प्रतिनिधि करेंगे, जिनका चुनाव ब्लॉक प्रमुख करते हैं। ये प्रतिनिधि करीब 1400 अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्यों का चुनाव करते हैं, और वे ही कार्यकारिणी सदस्यों को चुनते हैं।
सुनने में यह प्रक्रिया वाकई लोकतांत्रिक लगती है, लेकिन यह कैसे काम करती है, यह अलग सवाल है। गौरतलब यह भी है कि लगभग आधी सदी से कार्यकारिणी के चुनाव सिर्फ दो बार तब हुए, जब अध्यक्ष पद पर गैर-गांधी नेता काबिज था। 1992 में पी.वी. नरसिंह राव और 1997 में सीताराम केसरी ने अपने अध्यक्ष कार्यकाल में कार्यकारिणी के चुनाव कराए थे। 1998 में कांग्रेस अध्यक्ष पद पर सोनिया गांधी के काबिज होने के बाद से हमेशा वे कार्यकारिणी के सदस्यों को नामांकित ही करती रही हैं। आखिरी बार उन्होंने 2020 में जी-23 नेताओं की चिट्ठी के बाद कार्यकारिणी के सदस्यों को नामांकित किया था।
यही वजह है कि असंतुष्ट गुट का असली मकसद शायद यह है कि कार्यकारिणी वाकई चुनाव के जरिए चुनी जाए और राहुल विरोधी नेताओं को दरकिनार न कर दिया जाए। असल में निर्वाचित कार्यकारिणी के सदस्य चाहें तो अध्यक्ष के फैसले पर सवाल खड़ा कर सकते हैं। पिछले दिनों सोनिया ने सामूहिक नेतृत्व की मांग के जवाब में छह सदस्यों की एक समिति भी बनाई और मुकुल वासनिक को उसमें सदस्य के तौर पर शामिल किया। वासनिक ने तभी से बागियों से दूरी बना ली। हालांकि कई नेता कहते हैं कि छह सदस्यीय समिति की दो साल में कोई बैठक ही नहीं हुई।
उधर, परिवार के करीबी और खासकर राहुल-प्रियंका से जुड़े नेताओं का कहना है कि जी-23 या जी-18 के नेताओं की असली चिंता राज्यसभा में अपनी सीट पक्की रखने की है। आजाद पिछले साल राज्यसभा से रिटायर हो गए, जबकि आनंद शर्मा, सिब्बल और विवेक तन्खा जुलाई तक रिटायर हो रहे हैं और वे शायद ही फिर चुन कर आ पाएं। आजाद 1984 से लोकसभा का चुनाव नहीं लड़े, शर्मा तो कभी लोकसभा के चुनाव में उतरे ही नहीं। सिब्बल और तन्खा कई बार हार चुके हैं। मणिशंकर अय्यर 2014 में जमानत गंवा बैठे और शंकर सिंह वाघेला अब कांग्रेस के सदस्य तक नहीं हैं।
हालांकि असंतुष्टों में कई जनाधार वाले भी हैं। शशि थरूर लगातार तीन बार लोकसभा का चुनाव जीत चुके हैं। तिवारी दो बार से लोकसभा सांसद हैं। हरियाणा की राजनीति के दिग्गज नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा राज्य विधानसभा में विपक्ष के नेता हैं। अगर अध्यक्ष पद के लिए चुनाव होता है तो ये नेता चुने तो जा सकते हैं, लेकिन उन्हें कांग्रेस के मजबूत जनाधार वाले कुछ क्षत्रपों राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल तथा टी.एस. सिंहदेव, मध्य प्रदेश के दिग्गज कमलनाथ और दिग्विजय सिंह सरीखे नेताओं के सहयोग की दरकार होगी। गहलोत और बघेल मजबूती से गांधी परिवार के पीछे खड़े रहे हैं, तो कमलनाथ और दिग्विजय का ध्यान मध्य प्रदेश दोबारा जीतने पर है।
हालांकि हाल में कार्यकारिणी की बैठक के बाद सोनिया कुछ असंतुष्ट नेताओं से मिली हैं। पहले आजाद के साथ और फिर शर्मा, तिवारी, तन्खा के साथ। ये बैठकें राहुल की हुड्डा से मुलाकात के बाद हुई हैं। इससे क्या निकलता है, यह तो देखना है। लेकिन एक सलाह शिद्दत से यह भी उभर रही है कि कांग्रेस अपने से बिछड़े राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, तेलंगाना राष्ट्र समिति और वाइएसआर कांग्रेस जैसे क्षेत्रीय दलों को अपने पाले में लाने की कोशिश करे या कम से कम उनसे रिश्ते सुधारे तो उसका कुनबा भी बढ़ेगा और नेतृत्व का सवाल भी सधेगा। जाहिर है, शरद पवार, ममता बनर्जी, के. चंद्रशेखर राव, जगनमोहन रेड्डी ने अपने-अपने राज्य में मजबूत आधार कायम किए हैं।
लेकिन इसमें पेच कई हैं। हाल में चुनाव विशेषज्ञ प्रशांत किशोर की कांग्रेस नेतृत्व के साथ फिर बैठकें शुरू होने की खबरें हैं। कहते हैं, इसी साल नवंबर-दिसंबर में होने वाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों में उनकी मदद ली जाएगी। अब देखना है कि कांग्रेस इन सलाहों पर गौर करती है, अपना घर एकजुट करती है या राहुल के रास्ते पर नई नौजवान पार्टी खड़ा करने की दिशा में बढ़ती है।