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23 जून 2025 · JUN 23 , 2025

आवरण कथा/भारत-अमेरिका रिश्तेः ट्रम्प बाजीगरी का जाला

पहलगाम आतंकी हमले और ऑपरेशन सिंदूर के बाद बदले माहौल और अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प पर बाहर और घर में बढ़ते दबाव के मद्देनजर भारत-अमेरिका रिश्तों की नई राह पर सबकी नजर, इसलिए भी कि 2 जुलाई से ट्रम्प की कथित टैरिफ नीति होगी लागू
ट्रम्प की बाजीगरी

अचानक दुनिया इतनी बदल जाएगी, यह सोच पाना भी मुश्किल लगता है। पहलगाम में आतंकी हमले और ऑपरेशन सिंदूर के बाद स्थितियां नई करवट बदल ही रही थीं कि 1 जून को यूक्रेन ने रूस में ड्रोन हमले से कथित तौर पर 40 लड़ाकू विमान गिरा दिए और यूक्रेन-रूस का मोर्चा भयावह हो गया। अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की टैरिफ नीति पर अदालती अंकुश लगा तो उनकी सरकार को हलफनामे में भारत-पाकिस्तान के बीच एटमी युद्घ रुकवाने की दलील देनी पड़ी। टैरिफ पर दुनिया भर में फंसे ट्रम्प को अमेरिका के भीतर से भी कई तरह के विरोध का सामना करना पड़ रहा है। पता नहीं, इन सबका एलॉन मस्क से राहें जुदा करने का कोई रिश्ता है या नहीं, मगर यह तो पता चलता ही है कि ट्रम्प के हाथ से स्थितियां फिसल रही हैं। इस बीच, कनाडा में दुनिया के अमीर देशों अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, इटली, जापान, कनाडा  की पंचायत जी-7 देशों के शिखर सम्मेलन में भारत को अभी तक बुलावा न आना भी पश्चिमी दुनिया के रुख का संकेत दे रहा है, जो 2019 से हर साल आया करता था। 2 जुलाई को ट्रम्प की घोषित नई टैरिफ नीति अमल में आने की 2 अप्रैल को दी गई 90 दिन छूट की अवधि पूरी हो रही है। भारत उसके पहले द्विपक्षीय व्यापार वार्ता को अंतिम रूप देने की कोशिश भी कर रहा है, ताकि कुछ राहत रहे। लेकिन अनिश्चितता का आलम और दुनिया की बदलती तस्वीर ऐसी है कि लगभग एक महीने की अवधि में कुछ भी हो सकता है। ऐसे में भारत-अमेरिका रिश्तों की बुनावट अब कैसी होगी, अभी कयास लगाना भी मुश्किल लगता है।

अधर मेंः मुंबई में एप्पल स्टोर

अधर मेंः मुंबई में एप्पल स्टोर

मुश्किल यह भी है कि दुनिया ऐसे मुकाम पर आ खड़ी हुई है और देश ने अमेरिका की ओर झुकाव की नीति इस कदर अपना ली है कि राहें निरंतर मुश्किल होती गई हैं। पहले मोटे तौर पर हमारी विदेश नीति स्वतंत्र हुआ करती थी। शीत युद्घ के दौर के बाद गुटनिरपेक्ष नीति टूटी, तो नब्बे के दशक के बाद अमेरिका की ओर झुकाव बढ़ने लगा, जो पिछले दशक में चरम पर पहुंच गया। यहां तक कि अमेरिका में पिछली जो बाइडन सरकार के वक्त भी, यूक्रेन-रूस युद्घ के दौर में हमने रूस से संबंध बनाए रखा और सस्ते में तेल खरीदा। ब्रिक्स देशों के शिखर सम्मेलन में भी अमेरिका के डॉलर के मुकाबले अंतरराष्ट्रीय व्यापार देशों की आपसी मुद्राओं में करने की योजना बनी। लेकिन इस साल ट्रम्प के राष्ट्रपति बनते ही सबसे कमजोर कड़ी भारत ही साबित हुआ। ट्रम्प ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फरवरी में दौरे के दौरान ही ब्रिक्स को बेमानी बता दिया था। इसके अलावा टैरिफ पर ट्रम्प के तीखे बयानों के बावजूद भारत की ओर से कोई प्रतिक्रिया मुश्किल से ही जाहिर की गई। यही नहीं, इस साल बजट में अमेरिकी वाहनों खासकर हॉर्ले डेविडसन वगैरह पर आयात शुल्क तीन-चौथाई घटाने का ऐलान करके सकारात्मक संकेत देने की ही कोशिश की गई। ट्रम्प बार-बार भारत को टैरिफ के मामले में सबसे बुरे देशों में गिनते रहे। फिर भी बातें आगे बढ़ती रहीं।

हाथ में कितनी गर्मीः फरवरी में ह्वाइट हाउस में प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति ट्रम्प

हाथ में कितनी गर्मीः फरवरी में ह्वाइट हाउस में प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति ट्रम्प

भारत की नीति ट्रम्प से भिड़ने के बदले सौदेबाजी और व्यापारिक रिश्तों पर जोर देने की रही। पहलगाम की घटना के वक्त तो अमेरिका के उप-राष्ट्रपति जे.डी. वांस दिल्ली में ही थे, तब आतंकवादी हमले की सारी दुनिया में निंदा हुई और भारत के प्रति हमदर्दी दिखाई जाने लगी। लेकिन ऑपरेशन सिंदूर से जैसे बहुत कुछ बदल गया। लड़ाई के महज चार दिनों बाद संघर्ष विराम हुआ तो ट्रम्प ने उसका श्रेय लेने की इतनी जल्दी दिखाई कि दोनों देशों से पहले ही ऐलान कर बैठे। ट्रम्प ही नहीं, वांस और उनके विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने भी जैसे तय कर रखा था कि दोनों देश ऐलान करें, उसके पहले यह रुक्का दाग दिया जाए कि हमने कराया है, वरना ऐसी न्यूक्लीयर तबाही मचती जिसका अंदाजा भी मुश्किल था। और भी बहुत कुछ हुआ, जो भारत को नागवार गुजरा। ट्रम्प या अमेरिका ने आतंकवाद का नाम नहीं लिया और पाकिस्तान को बराबर तवज्जो देते रहे, उसके नेताओं को महान बताते रहे। कश्मीर के मुद्दे में मध्यस्‍थता की बातें करते रहे। अब तक वे शायद 11वीं बार यह सब दोहरा चुके हैं। हालांकि भारतीय नेतृत्व ने खुलकर कभी खंडन नहीं किया। हमारे सैन्य नेतृत्व की तरफ से जरूर यह कहा गया कि लक्ष्य पूरा हो गया इसलिए संघर्ष-विराम हुआ और एटमी कार्रवाई का तो दूर-दूर तक अंदेशा नहीं था (देखें, चूक, चोट और विराम)। इससे हालात बदले मगर उससे ज्यादा तेजी से दुनिया के घटनाक्रम बदल गए।

बदली भू-राजनीति

हालांकि अमेरिका और खासकर पश्चिमी दुनिया के रुख में यह परिवर्तन चौंकाने वाला था। कहीं से पाकिस्तान को सीधे दोषी ठहराने की आवाज खुलकर नहीं उठी। इसके पहले पश्चिमी दुनिया आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होकर लड़ने की बात करती रही है। अमेरिका और ट्रम्प के बारे में तो एक राय यह उभरी कि अपने दावे के विपरीत ट्रम्प गाजा और यूक्रेन के युद्घ नहीं रुकवा सके तो भारत-पाकिस्तान के संघर्ष में अपनी पीठ खुद थपथपाने का मौका मिल गया गया। लेकिन मामला इतने भर का ही नहीं लगता, क्योंकि ऐन ऑपरेशन सिंदूर के बीच ही 9 मई को आइएमएफ की बैठक में पाकिस्तान को 2.4 अरब डॉलर की मदद को मंजूरी मिल गई, जो बिना अमेरिका की रजामंदी के नहीं मिल सकती थी, क्योंकि आइएमएफ में उसकी हिस्सेदारी 17 फीसदी तक हैं। फिर 24 सदस्य देशों में सिर्फ भारत ही बैठक से बाहर निकल आया। यानी भू-राजनीति बदल रही थी। जो अमेरिका हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के बरक्स भारत को खड़ा करने की पहल का हिमायती था, अचानक चीन से समझौता करने लगा।

ट्रम्प खुद फंसे

उधर, ट्रम्प अपने देश में फंसे दिखने लगे। सो, अमेरिका में बदले हालात और वैश्विक व्यापार नीति में अस्थिरता के संकेतों से भारत-अमेरिका व्यापार संबंधों की संभावनाओं पर भी नई बहस छिड़ गई है। दुनिया भर में टैरिफ पर घिरे ट्रंप को अपने कारोबारी मित्र तथा सरकार के लिए सहयोगी डिपार्टमेंट ऑफ गर्वनमेंट एफिशिएंसी (डोज) के प्रमुख एलॉन मस्क को हटाना पड़ा या वे हट गए। इससे अमेरिका के सत्ता-प्रतिष्ठान के नजरिए में बदलाव के भी संकेत हैं। वैसे, इसे ट्रम्प के नए पैंतरे की तरह भी देखा जा रहा है। ट्रम्प के सहयोगियों में मस्क भी बराबरी या ज्यादा टैरिफ लगाने के हिमायती रहे हैं, जिससे दुनिया के कई देशों से व्यापार संबंधों में खटास पैदा हुई। दूसरे, प्रशासनिक खर्चों में कटौती, लोकल टैक्स में बदलाव और अमेरिका में प्रवासियों को उनके मूल देशों में भेजने के लिए राशि पर 3.5 प्रतिशत रेमिटेंस शुल्क लगाने जैसे मस्क की सलाह पर लिए गए फैसलों से ट्रम्प की अमेरिका में भी खासी आलोचना हो रही है। हालांकि भारत से व्यापारिक संबंधों के बारे में ट्रंप ने 30 मई को कहा कि अमेरिका और भारत के बीच महत्वपूर्ण व्यापार समझौता बेहद करीब है। लेकिन खाड़ी देशों की यात्रा के वक्त ट्रम्प ने एप्पल के सीईओ टिम कुक को चेताया कि “अमेरिका में बिकने वाले आइफोन अमेरिका में ही बनाओ, भारत या कियी अन्य देश में नहीं।” ट्रम्प ने भारत में बने आइफोन पर 25 फीसदी टैरिफ लगाने की भी धमकी दे डाली।

वाइट हाउस में विदेश मंत्री जयशंकर

वाइट हाउस में विदेश मंत्री जयशंकर

लेकिन अमेरिका में आयात पर ज्यादा टैरिफ लगाने के मामले में न्यूयॉर्क के यूएस कोर्ट ऑफ इंटरनेशनल ट्रेड ने 30 मई को आंशिक रोक लगाने के आदेश दे दिए। इसी मामले में अमेरिका के वाणिज्य विभाग ने हलफनामे में टैरिफ और ट्रेड का इस्तेमाल करके भारत-पाकिस्तान के बीच न्यूक्लीयर संघर्ष रुकवाने की बात कही और मांग की है कि टैरिफ नीति से छेड़छाड़ न की जाए। हालांकि 31 मई को ही स्टील और एल्यूमीनियम पर टैरिफ 25 फीसदी से बढ़ाकर 50 फीसदी करने का ऐलान कर दिया गया। इससे भारत का अमेरिका में स्टील और एल्यूमीनियम का सालाना 456 अरब डॉलर यानी करीब 40,000 करोड़ रुपए का निर्यात प्रभावित होने की आशंका है।   

भारत की पहल

इन उलझनों और अमेरिकी नेतृत्व के संकट के बीच 5-6 जून को एक उच्चस्तरीय अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल भारत दौरे पर आ रहा है। इससे दोनों देशों के व्यापार संबंधों में नए समीकरण साधने की उम्मीद की जा रही है। केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल इस प्रतिनिधिमंडल से मुलाकात की तैयारी में जुटे हैं। वे कुछ समय पहले तक कई हफ्ते अमेरिका थे और वहां वाणिज्य विभाग और संबंधित विभागों के अधिकारियों से बातचीत करते रहे। उनकी कोशिश है कि दोनों देशों के बीच ‘ट्रेड ऐंड इन्वेस्टमेंट फ्रेमवर्क एग्रीमेंट’ नए सिरे से हो जाए, ताकि 2  जुलाई से लागू होने वाले 26 फीसदी टैरिफ की मार से बचा जा सके। पीयूष गोयल का कहना है, “हम अमेरिका के साथ निष्पक्ष व्यापार व्यवस्था चाहते हैं, जो आयात-निर्यात तक सीमित न रहे, बल्कि टेक्नोलॉजी ट्रांसफर और निवेश के जरिए भारत की मैन्युफैक्चरिंग क्षमताओं को भी मजबूत करे। अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल से बातचीत इसी दिशा में एक बड़ा कदम साबित होगी।”

वाइट हाउस में वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल

उधर, टेस्ला और स्पेसएक्स के मालिक मस्क की व्हाइट हाउस से विदाई से अमेरिकी तकनीकी निवेश और ग्लोबल टेक पॉलिसी प्रभावित होने के संकेत हैं। इसका सीधा असर अमेरिका की विदेश नीति और विशेषकर टेक्नोलॉजी आधारित व्यापार समझौतों पर पड़ सकता है। भारत में मस्क इलेक्ट्रिक व्हीकल, सौर ऊर्जा, अंतरिक्ष टेक्नोलॉजी में निवेश की इच्छा जता चुके हैं। प्रधानमंत्री मोदी फरवरी में अमेरिका दौरे के वक्त मस्क से विशेष रूप से मिले थे। अमेरिकी प्रशासन में मस्क की भूमिका बदलने से भारत में ऐसी निवेश योजनाओं पर ग्रहण लग सकता है।

द्विपक्षीय व्यापार

बेशक, भारत का जोर द्विपक्षीय व्यापार बढ़ाने और निवेश पर होगा। ‌फिलहाल, वाणिज्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, वित्त वर्ष 2024-25 में भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय व्यापार 131.84 अरब डॉलर तक पहुंचा, जिसमें भारत ने अमेरिका को 86.51 अरब डॉलर का निर्यात किया, और 45.33 अरब डॉलर का आयात किया। ‌द्विपक्षीय व्यापार समझौते (बीटीए) के तहत ‘मिशन 500’ में दोनों देशों के बीच दोतरफा व्यापार वर्ष 2030 तक 500 अरब डॉलर तक ले जाने का लक्ष्य है। भारत अमेरिका को इंजीनियरिंग उत्पाद, रत्न तथा आभूषण, फार्मास्यूटिकल, ऑर्गेनिक केमिकल, कपड़ा और परिधान निर्यात करता है। भारत में अमेरिका से आयातित वस्तुओं में उच्च तकनीक मशीनरी, एविएशन पार्ट्स, मेडिकल उपकरण, तेल और गैस उपकरण और कृषि उत्पादों में बादाम और सेब प्रमुख हैं। अगले पांच बरस में दोनों देशों के बीच 500 अरब डॉलर के दोतरफा व्यापार में अमेरिका का भारत को हथियार बेचने का छुपा एजेंडा शामिल हो सकता है। अमेरिका अपने अत्याधुनिक जेट विमान एफ-35 बेचने पर आमदा दिखता है, जिसे मस्क ही फालतू बता चुके हैं और यह राफेल से भी महंगा है। मोदी के दौरे के वक्त ही ट्रम्प ने कहा था कि भारत एफ-35 खरीदने को तैयार है, हालांकि भारत की ओर से ऐसा कुछ नहीं कहा गया। लेकिन हाल में पाकिस्तान के साथ झड़प में राफेल गिरने की अपुष्ट खबरों के बाद अमेरिका का जोर एफ-35 सौदे पर हो सकता है। इसलिए नई साझेदारी क्या बनती है, यह देखने वाली बात होगी। असल चुनौती यह होगी कि भारत अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल के साथ व्यापार वार्ता में अपने निर्यात पर 26 फीसदी टैरिफ के दबाव को कितना कम करवा पाता है और भारत के टेक्नोलॉजी और रक्षा क्षेत्रों में अमेरिकी निवेश को कितना और किस पैमाने पर बढ़ावा मिलता है।

अमेरिका की टेक

अमेरिका अभी भी बराबरी के टैरिफ पर जोर दे रहा है। एक जानकार का कहना है कि अमेरिका का मूल मकसद अपने व्यापार घाटे को कम करना है। मसलन, चीन के साथ व्यापार घाटा निर्यात का 68 फीसदी है, तो उसका आधा या 34 फीसदी टैरिफ होगा। वैसे, अमेरिका और चीन के बीच औसत टैरिफ में अंतर कहीं भी 34 फीसदी के करीब नहीं था, न ही भारत के साथ औसत टैरिफ में अंतर 27 फीसदी है। भारत द्वारा सभी आयातों पर लगाया जाने वाला औसत टैरिफ 17 फीसदी है जबकि अमेरिका के लिए यह आंकड़ा 3 फीसदी है। इसी मामले में पचड़ा फंसा है। चीन ने तो कड़ा रुख अपनाया और अमेरिका को उसी की भाषा में जवाब दिया तो कुछ नरमी आई। हाल में जेनेवा वार्ता में अमेरिका ने अपने कदम खींचे हैं। इसी तरह यूरोपीय संघ और कनाडा जैसे देश भी उससे सौदेबाजी कर रहे हैं।

दरअसल अमेरिका का संकट घरेलू ज्यादा है। वहां पर्याप्त अच्छी नौकरियां पैदा नहीं हो रही हैं। ट्रम्प ने नौकरियों की कमी के लिए चीन, मैक्सिको और भारत को दोषी ठहराया। अपने चुनाव अभियान के दौरान, उन्होंने कहा कि वे उन्हें वापस अमेरिका लाएंगे। अपने पहले कार्यकाल की तरह, जब उन्होंने अमेरिकी ऑटो कंपनियों को घरेलू निवेश बढ़ाने के लिए कहा, इस बार भी वे अच्छी नौकरियां पैदा करने के लिए कंपनियों पर अमेरिका में निवेश करने का दबाव बना रहे हैं। बड़े-बड़े व्यवसायी उनके घर पर लाइन लगाकर खड़े थे और अमेरिका में बड़े निवेश का वादा कर रहे थे।

लेकिन यही संकट बड़ा होता जा रहा है। छह-सात महीने बाद भी ट्रम्प कोई उपलब्धि नहीं दिखा पा रहे हैं तो उनके सभी कार्यक्रमों को सवाल खड़े हो रहे हैं। अमेरिका में कीमतों में वृद्धि हो रही है। वैश्विक स्तर पर उच्च मुद्रास्फीति और आर्थिक मंदी की संभावना बढ़ रही है। संकट इससे भी बढ़ गया है कि अमेरिका सरकार, शिक्षा और स्वास्थ्य प्रणालियों में भी अच्छे रोजगार घटा रही है। विश्वविद्यालयों के संघीय अनुदान में कटौती की जा रही है और उसके लिए तरह-तरह की पाबंदियां जड़ रही है। विदेशी छात्रों के दाखिले और उनके वीजा पर भी बंदिशें थोपी गई हैं। इससे भारत बहुत प्रभावित होने की आशंका है। लेकिन इसके विरोध में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी तो अदालत में पहुंच गई है। देश भर में इसका विरोध बढ़ रहा है। मस्क की विदाई की एक वजह यह भी हो सकती है।

भारत के लिए मौका

ऐसे दौर में अगर भारत कड़ी सौदेबाजी करे तो शायद अमेरिका नरम हो सकता है। लेकिन भारत को अपनी दलीलें पुख्ता करनी होंगी और रणनीतिक मामलों में भी खुद को खड़ा करना होगा। फिलहाल तो दुनिया, खासकर पश्चिमी दुनिया में भारत के प्रति रवैया बदला हुआ दिखता है। पहलगाम में आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान के खिलाफ ऑपरेशन सिंदूर के पक्ष में खुलकर कोई देश नहीं है। उसके पड़ोसी देशों और दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों में उसे सिर्फ अफगानिस्तान का ही समर्थन हासिल हुआ, जो अंतरराष्ट्रीय जगत में खास मायने नहीं रखता। इससे भी भारत की निर्भरता अमेरिका पर ज्यादा बढ़ती जा रही है। भारत ने दुनिया में अपनी बात कहने और पाकिस्तान को आतंकवाद को शह देने वाले देश बताने के लिए करीब 33 देशों में जो सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजे, उसका खास असर नहीं दिखा। भारत जुलाई में एफटीएएफ की बैठक में अपना पक्ष रखने की कोशिश करेगा, ताकि पाकिस्तान को फिर ग्रे लिस्ट में डाला जा सके। लेकिन 9 मई को आइएमएफ और 28 मई को विश्व बैंक से पाकिस्तान को अरबों डॉलर की मदद की मंजूरी और पहली किस्त जारी होने से भी अलग संकेत मिल रहे हैं।

ऐसे में भारत-अमेरिका रिश्तों में नई दिशा तलाशने की दरकार है, लेकिन उससे बाहर भी देखने की दरकार है, क्योंकि विश्व मंच पर हमारी आर्थिक, रणनीतिक और विदेश नीति के मोर्चे पर ताकत से ही बात बनेगी। इसके अलाव सामरिक मोर्चे पर भी अमेरिका से ठोक-पीटकर बात करने की दरकार है, बदलती दुनिया और ट्रम्प जैसे अनिश्चित फितरत वाले शख्स से स्थिरता की उम्मीद कम ही है।

मस्‍क्‍या मुट्ठी से बाहर

एलॉन मस्क

अमेरिकी राष्‍ट्रपति डोनाल्‍ड ट्रम्‍प की फितरत वही जानें। जिस एलॉन मस्‍क के धुआंधार प्रचार अभियान के बल पर चुनाव जीता गया और बड़े-बड़े दावे के साथ उन्हें कुछ इस अंदाज में लाया गया कि सारे घर के बदल डालूंगा, उन्‍हें ही चलता कर दिया गया या चलता हो गए। मस्‍क को सरकार में सहयोगी डिपार्टमेंट ऑफ गर्वनमेंट एफिशिएंसी (डोज) का प्रमुख बनाया गया था, जो खर्चों में कटौती के लिए और निवेश की संभावनाएं तलाशने के लिए बनाया गया था। अभी हाल तक खाड़ी देशों की यात्रा के दौरान भी ट्रम्प के बाद मस्‍क ही छाए हुए थे। यूएई में भारत से मुकेश अंबानी मिलने पहुंचे तब भी कयास यही थे कि बाकी मामलों के अलावा स्‍टार लिंक के करार पर भी बात हुई हो सकती है। जो भी हो, अब मस्‍क की विदाई के बाद ये कयास लगाए जा रहे हैं कि क्‍या व्हाइट हाउस में रुझान बदल रहा है। कुछ हलकों में इसे विदेश व्यापार संबंधों में ट्रंप के नए पैंतरे की तरह भी देखा जा रहा है।

कहते हैं, मस्क की सलाह पर ही आयात पर टैरिफ में बेतहाशा बढ़ोतरी की नीति अपनाई गई थी। इससे अमेरिका के दुनिया के कई देशों से व्यापार संबंधों में खटास पैदा हुई। दूसरे, प्रशासनिक खर्चों में कटौती, लोकल टैक्स में बदलाव और अमेरिका में प्रवासियों को उनके मूल देशों में भेजे जानी वाली राशि पर 3.5 प्रतिशत रेमिटेंस शुल्क लगाए जाने के कई कड़े आर्थिक फैसलों से ट्रम्प की दुनिया में ही नहीं, बल्कि अमेरिका में भी खासी आलोचना हो रही है। तो, क्‍या मस्‍क की विदाई का न्‍यूयॉर्क की अदालत में चल रहे टैरिफ पर सुनवाई का भी कुछ लेनादेना है।

मस्क की व्हाइट हाउस से विदाई से अमेरिकी तकनीकी निवेश और ग्लोबल टेक पॉलिसी प्रभावित होने के संकेत हैं। भारत में मस्क ईवी सेक्टर, सौर ऊर्जा, स्पेस टेक्नोलॉजी में निवेश की इच्छा जता चुके हैं। अमेरिकी प्रशासन में मस्क की भूमिका शून्य होने से भारत में उनकी निवेश योजनाओं पर असर पड़ सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिका यात्रा के दौरान मस्‍क से निवेश को लेकर बात भी की थी।

चूक, चोट और विराम

साफगोईः चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल अनिल चौहान

साफगोईः चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल अनिल चौहान

आखिर राजनैतिक दायरे में जो नहीं हो पाया, वह हमारे सैन्‍य नेतृत्‍व ने बड़ी साफगोई और संतुलन तथा सतर्कता के साथ कर दिखाया। अमेरिकी राष्‍ट्रपति डोनाल्‍ड ट्रम्‍प लगातार, अब तक 11वीं बार जिक्र कर चुके हैं कि उन्‍होंने भारत-पाकिस्‍तान के बीच संघर्ष-विराम कराया, वरना एटमी कार्रवाई से लाखों लोग जान गंवा बैठते। यही नहीं, उनकी सरकार अपनी टैरिफ नीति के बचाव में इसे आदलत में हलफनामे में भी लिखकर दे चुकी है। लेकिन हमारा राजनैतिक नेतृत्‍व इस बारे में साफ-साफ कुछ भी कहने से बचता रहा है, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी एटमी ब्‍लैकमेल के ताबे में न आने को ‘‘न्‍यू नॉर्मल’’ बताकर कुछ संकेत दिया। वजहें बेशक, अलग हो सकती हैं। लेकिन हमारे सैन्‍य बल के सबसे बड़े अधिकारी चीफ ऑफ डिफेंस स्‍टॉफ जनरल अनिल चौहान ने बिना कोई जिक्र किए बड़ी साफगोई से इन दोनों बातों का एक मायने में खंडन कर दिया।

उन्‍होंने इसके लिए देश से बाहर सिंगापुर में सिंगरेला डिस्‍कशन की जगह जाने-अनजाने चुनी। उन्‍होंने पहले ब्‍लूमबर्ग और रॉयटर्स के सवालों के जवाब में कहा कि ‘‘संघर्ष विराम लाजिमी था क्‍योंकि मकसद पूरा हो चुका था’’ और ‘‘न्‍यूक्‍लीयर तक मामला जाना ही नहीं था क्‍योंकि दोनों देशों के सैन्‍य नेतृत्‍व को उसकी गंभीरता का शिद्दत से एहसास है और दोनों तरफ बेहद जिम्‍मेदार और समझदार अधिकारी हैं।’’ उन्‍होंने इस छोटी झड़प में जेट या राफेल गिराए जाने के पाकिस्‍तान के दावे से जुड़े सवाल पर भी कहा कि ‘‘इससे जरूरी यह सावल है कि कहां चूक हुई तो हमने 6-7 मई की दरमियानी रात पहली कार्रवाई के बाद समीक्षा की, कमियां दुरुस्‍त कीं और अगली 8,9, 10 की रात को एकदम मर्म पर चोट की।’’

गौरतलब यह भी है कि 12 मई को नई दिल्‍ली में प्रेस कॉफ्रेंस में वायु डीजीएमओ ए.के. भारती भी एक सवाल के जवाब में यह कहकर संकेत दे चुके थे कि ‘‘हमारे सभी पायलट सुरक्षित हैं और लड़ाई में नुकसान तो होते ही हैं।’’ गौर करने की बात यह भी है कि चीफ ऑफ डिफेंस स्‍टॉफ ने यह बात किसी भारतीय मीडिया से भी नहीं की, जिसके लिए उन्‍हें भी बदमिजाज ट्रोल आर्मी की बदतमीजियों का शिकार होना पड़ा। इसके साथ अगर वायु सेना अध्‍यक्ष एयर मार्शल तेजेन्द्र सिंह के सीआइआइ के फोरम पर दिए बयान को जोड़कर देखें तो कुछ संकेत मिलते हैं। उन्‍होंने आपूर्ति में कमी की ओर इशारा किया और कहा, ‘‘परियोजनाएं बनती हैं पर समय पर पूरी नहीं होतीं। हमसे करार करने को कहा जाता है। हम यह जानते हुए दस्‍तखत कर देते हैं कि यह नहीं होने वाला है।’’

अब चर्चा है कि अमेरिका अपने बेहद महंगे एफ-35 जेट विमान के करार पर जोर दे रहा है। ऐसे में, इन बयानों की अहमियत बढ़ जाती है। इसलिए तीन रातों की ही झड़प से कई सारे सवाल खड़े हो उठे हैं, जिन पर कायदे से सोच-विचार की चुनौती सामने है। 

 

 

 

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