प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोविड-19 महामारी से बचाव के लिए लागू लॉकडाउन को 3 मई तक बढ़ाने के लिए 14 अप्रैल को जब देश को संबोधित किया, तो उन्होंने आश्वस्त किया, “किसी को भी भोजन की किल्लत नहीं होगी। 21 दिन के लॉकडाउन में भी किसी तरह की दिक्कत नहीं हुई और आगे भी नहीं होगी।” असल में उनके इस भरोसे के पीछे देश में खाद्य पदार्थों की बेहतर पैदावार और केंद्रीय पूल में 550 लाख टन का खाद्यान्न भंडार है। आजाद भारत के इतिहास में यह पहली बार है जब इतनी बड़ी महामारी के दौरान कोई भी भूखा नहीं रहा है। व्यवस्थागत कमियों को छोड़ दें तो यह बड़े सुकून की बात है। लेकिन यह उन करीब 14 करोड़ किसान परिवारों के चलते संभव हो पाया, जो इस महामारी से दोहरी लड़ाई लड़ रहे हैं। खुद के जीवन को बचाने की लड़ाई और खेतों में खड़ी अपनी फसल को बचाकर बाजार तक पहुंचाने की लड़ाई। और जब पूरे देश में आर्थिक गतिविधियां ठप हैं, तब भी खेती-किसानी का काम जोरों पर है। फसल की बुवाई और उसकी कटाई का एक समय होता है जिसे टाला नहीं जा सकता है और इसे किसान से बेहतर कोई और नहीं समझ सकता। खेती की इन गतिविधियों के चलते करोड़ों मजदूरों के घरों में चूल्हा जलने की व्यवस्था हो रही है। लेकिन संकट में देश के हित में काम कर रहे किसानों को भारी आर्थिक नुकसान के बावजूद अभी तक सरकार ने कोई बड़ी वित्तीय मदद नहीं की है। इसके साथ ही कोरोना से लड़ाई लड़ रहे डाक्टरों, स्वास्थ्यकर्मियों, सफाईकर्मियों, सुरक्षाकर्मियों और दूसरी आवश्यक सेवाएं दे रहे लोगों के लिए कई बार हमारे हाथ तालियां बजाने के लिए उठे, हौसला अफजाई में दीये और कैंडल जलाए गए। इस संकट में देश को खाद्य सुरक्षा का भरोसा कायम रखने वाले किसान के लिए किसी ने न थाली बजाई है और न ही दीये जलाये हैं। 14 अप्रैल के प्रधानमंत्री के संबोधन में भी उसे बाकियों की तरह जगह नहीं मिली।
22 मार्च के ‘जनता कर्फ्यू’ और कई राज्यों के लॉकडाउन के बाद 25 मार्च से देश भर में 21 दिन का लॉकडाउन लागू कर दिया गया। प्रवासी मजदूरों के शहरों से पलायन की स्थिति पैदा हुई, लेकिन यह भी सच है कि देश के सामने खाने-पीने की वस्तुओं का कोई बड़ा संकट पैदा नहीं हुआ। यह इसलिए संभव हो सका क्योंकि केंद्रीय पूल में 550 लाख टन से अधिक गेहूं और चावल मौजूद था। इसकी उपलब्धता से ही कहीं कोई बड़ा संकट पैदा नहीं हुआ। कोरोना वायरस के चलते जहां दुनिया थम-सी गई है और देश में भी आर्थिक गतिविधियां लगभग बंद हैं, वहीं, किसानों को अपने खेत और फसल की चिंता सबसे अधिक है।
थमी कृषि गतिविधि
मार्च की शुरुआत में ही रबी फसलों की कटाई का दौर शुरू हो जाता है लेकिन लगभग उसी समय कोविड-19 महामारी के चलते कई तरह के प्रतिबंध लगने शुरू हो गए। इस सीजन में सबसे पहले सरसों की कटाई शुरू होती है और लगभग उसी के साथ आलू की खुदाई होती है। दोनों में बड़े पैमाने पर मजदूरों की जरूरत है। लेकिन एक के बाद एक प्रतिबंधों और लॉकडाउन ने इन दोनों फसलों के खेत से घर तक आने तथा उनकी मार्केटिंग में बाधा पैदा कर दी थी। उसी दौरान दलहन की फसलें भी तैयार हो गईं। सरकार के दावों के बावजूद इन फसलों की मार्केटिंग, ट्रांसपोर्टेशन और गोदामों तक पहुंचने की दिक्कतें खत्म नहीं हो पा रही हैं। हालांकि केंद्र सरकार का कहना है कि राज्यों को निर्देश दिए गए हैं कि दलहन और तिलहन की सरकारी खरीद की जाए। इसके लिए राज्यों से रिवाल्विंग फंड बनाने को कहा गया है। केंद्र सरकार के लिए सरकारी खरीद का जिम्मा उठाने वाली एजेंसी नेफेड को भी निर्देश दिए गए हैं। लेकिन अभी तक खरीद नगण्य रही है। देश में 2019-20 में 230 लाख टन दालों के उत्पादन का अऩुमान है। केंद्रीय कृषि मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक, राज्यों को कह तो दिया गया है लेकिन अभी सरकारी खरीद का काम शुरू नहीं हो सका है।
हर फसल के नुकसान अलग
असल में देश के अधिकांश हिस्सों में आलू किसानों को काफी नुकसान भुगतना पड़ रहा है और कई जगह किसानों को फसल खेतों में ही छोड़नी पड़ी है। दूसरी ओर खाद्यान्न और तिलहन फसलों पर सरकार का अधिक फोकस रहता है और इन फसलों को अधिक समय तक स्टोर करके भी रखा जा सकता है। जबकि फल और सब्जियों जैसे हार्टिकल्चर उत्पादों के मामले में स्थिति ऐसी नहीं है, और इनके किसानों को लॉकडाउन के चलते भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। कर्नाटक में टमाटर किसानों को काफी नुकसान उठाना पड़ा है, क्योंकि हर जगह ग्रामीण क्षेत्रों में जल्दी खराब होने वाली फसलों के लिए स्टोरेज की सुविधा नहीं है। मंडियों में कामकाज में कमी और अंतरराज्यीय ट्रांसपोर्टेशन में पैदा हुई दिक्कतों से यह नुकसान काफी बढ़ा है। ताजा सब्जियों के मामले में पंजाब से लेकर कर्नाटक, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में किसानों को काफी नुकसान भुगतना पड़ा है। देश में हार्टिकल्चर उत्पादन का आकार खाद्यान्नों से अधिक हो गया है। साथ ही, इनकी कीमत भी काफी अधिक होती है। कई सब्जियों के बीज की कीमत चालीस हजार रुपये किलो तक किसान को चुकानी पड़ती है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की किस्मों के लिए जरूरी केमिकल भी इन कंपनियों से ही खरीदने पड़ते हैं, जो काफी महंगे होते हैं।
फल-सब्जियों का संकट
कृषि और सहकारिता क्षेत्र में काम करने वाले एक सार्वजनिक संस्थान के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि देश में हार्टिकल्चर किसानों को नुकसान काफी ज्यादा है। सरकार का ज्यादा फोकस खाद्यान्न और गन्ना जैसी फसलों पर होता है। इस समय दक्षिणी राज्यों में तोतापुरी और बंगनपल्ली आम भी बाजार में आने लगे हैं और महाराष्ट्र के रत्नागिरी में अल्फांसो आम की फसल भी अब तैयार है लेकिन मौजूदा परिस्थितियों में यह बाजार तक कैसे पहुंचेगा, इसको लेकर कोई साफ रणनीति नहीं है। अंगूर किसानों को घरेलू और निर्यात दोनों मोर्चों पर भारी घाटे का सामना करना पड़ा है। दक्षिणी राज्यों में मिर्च, गुजरात में जीरा, सौंफ और धनिया की फसल कट चुकी है लेकिन मार्केटिंग का संकट है। इनका निर्यात भी अटक गया है। वैसे, फल और सब्जियों की कीमत में भारी गिरावट रोकने के लिए एक मार्केट इंटरवेंशन स्कीम है। इसके लिए 2020-21 के बजट में 2,000 करोड़ रुपये का प्रावधान भी है, लेकिन इसका उपयोग होता नहीं दिख रहा है। अधिकारियों का कहना है कि इस पर जल्दी ही काम शुरू होगा। दूसरी ओर प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण यानी पीएम आशा योजना है, जिसमें दाम न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से कम जाने पर किसानों को बाजार मूल्य और एमएसपी के बीच के अंतर के भुगतान का प्रावधान है। इसके तहत 2020-21 में 500 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। कृषि मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने आउटलुक को बताया कि इस योजना के तहत दलहन और तिलहन की खरीद होती है। राज्यों को इसकी अनुमति दे दी गई है। नेफेड अधिकृत एजेंसी है और उसे सरकार ने 39 हजार करोड़ रुपये की क्रेडिट गारंटी दे रखी है। इसलिए पैसे की दिक्कत नहीं होगी। सरसों और दालों की खरीद शुरू तो हुई है लेकिन अभी यह कुछ हजार टन ही है। उम्मीद है इसमें अब तेजी आएगी।
डेयरी और पोल्ट्री की पीड़ा
कोरोना वायरस से फैलने वाली महामारी कोविड-19 को लेकर तमाम भ्रामक खबरों और भ्रांतियों के चलते पोल्ट्री किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। पोल्ट्री उत्पादों की कीमतें गिरकर एक-तिहाई से भी कम रह गई हैं जिसके चलते करीब सवा लाख करोड़ रुपये का कारोबार बड़े संकट में फंस गया है। बाजार तक उत्पादन पहुंचाने की दिक्कतें, दुकानों के बंद होने और थोक मार्केट के आधे-अधूरे संचालन इन किसानों की कमर तोड़ने वाले साबित हुए हैं लेकिन सरकार ने अभी तक इनकी कोई सुध नहीं ली है।
एक बड़ा पहलू दूध उत्पादक किसानों का भी है। देश में रोजाना करीब 50 करोड़ लीटर दूध का उत्पादन होता है जिसमें करीब 40 फीसदी किसान खुद उपयोग कर लेता है और 60 फीसदी बाजार में पहुंचता है। इसमें करीब एक-तिहाई यानी करीब नौ करोड़ लीटर दूध ही संगठित बाजार में आता है, जिसकी खरीद सहकारी क्षेत्र और निजी क्षेत्र में होती है। बाकी 40 फीसदी यानी करीब 20 करोड़ लीटर दूध असंगठित क्षेत्र में जाता है। लॉकडाउन के चलते दूध और कुछ दुग्ध उत्पादों को छोड़ दें, तो ज्यादातर खोया, पनीर, घी, छेना, आइसक्रीम जैसे दुग्ध उत्पादों का उत्पादन और बिक्री लगभग बंद है। इससे किसानों के मद में दूध की कीमतें गिर गई हैं। ये कीमतें संगठित क्षेत्र में 10 फीसदी तक गिरी हैं, तो असंगठित क्षेत्र में ज्यादा गिरी हैं यानी किसानों को हर रोज सैकड़ों करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ रहा है। दूध का उत्पादन रुक नहीं सकता है क्योंकि पशु से हर रोज दूध दुहना अनिवार्य है। यानी यह ऐसा उत्पाद नहीं जिसका भंडारण किसान कर पाए और सही कीमत होने पर उसे बेचे। गुजरात कोऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन (जीसीएमएमएफ) यानी अमूल के मैनेजिंग डायरेक्टर आर.एस. सोढ़ी ने आउटलुक को बताया कि सहकारी संस्थाओं की दूध खरीद 10 फीसदी तक बढ़ गई है। असल में मिल्क पाउडर, बटर, आइसक्रीम और चीज बनाने वाले तमाम छोटे कारोबारियों का उत्पादन बंद है और दूध का उपयोग करने वाले तमाम कारोबार, होटल और रेस्तरां बंद हैं। सोढ़ी के मुताबिक, यही वजह है कि हमारे पास अधिक दूध आ रहा है और हमने दूध की खरीद कीमतों में कोई कमी नहीं की है। उद्योग सूत्रों के मुताबिक निजी क्षेत्र ने दूध की खरीद कीमत में 15 रुपये प्रति लीटर तक की कमी कर दी है। एक अनुमान के मुताबिक दूध किसानों को हर रोज करीब 200 करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है। ऐसे में 40 दिन के लॉकडाउन का मतलब है करीब आठ हजार करोड़ रुपये का नुकसान। गरमी का सीजन शुरू हो गया है और दूध का उत्पादन घटने लगा है। इसलिए उपभोक्ताओं को आने वाले दिनों में दूध की कीमतों में बढ़ोतरी के लिए तैयार रहना होगा। यह बात अलग है कि किसानों को तो घाटा सहना पड़ रहा है।
भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत ने आउटलुक से कहा, “दूध, फल-सब्जी, फूल, मधुमक्खी पालक और पोल्ट्री किसानों को बहुत नुकसान हुआ है। सरकार को जितनी जल्दी हो सके, उनके लिए आर्थिक मदद की घोषणा करनी चाहिए। समय रहते मदद नहीं मिली तो बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या करने को मजबूर होंगे।”
गेहूं का गम
अब बात सीजन की मुख्य फसल गेहूं की। 2019-20 के रबी सीजन में देश में 10.62 करोड़ टन गेहूं के रिकार्ड उत्पादन का अनुमान है और इसकी खरीद अगर सरकार ठीक से कर पाती है तो यह 350 लाख टन तक पहुंच सकती है। लेकिन अभी लगभग पूरी फसल खेतों में खड़ी है और सरकारी खरीद भी शुरू नहीं हो सकी है। लॉकडाऊन तीन मई तक बढ़ गया है तो ऐसे में गेहूं की कटाई और मार्केटिंग बड़ी चुनौती लेकर आ रही है। देश के मध्य भाग में गेहूं की कटाई मार्च के अंत में शुरू हो जाती है। यही वजह है कि मध्य प्रदेश में गेहूं की सरकारी खरीद भी सबसे पहले शुरू होती है लेकिन 25 मार्च से लॉकडाउन के चलते वहां भी फसल की कटाई में देरी आई है। हालांकि मध्य प्रदेश में कटाई तेजी से चल रही है लेकिन वहां अभी तक गेहूं की सरकारी खरीद शुरू नहीं हो सकी है। सरकार का कहना है कि 15 अप्रैल से शुरू की जाएगी। लेकिन यहां भी बड़ा सवाल यह है कोविड-19 महामारी के मौजूदा समय में यह कितना संभव हो सकेगा कि किसानों की बाजार में आने वाली पूरी फसल की खरीद की जा सके। पिछले कुछ बरसों का अनुभव मध्य प्रदेश में बेहतर रहा है और वहां की सरकार ने किसानों का डाटा बैंक तैयार कर एसएमएस भेजकर किसानों का मंडी आने का समय तय करने की प्रक्रिया अपनाई है, लेकिन इसके लिए किसानों का पंजीकृत होना भी जरूरी है। दूसरी ओर अभी कटाई के लिए मजदूरों का भारी संकट है, वहीं सरकारी खरीद के समय भी यह स्थिति बनी रही तो दिक्कतें बढ़ सकती हैं।
जहां तक पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान का सवाल है तो पंजाब ने कुछ तैयारियां की हैं। वहां करीब छह हजार सरकारी खरीद केंद्र बनाए जा रहे हैं ताकि हर दो गांव पर एक खरीद केंद्र होने से किसानों को दूर नहीं जाना पड़े और सोशल डिस्टेंसिंग की शर्त का भी पालन हो सके। पंजाब में सबसे पहले दौर में ही कोरोनावायरस के संक्रमण फैलने के मामले सामने आए थे और राज्य सरकार ने लॉकडाउन 30 अप्रैल तक बढ़ाने का फैसला ले लिया। ऐसे में जहां इस समय पंजाब में गेहूं की कटाई आधे से अधिक हो जानी चाहिए थी वह अभी शुरू हो रही है। राज्य सरकार का दावा है कि वहां करीब पांच हजार कंबाइन हार्वेस्टर होने के चलते मैकेनाइज्ड कटाई अधिक हो सकेगी। लेकिन राज्य में किसान करीब 70 से 80 फीसदी कटाई कंबाइन से करते हैं और बाकी कटाई हाथ से होती है। इसकी वजह पशुओं के लिए चारे की जरूरत है। कंबाइन हार्वेस्टर से कटाई में भूसा नहीं मिल पाता है। साथ ही जब यह फसल बिकने के लिए पहुंचेगी तो इसके लिए बड़े पैमाने पर मजदूरों की जरूरत होगी। हालांकि राज्य सरकार का कहना है कि हमारे पास करीब चार लाख पंजीकृत मनरेगा मजदूर हैं और हम उन्हें इसके लिए उपलब्ध कराएंगे। लेकिन हर काम की प्रकृति अलग होती है इसलिए मनरेगा मजदूर इसके लिए कितने कारगर होंगे यह अभी कहना मुश्किल है। इन मजदूरों को मिलने वाला मेहनताना किसान और कारोबारियों को ही देना होगा। ऐसे में राज्य का दावा बहुत पुख्ता नहीं रह जाता है।
हरियाणा सरकार 20 अप्रैल से सरकारी खरीद की बात कर रही है। देरी से गेहूं लाने वाले किसानों को 50 से 100 रुपये का अतिरिक्त भुगतान करने की बात राज्य सरकार ने कही है ताकि मंडियों में ज्यादा भीड़ न हो। इसके साथ ही राज्य सरकार ने किसानों को गेहूं बिक्री के लिए पंजीकरण कराने के लिए कहा है। हरियाणा सरकार का कहना है कि वह केवल राज्य के किसानों का ही गेहूं खरीदेगी। असल में लॉकडाउन लागू होने के बाद जिस तरह से हरियाणा और पंजाब से मजदूरों का पलायन हुआ है उसके चलते गेहूं की कटाई और मार्केटिंग दोनों स्तरों पर मजदूरों के संकट का सामना करना पड़ेगा। इस परिस्थिति के चलते किसानों के ऊपर खर्च का बोझ बढ़ने वाला है।
जहां तक उत्तर प्रदेश का सवाल है तो वहां इस समय किसान दोहरे संकट से जूझ रहा है। वहां चीनी मिलों द्वारा गन्ने का इंडेंट बढ़ा देने से किसानों का काम काफी बढ़ गया है और अगले करीब एक माह तक किसानों के लिए अतिरिक्त श्रमिकों की भारी जरूरत रहने वाली है। जहां एक ओर गन्ना की कटाई चल रही है, अब गेहूं की कटाई शुरू हो जाएगी। उत्तर प्रदेश में अधिकांश कटाई हाथ से होती है क्योंकि यहां किसानों की जोत का आकार छोटा है और बहुत कम संख्या में ही किसान कंबाइन हार्वेस्टर का उपयोग करते हैं। इसके साथ ही गेहूं की कटाई के बाद तुरंत किसान गन्ने की बुवाई करते हैं जिसमें काफी ज्यादा मजदूरों की जरूरत पड़ती है। ऐसे में किसानों को काफी खर्च की जरूरत होती है। देश में सबसे अधिक चीनी उत्पादन करने वाले उत्तर प्रदेश में पहली बार चीनी मिलों पर गन्ना मूल्य भुगतान का बकाया 15 हजार करोड़ रुपये को पार कर गया है। ऐसे में, समझा जा सकता है कि किसानों को पैसे की कितनी किल्लत से गुजरना पड़ रहा है और वह भी ऐसे समय में जब महामारी का संकट है। उत्तर प्रदेश गेहूं का भी सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है लेकिन यहां केवल चार हजार खऱीद केंद्र बनाने की अभी सिर्फ बात हो रही है। पिछले साल जहां पंजाब में 129.12 लाख टन और हरियाणा में 93.20 लाख टन गेहूं की सरकारी खरीद हुई थी, वहीं केवल 37 लाख टन की सरकारी खरीद के साथ उत्तर प्रदेश चौथे स्थान पर रहा था। उससे कहीं कम उत्पादन वाले मध्य प्रदेश में पिछले साल 67.25 लाख टन गेहूं की सरकारी खरीद हुई थी। उत्तर प्रदेश में इस मुश्किल घड़ी में किसानों को अतिरिक्त मजदूर कैसे मिलेंगे इसको लेकर राज्य सरकार के पास कोई पुख्ता योजना अभी नहीं है।
सरकारी मदद कितनी
हमें सरकार के किसानों के लिए घोषित सहायता पर भी चर्चा करने की जरूरत है। अभी तक किसानों को कोई प्रत्यक्ष मदद नहीं मिली है। प्रधानमंत्री किसान कल्याण निधि की पहली किस्त का 15 हजार करोड़ रुपये से अधिक का भुगतान अप्रैल में करीब सात करोड़ किसानों को हो चुका है। लेकिन यह तो पहले से लागू योजना है और उनकी पहली किस्त मिलने का समय हो गया था, इसलिए इसे कोई नया पैकेज नहीं माना जा सकता है। वहां किसानों के लिए फसली ऋण को चुकाने की अवधि 31 मई की गई, जिसमें समय से भुगतान पर लागू होने वाली चार फीसदी ब्याज की रियायती दर लागू रहेगी। लेकिन जब किसानों का उत्पादन ही बाजार में एक माह देर से पहुंचेगा तो वह भुगतान कहां से करेगा। इसके साथ ही कोविड महामारी के चलते जिस तरह से बड़े पैमाने पर लोगों के बेरोजगार होने की आशंका पैदा हो गई है उसके चलते कृषि उत्पादों की मांग में गिरावट तय है। यानी आने वाले दिनों में इनकी कीमतें गिर सकती हैं और किसानों को नुकसान उठाना पड़ सकता है।
स्वाभिमानी शेतकरी संगठन के अध्यक्ष राजू शेट्टी ने कहा, “महाराष्ट्र में बड़े पैमाने पर किसान फल-सब्जियां, फूलों और दूध के कारोबार में हैं। लॉकडाउन की वजह से सारी फसल बर्बाद हो रही है। सरकार को राहत पैकेज देने की जरूरत है। मैंने मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, दोनों को पत्र लिखकर 4,000 करोड़ रुपये के पैकेज की मांग की है। अगर सरकार ऐसा नहीं करती है तो किसानों के सामने बड़ा संकट खड़ा हो जाएगा।”
जहां तक फसलों की मार्केटिंग की बात है तो उसके लिए कृषि मंत्रालय लगातार जोर दे रहा है कि फार्मर्स प्रोड्यूसर आर्गनाइजेशन (एफपीओ) को सीधे किसानों से खरीदने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। वैसे तो पांच हजार से ज्यादा एफपीओ पंजीकृत हैं लेकिन इनमें अधिकांश का कारोबार कुछ लाख ही है और इनका दायरा भी सीमित है। सरकार ने इलेक्ट्राॅनिक प्लेटफार्म नेशनल एग्रीकल्चर मार्केट यानी ई-नाम के तहत खरीद में छूट दी गई है। साथ ही, राज्यों से कहा गया है कि वह एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमेटी (एपीएमसी) एक्ट में बदलाव कर किसानों से सीधे खरीद की छूट कारोबारियों को दे। लेकिन जिस एपीएमसी कानून को राज्य सरकारें बड़े राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करती हैं क्या वह उसे बदल देंगी। अगर यह संभव है तो पहले केंद्र सरकार को भाजपा शासित राज्यों में इस बदलाव की शुरुआत के लिए वहां के मुख्यमंत्रियों को तैयार करना चाहिए। आढ़तियों की मजबूत लॉबी और दूसरे राजनीतिक मकसद इसमें संशोधन नहीं होने देते हैं। जहां तक ई-नाम का सवाल है तो वह बहुत कारगर नहीं क्योंकि ज्यादातर बड़े कृषि उत्पादों को राज्य सरकारों ने उसके तहत कारोबार के लिए अधिसूचित ही नहीं किया है। केंद्र सरकार ने कृषि उत्पादों के लिए ट्रकों के एग्रीगेशन का प्लेटफार्म बनाने की बात कही है, लेकिन जिस तरह से किसानों और कृषि उत्पादों के परिवहन को लेकर पुलिस का रवैया है वह इन सब प्रयासों पर पानी फेर रहा है।
तमाम किसान संगठन और कृषि मामलों के जानकर कृषि क्षेत्र के लिए एक बड़े पैकेज की वकालत कर रहे हैं। भारतीय किसान यूनियन हो या राष्ट्रीय किसान संघर्ष काेआर्डिनेशन कमेटी या दूसरे संगठन, सभी ने इस संकट के दौर में किसानों के लिए वित्तीय पैकेज लाने के लिए प्रधानमंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लिखा है लेकिन अभी इसका कोई नतीजा सामने नहीं आया है। जहां गेहूं की कटाई के लिए किसानों को सस्ता डीजल या सब्सिडी देने की मांग की जा रही है, वहीं अगले एक साल तक किसानों को ब्याज मुक्त कर्ज देने की मांग भी उठ रही है। असाधारण समय में असाधारण फैसला लेने की जरूरत है। प्रतिष्ठित कृषि अर्थशास्त्री और कृषि लागत एवं मूल्य आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. टी हक कहते हैं कि सरकार को प्रधानमंत्री किसान कल्याण निधि की सालाना राशि छह हजार रुपये से बढ़ाकर 12 हजार कर देनी चाहिए।
एक बड़ी समस्या उन किसानों की है जो ठेके पर खेती करते हैं। किसान सम्मान निधि जैसी कोई सरकारी वित्तीय मदद उन्हें नहीं मिलती है क्योंकि वह कहीं पंजीकृत नहीं हैं। अलग-अलग राज्यों में ऐसे किसानों की तादाद 20 फीसदी से लेकर 40 फीसदी तक है। इस संकट में इनको कैसे मदद मिले यह एक बड़ा सवाल है। एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने आउटलुक को बताया कि किसानों के लिए वित्तीय राहत पैकेज पर काम चल रहा है। कर्ज की राहत के साथ हार्टिकल्चर उत्पादों के किसानों, कट फ्लावर की खेती करने वाले किसानों को भी कुछ राहत मिल सकती है। वहीं, फसली ऋण के अलावा टर्म लोन के लिए कुछ राहत का फैसला हो सकता है। हालांकि जब तक पैकेज घोषित नहीं हो जाता है, वास्तविकता का पता नहीं चलेगा।
लॉकडाउन के दौरान सरकार ने किसानों, खेती के संयंत्रों और मजदूरों की आवाजाही तथा खाद, बीज, पेस्टीसाइड की दुकानें खुली रखने की छूट देने जैसे कदम उठाए लेकिन यह कदम दिक्कतें सामने आने के बाद ही उठाए गए। वहीं, इसके बावजूद ग्रामीण इलाकों में पुलिस और प्रशासन का रवैया दिक्कतें पैदा करने वाला रहा है, जिसका खामियाजा किसानों को भुगतना पड़ा है। प्रशासन की सख्ती के कारण स्थानीय स्तर पर काफी दिक्कतें आ रही हैं। दिल्ली में भी किसानों को मंडियों में जाने में परेशानी हो रही है, जिससे खाने-पीने की चीजों की सप्लाई बाधित हो रही है।
केंद्रीय पूल में 550 लाख टन से ज्यादा का खाद्यान्न भंडार है जो तय मानकों के दोगुना से भी अधिक है। गेहूं की बंपर फसल को देखते हुए 300 लाख टन से अधिक की सरकारी खरीद होने का अनुमान है। यही वह ताकत है जिसके चलते सरकार ने कोविड-19 महामारी से लड़ने के लिए उठाए गए कदमों के तहत प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना में अतिरिक्त खाद्यान्न आवंटन करने का फैसला लिया। इसी के चलते एक्सपर्ट सलाह दे रहे हैं कि सरकार को खाद्यान्नों के भंडार गरीबों के लिए खोल देने चाहिए। इसके साथ ही एक बड़ी ताकत देश में सार्वजनिक वितरण प्रणाली का तंत्र है जिसके जरिए खाद्यान्न जरूरतमंदों को मुहैया कराए जा रहे हैं। वैसे तमाम उदारीकरण समर्थकों की राय रही है कि हमें खाद्यान्न के वितरण की सार्वजनिक वितरण प्रणाली व्यवस्था और खाद्यान्नों की सरकारी खरीद व्यवस्था को समाप्त कर गरीबों को फूड कूपन देने की प्रणाली लागू कर देनी चाहिए। इससे वह अपनी मर्जी के मुताबिक बाजार से भोजन खरीद सकेंगे। इस तरह के आर्थिक सुधार देश में अभी तक लागू नहीं हो सके, उसी के चलते आज हम कोविड-19 जैसी महामारी के दौर में देश के हर व्यक्ति के भोजन को लेकर आश्वस्त हैं और यह आश्वासन मिला है देश के उन करोड़ों किसान की बदौलत जो इस महामारी के संकट के समय में भी अपने जीवन पर खेलकर देश की खाद्य सुरक्षा को मजबूत कर रहे हैं। इसलिए अगर कोरोना योद्धा की बात की जाए तो उसमें सबसे पहले पायदान पर खड़े होने वालों में देश का किसान है। जो भले ही देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में हिस्सेदारी के मामले में 15 फीसदी से नीचे आ गया है लेकिन अभी भी देश की आधे से ज्यादा आबादी की रोजी-रोटी कृषि क्षेत्र से ही चलती है। यही वजह है कि शहरों से पलायन करने वाले करीब चार करोड़ लोग जब कोई विकल्प ढूंढ रहे थे तो उनके सामने गांव जाने का ही विकल्प सबसे ऊपर था, जहां अभी भी उन्हें जीवनयापन की कुछ उम्मीद दिखती है।
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किसानों के लिए संभावित पैकेज
फसल ऋण पर सरकार दे सकती है ब्याज में राहत
किसानों को टर्म लोन पर भी ब्याज में राहत संभव
मेकैनाइज्ड हार्वेस्टिंग के लिए राहत पैकेज देने पर विचार
चारे के लिए किसानों को मिल सकती है सब्सिडी
बागवानी किसानों को भी कुछ सहूलियतें देने का प्रस्ताव
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किसानों को निर्धारित तारीख और समय पर ही अपनी फसल लेकर मंडी में आना पड़ेगा, उन्हें इसकी सूचना फोन और एसएमएस के जरिए दी जाएगी
मनोहर लाल खट्टर
मुख्यमंत्री, हरियाणा
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लॉकडाउन से सारी फसले बर्बाद हो रही हैं, सरकार को राहत पैकेज देने की जरूरत है, मैंने प्रधानमंत्री और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री से 4,000 करोड़ रुपये का पैकेज देने की मांग की है
राजू शेट्टी
अध्यक्ष, स्वाभिमानी शेतकरी संगठन
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दूध, फल-सब्जी, पोल्ट्री किसानों को बहुत नुकसान हुआ, सरकार ने समय रहते इन्हें मदद नहीं दी तो बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या के लिए मजबूर होंगे
राकेश टिकैत
राष्ट्रीय प्रवक्ता, भारतीय किसान यूनियन