लगभग दो शताब्दी पहले, प्रसिद्ध सैन्य रणनीतिकार कार्ल वॉन क्लॉज़विट्ज़ ने लिखा था, “युद्ध अन्य जरियों से राजनीति का ही हिस्सा है।” यह उक्ति दुनिया भर में रणनीतिक सोच का प्रतिबिंब बनी हुई है और सबसे बढ़कर राजनैतिक इच्छाशक्ति ही युद्ध के निर्णय में योगदान देती रहती है। यह भी निर्विवाद है कि नतीजों की जिम्मेदारी राजनैतिक नेतृत्व को ही उठानी पड़ती है। तो, फिर चुनाव में फायदा लेने के लिए युद्ध के राजनीतिकरण पर यह हल्ला-गुल्ला क्यों है?
2011 में पाकिस्तान में ओसामा बिन लादेन के मारे जाने पर भारत और पूरी दुनिया में खुशी जाहिर की गई थी। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उस ऑपरेशन का श्रेय लिया और 2012 के चुनाव में दोबारा जीत हासिल की थी। इसी तरह जॉर्ज डब्लू. बुश ने 2003 में इराक में सद्दाम हुसैन के तख्तापलट को 2004 में दूसरे कार्यकाल के लिए चुनावी मुद्दा बनाया था। हालांकि युद्ध खुद-ब-खुद चुनाव में जीत की गारंटी नहीं होते। जुलाई 1945 में नाजी जर्मनी हार गया और जापान टूट चुका था, पर धुरी राष्ट्रों की जीत के बावजूद विंस्टन चर्चिल की कंजर्वेटिव पार्टी आम चुनाव हार गई और लेबर पार्टी को शानदार जीत मिली।
भारत में भी युद्ध कभी चुनावों में असरकारी मुद्दा नहीं रहा। आजादी के ठीक बाद 1947-48 में पाकिस्तान के साथ युद्ध हुआ मगर पहले आम चुनावों में उसका खास असर नहीं पड़ा। दरअसल, तब कोई खास राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता थी ही नहीं। फरवरी 1962 में आम चुनाव के आठ महीने बाद अक्टूबर 1962 में चीन के साथ युद्ध हुआ। पाकिस्तान के साथ 1965 का युद्ध 1967 के आम चुनावों से दो साल पहले हुआ था। 1965 का युद्ध जीतने के बाद सरकार की लोकप्रियता तो बढ़ी, लेकिन कम अंतराल में दो युद्धों 1962 और 1965 के कारण अर्थव्यवस्था चरमरा गई थी। तब सरकार के आर्थिक प्रदर्शन और कांग्रेस के भीतर दरार के कारण पार्टी दो-तिहाई बहुमत हासिल करने में विफल रही थी। इसी तरह, इंदिरा गांधी के नेतृत्व में 1971 की लड़ाई में पाकिस्तान के खिलाफ नाटकीय जीत के बावजूद, 1977 में अगले आम चुनावों में दूसरी घटनाएं प्रभावी बनीं और पहली बार एक गैर-कांग्रेसी सरकार सत्ता में आई।
यहां तक कि करगिल (1999) जैसे सीमित युद्ध और मुंबई (2008) में 26/11 जैसे आतंकवादी हमले का भी चुनावों पर खास असर नहीं दिखा। करगिल युद्ध भाजपा की अगुआई वाली कार्यवाहक सरकार के समय हुआ था। युद्ध के पहले और बाद में राजनैतिक गहमागहमी और पीठ थपथपाने का दौर भी खूब चला लेकिन अंततः राजनैतिक पार्टियां अपने मुद्दों पर लौट आईं। आखिर में कुछ महीने बाद हुए 1999 के आम चुनावों में युद्घ की कामयाबी महत्वपूर्ण मुद्दों में नहीं थी। इसके विपरीत, 26/11 के बाद तत्कालीन यूपीए सरकार ने पाकिस्तान पर जवाबी सैन्य कार्रवाई न करने का फैसला किया, लेकिन पांच महीने बाद ही 2009 में हुए आम चुनावों में कांग्रेस के नेतृत्व वाला गठबंधन सत्ता में वापस आ गया।
युद्ध कभी चुनावों में जीत में भले असरकारी न रहा हो, लेकिन रक्षा खरीद जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले चुनावों में निर्णायक भूमिका निभाते रहे हैं। बोफोर्स तोप खरीद में रिश्वत का आरोप 1989 में कांग्रेस की हार का कारण बना। राफेल लड़ाकू विमान की खरीद मामले को भी विपक्ष 2019 के चुनावों में गेम-चेंजर बनाने की कोशिश कर रहा है। हालांकि, अभी तक घोटाले की बात स्थापित नहीं हो पाई है। लेकिन 2019 के संसदीय चुनावों के रंग तेजी से बदल रहे हैं और अब तक के ये संकेत हैं कि राष्ट्रीय सुरक्षा एक अहम मुद्दा होगा। हालांकि अफसाना ‘सैन्य खरीद के अर्थशास्त्र’ से आगे बढ़कर ‘सैन्य कार्रवाइयों की नाटकीयता’ की ओर मुड़ चला है। पुलवामा हमले के बाद 130 करोड़ भारतीयों के एक स्वर में बोल उठने का वैसा ही नजारा दिखा, जिसे क्लॉज़विट्ज़ मनोदशा का सटीक उदाहरण कहा जा सकता है। कह सकते हैं कि क्लॉज़विट्ज़ मनोदशा आदमी की पहली बुनियादी स्थितियों की तिकड़ी लगन, अवसर और तार्किक सोच को दूसरी बुनियादी तिकड़ी लोक, सेना और सरकार से जोड़ती है।
एक के बाद एक उड़ी और पुलवामा की घटनाओं के बाद भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने राजनैतिक इच्छाशक्ति, निर्णायक सैन्य कार्रवाई और प्रभावी राजनयिक उपायों का प्रदर्शन किया, तो उसने उसका प्रचार करना जरूरी समझा। उड़ी के बाद, भाजपा ने उसका प्रचार करके 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में कामयाबी हासिल की, तो अब वह आम चुनावों में भी सैन्य कार्रवाई के सहारे नैया पार लगाना चाहती है। पुलवामा के फौरन बाद देखी गई राजनैतिक एकता शायद आसन्न चुनावों के दबाव से ढह गई और विपक्ष ने सरकार पर “सशस्त्र बलों के बलिदान का राजनीतिकरण” और “युद्धोन्माद पैदा करने” का आरोप लगाया।
हवाई स्ट्राइक और पाकिस्तान के साथ हवाई झड़प के नतीजों को लेकर राजनैतिक आरोप-प्रत्यारोप जारी हैं। इस प्रक्रिया में, सैन्य अभियान राजनैतिक बहस का हिस्सा बन रहे हैं, जिससे सिर्फ सुरक्षा को ही खतरा नहीं है, बल्कि देश के हालात दुश्मनों के सामने भी उजागर हो रहे हैं। यहां तक कि राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता में शहीद सैनिकों के परिजनों को भी नहीं बख्शा जा रहा है। इस मामले में मीडिया का असंतुलित रुख और बेहिसाब जोर भी हालात बदतर कर रहा है। यह रवैया जरूर बदलना चाहिए।
अन्य चुनावी मुद्दों से राष्ट्रीय सुरक्षा और युद्ध का मामला अलग है क्योंकि इसमें लोगों को गोलबंद करने और मजबूत नेतृत्व की छवि बनाने की भारी क्षमता है। विपक्ष के लिए चुनौती यह है कि वह सत्ताधारियों को, राष्ट्रविरोधी होने का तमगा झेले बगैर कड़ी टक्कर दे। इसमें दो खतरे हैं-राजनैतिक कड़वाहट बढ़ेगी और युद्ध का उन्माद पैदा होगा। संभव है, सत्ताधारी दल या विपक्ष के नेता चुनावी फायदे के मद्देनजर जुमले फेंकने का लोभ संवरण न कर पाएं, लेकिन उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि देश को सुरक्षित रखने का दायित्व भी उन्हीं का होता है।
अधिकार और दायित्व के बीच संतुलन के लिए तीन मुद्दे सर्वोपरि होने चाहिए। एक, युद्ध के राजनीतिकरण की चिंता से भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि सशस्त्र बलों का स्वरूप अराजनैतिक ही बनाए रखना चाहिए। चुनाव आयोग ने हाल में अपने 2013 के निर्देशों को दोहराते हुए चुनाव प्रचार के दौरान सुरक्षा बलों के जवानों और रक्षा कार्रवाइयों की तस्वीरों का इस्तेमाल न करने का आदेश जारी किया है। हालांकि यह प्रतिबंध तो सिर्फ चुनावों के दौरान ही नहीं, हमेशा लागू रहना चाहिए। इसी तरह, सशस्त्र बलों के जवानों और अधिकारियों के लिए भी ऐसा साफ निर्देश होना चाहिए कि वे राजनीतिक दलों के किसी तरह के कार्यक्रम में हिस्सा न लें।
दूसरे, सैन्य क्षमता और कार्रवाइयों से संबंधित ब्योरों के बारे में अनाप-शनाप बयानबाजियों और बहस-मुबाहिसों पर भी रोक लगनी चाहिए। इसके लिए नियम-कायदों की तो दरकार है ही, जनप्रतिनिधियों और मीडिया को जागरूक करना भी जरूरी है। विजय और नायकों की तो पूजा की ही जाती है, मगर याद रखें कि युद्घ क्षेत्र और खेल के मैदान में काफी फर्क होता है। लिहाजा, राष्ट्रीय सुरक्षा, सैन्य अभियानों और राजनयिक मामलों में राजनैतिक नेतृत्व की जागरूकता बढ़ाना बेहद जरूरी है और इसे संस्थागत स्वरूप भी देने की आवश्यकता है।
तीसरे, यह भी जरूरी है कि सशस्त्र बलों के आधुनिकीकरण और क्षमता विकास की प्रक्रिया को राजनीतिक विवादों से परे रखा जाना चाहिए। इसके लिए बाकायदा नीतियां और नियम-कायदे बनाए जाने चाहिए। रणनीतिक बढ़त के लिए बड़ी खरीद नीति लाई जानी चाहिए और उस पर पिछली तारीखों से समीक्षा करने की शर्त भी नहीं रखी जानी चाहिए। सभी पार्टियों के सांसदों वाली रक्षा संबंधी संसदीय समिति ही प्रमुख खरीद निर्णयों की जांच करे और संसद में उस पर बोलने की वही अधिकारी होनी चाहिए, ताकि सुरक्षा संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए सही संदेश दिया जा सके।
राष्ट्रीय सुरक्षा और युद्ध के मामले उसी तरह आम दिलचस्पी और सक्रियताओं के दायरे में आते हैं, जैसे चुनाव। लिहाजा, खासकर चुनाव के वक्त में यह सोचना बेमानी है कि इससे संबंधित कार्रवाइयों और उसके नतीजों को श्रेय लेने, समीक्षा करने, उसे सही-गलत बताने के दायरों से दूर रखा जा सकता है। हालांकि, जिस तरह सशस्त्र संघर्ष को नियंत्रित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय कानून-कायदे हैं, उसी तरह राजनैतिक प्रचार अभियानों के दौरान राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों को उससे बचाए रखने के लिए भी नियम-कायदों की आवश्यकता है।
(लेखक उप-सेनाध्यक्ष और कश्मीर कॉर्प्स के कमांडर रहे हैं। वर्तमान में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के सदस्य हैं। ये उनके निजी विचार हैं)