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खुली गांठों का खामियाजा

यह भाजपा नीत गठबंधन की जीत से अधिक विपक्ष के बिखरे गठबंधन और उसके नेताओं के अहंकार और अति-आत्मविश्वास की हार
आत्मावलोकन की बेलाः यूपी में सपा-बसपा-रालोद गठबंधन का दांव नाकाम

सत्रहवीं लोकसभा के लिए 2019 का जनादेश क्या वाकई गठबंधन-महागठबंधन की राजनीति के विरुद्ध है! उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा-राष्ट्रीय लोकदल, बिहार में कांग्रेस-राजद-वीआइपी-रालोसपा और कर्नाटक में कांग्रेस-जनता दल (एस) गठबंधन को मिली करारी हार के मद्देनजर यह बात आसानी से कही जा सकती है। लेकिन इन्हीं नतीजों का गहराई से विश्लेषण करें तो यह बात पूरी तरह सही नहीं लगती। हारने वालों ने  सही तरीके से गठबंधन राजनीति के धर्म का पालन नहीं किया और अपने कथित जनाधार के साथ उनका जुड़ाव सिर्फ चुनावी रैलियों, सोशल मीडिया के जरिए ही रह गया था। अब वे अपनी कमजोरियों पर आत्मावलोकन के बजाय हार का ठीकरा गठबंधन सहयोगी पर फोड़कर जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लेना चाहते हैं।

आखिर इसी चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को ऐतिहासिक जीत मिली तो कांग्रेसनीत यूपीए को भी तमिलनाडु और उसके नेतृत्ववाले यूडीएफ को केरल में भारी कामयाबी मिली। जरा दोनों-तीनों गठबंधनों के स्वरूप, उनकी कार्यशैली और रणनीति को भी देखें और समझें।

एक तरफ 2014 के लोकसभा चुनाव में साढ़े तीन दर्जन क्षेत्रीय दलों को साथ लेकर चुनाव जीतने और साझा सरकार चलाने वाली भाजपा और नरेंद्र मोदी को अपने बूते भी बहुमत प्राप्त हो गया था। लेकिन 2019 के चुनाव में भी उसने न सिर्फ प्रधानमंत्री के खिलाफ ‘चौकीदार चोर है’ के नारे लगाने वाली शिवसेना सहित एनडीए के पुराने घटक दलों को साथ रखा बल्कि जनता दल-यू के नीतीश कुमार के साथ भी सीटों का तालमेल उनकी ही शर्तों पर (अपनी जीती हुई पांच सीटें छोड़कर) किया। जाहिर है, इसका राजनैतिक लाभांश भी उसे मिला।

दूसरी तरफ, विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस इसी असमंजस और ऊहापोह में फंसी रही कि उसे क्षेत्रीय दलों के साथ चुनावी गठबंधन करना है कि नहीं, और करना है तो किन शर्तों पर? कर्नाटक की त्रिशंकु विधानसभा के मद्देनजर कांग्रेस ने जब उससे बहुत कम सीटों वाले जद-एस के साथ साझा सरकार चलाने का फैसला किया तो उम्मीद बंधी थी कि कांग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के विरोध में विपक्षी दलों का एक व्यापक गठबंधन तैयार होगा। बेंगलूरू में विपक्ष की तकरीबन सभी धाराओं के तमाम नेताओं की एक मंच पर मौजूदगी भी देखने को मिली। लेकिन विभिन्न राज्यों में किस तरह का विपक्षी महागठबंधन आकार लेगा, इसकी रूपरेखा तैयार करने की पहल कांग्रेस नहीं कर सकी। कर्नाटक में भी सिद्धरमैया जैसे कांग्रेस के नेता अपनी बयानबाजियों से एच.डी. कुमारस्वामी की साझा सरकार को कमजोर करने का कोई पल नहीं गंवाए।

 फिर राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में भी सपा और बसपा को साथ लेकर चलना कांग्रेस को गवारा नहीं हुआ। उत्तर प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली और बिहार में कांग्रेस में ऐसे नेताओं की कमी नहीं रही जो नेतृत्व को यह समझाते रहे कि जितनी सीटें उन्हें गठबंधन में लड़ने से मिलेंगी, उससे अधिक तो पार्टी अकेले लड़कर जीत सकती है। नतीजा यह कि  हरियाणा और दिल्ली में उसे शून्य से संतोष करना पड़ा जबकि उत्तर प्रदेश में केवल सोनिया गांधी की एक सीट, रायबरेली ही हाथ लगी। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अमेठी की अपनी परंपरागत सीट भी बचा नहीं सके, वह भी तब जब इन दोनों सीटों पर सपा-बसपा और रालोद गठबंधन का उन्हें खुला समर्थन था। कांग्रेस का प्रियंका गांधी वाला ‘तुरुप का पत्ता’ भी काम नहीं आया। कांग्रेस के उम्मीदवार करीब एक दर्जन सीटों पर सपा, बसपा और रालोद गठबंधन की हार का कारण बने। पश्चिम बंगाल में इसके दबंग प्रदेश अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी की जिद के कारण तृणमूल कांग्रेस या माकपा से भी गठबंधन नहीं हो सका। नतीजतन, अधीर रंजन अपनी बहरामपुर की सीट तो बचा ले गए लेकिन कांग्रेस दो सीटों पर ही सिमट गई।

बिहार और झारखंड में कांग्रेस महागठबंधन का हिस्सा तो बनी लेकिन बेमन से। उसके नेता लगातार अलग-अलग भाषा बोलते रहे और जगह-जगह बागी उम्मीदवारों की शक्ल में गठबंधन का हुलिया बिगाड़ते रहे। सुपौल में रंजीता रंजन कांग्रेस की उम्मीदवार थीं लेकिन उनके पति निवर्तमान सांसद पप्पू यादव मधेपुरा में गठबंधन के उम्मीदवार शरद यादव के विरुद्ध निर्दलीय चुनाव लड़े। इसी तरह कांग्रेस के बड़े नेता डा. शकील अहमद मधुबनी की सीट गठबंधन के सहयोगी दल को मिल जाने के कारण निर्दलीय चुनाव लड़ गए। प्रतिक्रिया में कांग्रेस को इसकी कीमत अन्य क्षेत्रों में चुकानी पड़ी। शत्रुघ्न सिन्हा पटना साहिब से कांग्रेस के उम्मीदवार थे और उनकी पत्नी पूनम सिन्हा लखनऊ में सपा की उम्मीदवार बन गईं।

इन सबके अलावा बिहार में गठबंधन के उम्मीदवारों की हार के और भी बहुत से कारण बने। एक तो लालू प्रसाद के जेल में रहने के कारण राजद का युवा लेकिन अपरिपक्व नेतृत्व पुराने नेताओं को भरोसे में लेकर सीटों के बंटवारे में विजेता सामाजिक संतुलन नहीं बना सका। गठबंधन का नेतृत्व अपने यादव, मुस्लिम, कोइरी-कुशवाहा और मल्लाहों के साथ ही कांग्रेस के भरोसे सवर्ण मतदाताओं को अपने पाले में आया मानकर जीत का गणित भिड़ाने में लगा रहा। लेकिन सवर्ण मतदाता अगड़ों को 10 फीसदी आरक्षण के कारण एनडीए की ओर चले गए। गठबंधन के सवर्ण उम्मीदवारों को अपने सजातीय मतदाताओं को भी लामबंद करने में कठिनाई हुई। दूसरी तरफ, पचपनिया कही जाने वाली अन्य पिछड़ी जातियां बड़े पैमाने पर नीतीश कुमार के साथ लामबंद रहीं। पाटलिपुत्र, मधुबनी और मधेपुरा में यादवों के वोट भी बंटे जबकि भागलपुर, अररिया आदि क्षेत्रों में मुसलमान भी एनडीए के साथ दिखे। कुशवाहा और मल्लाह बड़े पैमाने पर एनडीए के साथ गए।

उत्तर प्रदेश में एक तो कांग्रेस अपने बूते खड़े होने और 2022 में विधानसभा चुनावों के लिए भाजपा को मजबूत चुनौती पेश करने की गरज से 71 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ गई। दूसरी तरफ, राज्य में गोरखपुर, फूलपुर और कैराना के संसदीय उपचुनावों में सपा-बसपा और रालोद गठबंधन के उम्मीदवारों की जीत ने अखिलेश यादव और मायावती के मन में यह एहसास भर दिया कि यूपी को आसानी से जीता जा सकता है। इसके पीछे एक तथ्य यह भी था कि 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में भी सपा-बसपा और रालोद का वोट प्रतिशत मिला देने से दोनों चुनावों में भाजपा को मिले मत प्रतिशत से ज्यादा बैठते थे।

 लेकिन गठबंधन के नेता भूल गए कि सामने भाजपा है जिसके संगठनकर्ता और रणनीतिकार उपचुनावों में हार के बाद से ही अपना सामाजिक समीकरण फिर से खड़ा करने में जुट गए थे। भाजपा की सवर्णों के साथ ही गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित जातियों को लामबंद करने की रणनीति फिर लाभकारी साबित हुई।

 एक बात और इस चुनाव में सामने आई कि अजित सिंह या अखिलेश और मायावती का अपने सामाजिक जनाधार के साथ जुड़ाव चुनावी रैलियों तक ही सीमित रहा। ये लोग अपने जनाधार को  बंधुआ समझते रहे, जबकि भाजपा के रणनीतिकार उनके जनाधार में सेंध लगाने की जुगत में लगे रहे। भाजपा का चुनाव प्रबंधन बूथ स्तर तक था। इस सबके बावजूद गठबंधन 15 सीटें जीत सका और तकरीबन इतनी ही सीटों पर उसके उम्मीदवार 50 हजार से भी कम मतों से हारे। इसका मतलब यह है कि उसका जनाधार पूरी तरह से नहीं बिखरा है।

अब गठबंधन के बीच दबी जुबान से हार का ठीकरा दूसरे सहयोगी पर फोड़ने का खेल शुरू होने लगा है। सपा में एक तबका उत्तेजित है कि अखिलेश यादव और उनके पिता मुलायम सिंह यादव के अलावा सपा के बाकी सभी यादव उम्मीदवार हार गए। यह भी कहा जा रहा है कि सिर्फ परिवार और सजातीय यादवों के भरोसे ही समाजवाद की राजनीति महंगी पड़ी। कुर्मी, लोध, मल्लाह, कुशवाहा, सैनी, राजभर, गड़रिया, गूजर आदि अन्य पिछड़ी जातियों के साथ ही समाजवादी सोच के सवर्णों की अनदेखी ने भी नुकसान किया। यही हाल मायावती का रहा, उनकी राजनीति जाटवों और आयातित ब्राह्मणों पर केंद्रित रही, जो विफल रही। अजित सिंह और जयंत चौधरी सजातीय जाट मतदाताओं को साथ बांधे रखने में फिर विफल रहे। यानी ये नतीजे इन पार्टियों के लिए आत्ममंथन का मौका लेकर आए हैं। कह सकते हैं कि यह भाजपा की जीत से अधिक विपक्ष की हार है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं)

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