महज 18 फार्मा कंपनियां, 14 वैक्सीन, सैकड़ों देश, करोड़ों लोग और अरबों डोज। यह उस कोविड-19 की नई कहानी है जिसकी शुरुआत दिसंबर 2019 में हुई और देखते-देखते मार्च 2020 तक पूरी दुनिया उसकी चपेट में आ गई। इस महामारी से बचने का एकमात्र दीर्घकालिक उपाय वैक्सीन जान पड़ता है, जो अब खरबों रुपये का बिजनेस बन चुका है। यूनिसेफ के आंकड़ों से पता चलता है कि कोविड-19 वैक्सीन की कीमत 2.06 डॉलर से लेकर 44 डॉलर तक है। दुनियाभर की सरकारें चुनिंदा उपलब्ध वैक्सीन के लिए मोलभाव कर रही हैं। कुछ सरकारें इसकी अधिक कीमत भी चुकाने को तैयार हैं ताकि उनके नागरिकों को वैक्सीन की अबाध आपूर्ति जारी रहे।
पूरे विश्व में वैक्सीन बनाने का काम दिसंबर 2020 के आसपास शुरू हुआ। लंदन स्थित लाइफ साइंस इंटेलिजेंस सर्विस एयरफिनिटी लिमिटेड के अनुसार 5 मार्च 2021 तक फार्मा कंपनियां 41.3 करोड़ डोज बना चुकी थीं। इनमें सबसे ज्यादा वैक्सीन चीन (14.16 करोड़), अमेरिका (10.3 करोड़), जर्मनी/बेल्जियम (7.05 करोड़) और भारत (4.23 करोड़) में बनाए गए हैं। भारत की तुलना में चीन ने तीन गुना और अमेरिका ने दोगुना वैक्सीन बनाए हैं। क्या इन परिस्थितियों में भारत कोविड-19 वैक्सीन के मामले में दुनिया में अगुवा देश बन सकता है?
इंडियन फार्मास्यूटिकल एलायंस (आइपीए) के महासचिव और इंटरनेशनल जेनेरिक एंड बायोसिमिलर मेडिसिन्स एसोसिएशन (आइजीबीए) के चेयरपर्सन सुदर्शन जैन कहते हैं, “60 फीसदी वैक्सीन भारत में बनाई जाती है। दुनिया की सभी बड़ी फार्मा कंपनियां हमारे साथ मिलकर वैक्सीन बना रही हैं। चाहे सीरम इंस्टीट्यूट के साथ मिलकर एस्ट्रोजेनेका हो या बायोलॉजिकल ई लिमिटेड के साथ जॉनसन एंड जॉनसन। इनके अलावा भारत में अपनी वैक्सीन बनाने वाली भारत बायोटेक और पैनेशिया बायोटेक जैसी कंपनियां भी हैं। बेहतरीन प्रौद्योगिकी क्षमता के कारण इस मामले में भारत की आवाज बुलंद है।”
जैन का यह विश्वास इस वजह से है कि मौजूदा वित्त वर्ष की पिछली तिमाही में भारत से दवा का निर्यात 13 फीसदी बढ़ा है। हालांकि लॉकडाउन, सोशल डिस्टेंसिंग और अस्पताल जाने से लोगों के कतराने के कारण घरेलू बिक्री कम हुई है। जैन का अनुमान है कि अगले एक दशक में भारतीय फार्मा इंडस्ट्री 10 से 12 फीसदी की दर से बढ़ेगी। इंडस्ट्री का आकार मौजूदा 41 अरब डॉलर से बढ़कर 120-130 अरब डॉलर हो जाएगा। दवा निर्यात से विदेशी मुद्रा की आय भी 13 अरब डॉलर से बढ़कर 41 अरब डॉलर हो जाएगी।
अभी भारत में दो कंपनियों की बनाई वैक्सीन इस्तेमाल हो रही है। एक है सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया जो एस्ट्राजेनेका के लाइसेंस पर वैक्सीन बना रही है और दूसरी भारत बायोटेक। हैदराबाद स्थित ग्लैंडफार्मा रूसी वैक्सीन स्पुतनिक-V वैक्सीन के 25.2 करोड़ डोज की आपूर्ति करने जा रही है। बेंगलूरू स्थित स्ट्राइड्स फार्मा भी स्पुतनिक-V बनाने का कॉन्ट्रैक्ट हासिल करने की कोशिश कर रही है।
फाइजर जैसी अमेरिका की बड़ी दवा कंपनियों ने भारत में अपनी वैक्सीन बनवाने से इनकार कर दिया है। हालांकि अमेरिकी सरकार ने भारत की दवा कंपनी बायोलॉजिकल ई. को आर्थिक मदद देने का फैसला किया है ताकि वह 2022 के अंत तक वैक्सीन की 100 करोड़ डोज तैयार कर सके। जायडस कैडिला, पैनेशिया बायोटेक, इंडियन इम्यूनोलॉजिकल्स, माइनवैक्स और बायोलॉजिकल ई. जैसी भारतीय कंपनियां अपनी वैक्सीन बनाने की भी कोशिश कर रही हैं। अभी तक दुनिया भर में कोरोनावायरस की 14 वैक्सीन को इस्तेमाल करने की मंजूरी मिली है। यह भारतीय फार्मा कंपनियों के लिए बड़े बिजनेस की शुरुआत भर है।
बड़ा खेल
कोविड-19 वैक्सीन बनाने के लिए एपीआइ (एक्टिव फार्मा इन्ग्रेडिएंट) से लेकर वायल और दूसरे पैकेजिंग मैटेरियल तक, करीब 200 कंपोनेंट की जरूरत पड़ती है। ज्यादातर कच्चा माल तो भारत में ही तैयार किया जाता है, लेकिन कुछ चीजों का आयात भी करना पड़ता है। जैसे चीन से एपीआइ का, अमेरिका से बैग और फिल्टर का। वायल, ग्लास, प्लास्टिक, स्टॉपर आदि का भी आयात होता है।
पिछले महीने सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के सीईओ अदार पूनावाला ने वर्ल्ड बैंक को बताया कि अमेरिका के एक कानून की वजह से कुछ चीजों का वहां से आयात नहीं हो पा रहा है। इसलिए भारत की दवा कंपनियां वैक्सीन का उत्पादन बढ़ा नहीं बना पा रही हैं। यह समस्या तब आई जब बाइडन प्रशासन ने फाइजर की वैक्सीन की सप्लाई बढ़ाने के लिए डिफेंस प्रोडक्शन एक्ट का इस्तेमाल करने का फैसला किया। फाइजर कोविड-19 की वैक्सीन बनाने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी है। इसने चार महीने में ही वैक्सीन की 11.9 करोड़ डोज बना ली। इसके बाद चीन की सायनोवैक कंपनी है, जिसने 9.1 करोड़ डोज बनाए हैं।
एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने नाम प्रकाशित न करने की शर्त पर कहा, “महामारी ने हर देश को स्वार्थी बना दिया है। हालात पर काबू करने का एकमात्र समाधान वैक्सीन है। अब कोई भी देश लॉकडाउन नहीं चाहता। ऐसे में जाहिर है कि विकसित देश अपनी ताकत दिखाएंगे। कोविड-19 की दवा के पेटेंट के लिए हम पहले ही उनसे लड़ रहे हैं। हमें घरेलू उत्पादन बढ़ाने या आयात करने जैसे विकल्पों पर विचार करना पड़ेगा।” हालांकि उन्होंने भी स्वीकार किया कि परिस्थितिवश अगर जरूरत पड़ी तो भारत भी निर्यात पर प्रतिबंध लगा सकता है।
भारत अभी तक लैटिन अमेरिका, कैरेबियाई, एशिया और अफ्रीका के 71 देशों को 5.8 करोड़ डोज की सप्लाई कर चुका है। इनमें इंग्लैंड, कनाडा, ब्राजील और मेक्सिको भी शामिल हैं। उक्त अधिकारी ने कहा, “दुनिया भर के देशों ने हमारे रवैये की सराहना की है और वे पूरी तरह से हमारी मदद करने के लिए तैयार हैं। बड़े देशों के तौर-तरीके इस बार काम नहीं आएंगे, क्योंकि विश्व स्वास्थ्य संगठन और अनेक अमेरिकी परोपकारी हमारा समर्थन कर रहे हैं।”
इन कठिनाइयों के बावजूद देश की फार्मा इंडस्ट्री मोदी सरकार की उत्पादन आधारित इंसेंटिव (पीएलआइ) योजना का लाभ उठाने की पूरी कोशिश कर रही है, खासकर 53 एपीआइ के मामले में ताकि इनका आयात न करना पड़े। सीरम इंस्टीट्यूट, जायडस कैडिला, भारत बायोटेक जैसी अनेक कंपनियों ने वैक्सीन बनाने की क्षमता बढ़ाई है। ये कंपनियां रिसर्च एंड डेवलपमेंट पर निवेश भी ज्यादा कर रही हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि विदेशी कंपनियों के साथ साझेदारी तो जारी रहेगी, लेकिन अब भारतीय कंपनियां इनोवेशन पर अधिक फोकस कर रही हैं।
मेडिकल डिवाइस बनाने वाली भारतीय कंपनियों की एसोसिएशन के पूर्व कोऑर्डिनेटर और हिंदुस्तान सिरिंजेज एंड मेडिकल डिवाइसेज लिमिटेड के संयुक्त प्रबंध निदेशक डॉ. राजीव नाथ कहते हैं कि आने वाले समय को लेकर भारत की फार्मा इंडस्ट्री काफी आशावान है। अनेक कंपनियां मेडिकल डिवाइस सेगमेंट में उतर सकती हैं। जब टाटा और रिलायंस लाइफ साइंस जैसी कंपनियां फार्मा सेक्टर में निवेश बढ़ाएंगी तो सरकार की तरफ से भी मदद बढ़ेगी।
विशेषज्ञों के अनुसार अब बस कुछ ही महीनों की बात है। अक्टूबर-नवंबर तक भारत और दूसरे देशों में और वैक्सीन की मंजूरी मिल जाएंगी। अभी जो बाजार चुनिंदा कंपनियों तक सीमित है वह काफी हद तक बदल जाएगा। लोगों के पास वैक्सीन चुनने का विकल्प होगा, जिसमें भारतीय कंपनियों का बड़ा हिस्सा होगा।
पेटेंट की लड़ाई
पेटेंट का मतलब आविष्कार करने वाले को बौद्धिक संपदा अधिकार देना है। इसमें आविष्कारक को खास तरीके, डिजाइन या उसकी खोज का विशेषाधिकार दिया जाता है। कोविड-19 की वैक्सीन को लेकर आने वाले दिनों में पेटेंट की लड़ाई छिड़ने वाली है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक डॉ. टेड्रोस अधनोम गेब्रेसस ने मार्च के पहले हफ्ते में कहा था कि कोविड-19 वैक्सीन को पेटेंट से बाहर रखा जाना चाहिए। उन्होंने कहा, “अभी तक 22.5 करोड़ डोज लोगों को दिए गए हैं। इनमें से ज्यादातर डोज अमीर और वैक्सीन बनाने वाले देशों में दिए गए। कम और मध्यम आय वाले देश अभी तक इसके मिलने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।” डॉ. गेब्रेसस के अनुसार ‘पहले मैं’ का तरीका थोड़े समय के लिए राजनीतिक लाभ दे सकता है, लेकिन आखिरकार यह तरीका नुकसानदायक है। क्योंकि इससे रिकवरी में लंबा समय लगेगा और व्यापार तथा यात्राओं पर अंकुश बना रहेगा। उन्होंने कहा कि पेटेंट और कंपनियों को होने वाले रॉयल्टी के भुगतान से कुछ समय के लिए छूट मिलनी चाहिए।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रमुख का यह बयान भारत और दक्षिण अफ्रीका की आपत्तियों के बाद आया। दोनों देशों ने विकसित देशों पर चुनिंदा कंपनियों के व्यापारिक हितों की रक्षा करने का आरोप लगाया था। इन्होंने महामारी के व्यापक असर को देखते हुए विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) से इस विषय पर जल्दी निर्णय लेने का आग्रह किया था।
डब्ल्यूटीओ में भारत के राजदूत ब्रजेंद्र नवनीत ने महासभा की बैठक में कहा, “वायरस नए लोगों को कम संक्रमित करे और उसका म्यूटेशन धीमा हो, इसके लिए हमें वैक्सीन का सही मायने में अंतरराष्ट्रीयकरण करने और ट्रिप्स (पेटेंट अधिकार) से छूट देने की जरूरत है। उन्होंने उन देशों का विरोध किया जो यह तर्क दे रहे थे कि ऐसा करने से पेटेंटधारक कंपनी के हित प्रभावित होंगे और कंपनियां मैन्युफैक्चरिंग क्षमता नहीं बढ़ा सकेंगी।
इंडियन इम्यूनोलॉजिकल्स के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, “कोविड-19 वैक्सीन के मामले में भारत की राह चार बातों पर निर्भर करती है- कीमत, जेनेरिक फॉर्मूलेशन, पहुंच और सहयोग। इन बातों से कोविड-19 के खिलाफ हमारी लड़ाई मजबूत होगी। बड़ी फार्मा कंपनियों की तरफ से पेटेंट का खेल कोई नई बात नहीं। लेकिन कोविड-19 की रिसर्च में सरकारों ने काफी पैसा लगाया है। यह पेटेंट से छूट देने में एक मजबूत तर्क है।” परिस्थितियां जैसी भी हों, सस्ती वैक्सीन की वजह से विश्व के फार्मा सेक्टर में भारत एक मजबूत भागीदार बनेगा।