अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी तकरीबन पूरी हुई तो उसे महाशक्तियों में टकराव की नजर से देखने का शगल आसान लगता है। मसलन, अमेरिका के हटने से चीन अफगानिस्तान में दबदबा बढ़ा लेगा और क्षेत्रीय सहयोगियों पाकिस्तान, रूस और ईरान के साथ मिलकर अपने पैर फैलाएगा। लेकिन यह उतना आसान नहीं। बीजिंग के काबुल से अच्छे रिश्ते हैं और उसने तालिबान से भी मजबूत संबंध बना लिए हैं। लेकिन अफगानिस्तान में चीन की मौजूदगी बेहद मामूली है। बीजिंग पाकिस्तान से लेकर उप-सहारा अफ्रीका में निवेश करता रहा है, लेकिन अफगानिस्तान में वह बड़ा आर्थिक खिलाड़ी नहीं है। युद्ध की वजह से उसने अपनी बेल्ट और रोड पहल को पीछे खींच लिया है। अगर वह अमेरिकी मौजूदगी के दौरान अफगानिस्तान में पूंजी लगाने से झिझक रहा था तो अमेरिका के हटने के बाद हिंसा बढ़ेगी तो वह और चिंतित होगा।
बीजिंग की चिंताएं तालिबान के अनगढ़ रवैए को लेकर तो हैं हीं, उसके सामने उससे भी ज्यादा आइएसआइएस और तुर्केस्तान इस्लामिक पार्टी (टीआइपी) जैसे आतंकी संगठनों का भी खतरा है। टीआइपी मोटे तौर पर उइगर उग्रवादियों का गुट है। चीन की चिंता अपनी पूरी पश्चिमी सीमा के पास टीआइपी की मौजूदगी को लेकर है। अमेरिकी वापसी के बाद ये आतंकी गुट शर्तिया मजबूत होंगे।
दरअसल अमेरिकी वापसी से अफगानिस्तान में चीन के दो खास हित उलझ गए हैं। एक, निवेश के लिए अधिक माकूल माहौल तैयार करना और दूसरे, आतंकी खतरों को घटाना। अमेरिका का हटना रणनीतिक मौका तो है मगर चीन के हितों को झटका भी है। तेहरान, मास्को और इस्लामाबाद भी शायद ऐसा ही सोचें। लिहाजा, चीन के पास अपने दो खास हितों को आगे बढ़ाने के लिए खुद कदम आगे करने का विकल्प ही बचता है। यह असान तो नहीं होगा लेकिन चीन को दो मायने में बढ़त हासिल है: तालिबान के साथ मजबूत संपर्क, और उसके पाकिस्तानी सहयोगी के साथ गहरे रिश्ते। चीन इस्लामाबाद के सहयोग से तालिबान से दो तरह की सुलह कायम करने की उम्मीद करता है। एक, तालिबान टीआइपी को पैर जमाने की जगह न दे और दूसरे, तालिबान के कब्जे वाले इलाकों में चीन के इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट शुरू हों।
लगता है, इस दिशा में पहली सिफारिश जुलाई के आखिर में की जा चुकी है, जब बीजिंग ने एक वरिष्ठ तालिबान प्रतिनिधिमंडल की मेजबानी की थी। दूसरी बातचीत भी सिद्धांत रूप में मुश्किल नहीं होनी वाहिए। तालिबान ने कहा है कि वह विदेशी प्रयोजन में इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोनाओं के हक में है। उसने तुर्केमिनिस्तान-अफगानिस्तान-पाकिस्तान-भारत गैस पाइपलाइन के लिए भी हां कह दिया है, जो फिलहाल निर्माणाधीन है। अगर तालिबान अमेरिकी समर्थन और भारत की भागीदारी वाली पाइपलाइन परियोजना को शह देने और उसकी रक्षा करने को तैयार है, तो उम्मीद है कि वह चीन की इन्फ्रास्ट्रक्चर पहल को भी मंजूर कर लेगा।
फिर भी तालिबान से ‘हां’ कहलवा लेना आसान नहीं होगा। टीआइपी तालिबान के लिए अल कायदा की तरह खास नहीं है। लेकिन तालिबान का ट्रैक रिकॉर्ड उसके धुर विरोधी आइएसआइएस को छोड़कर दूसरे आतंकी गुटों को जगह देने से इनकार करने का भी नहीं रहा है। इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए समर्थन के बावजूद तालिबान ने अक्सर हिंसक नाराजगी भी दिखाई है। हाल के वर्षों में बिजली के दूसरे ढांचों के साथ उसने पड़ोसी ईरान और उज्बेकिस्तान से आने वाली बिजली के ढांचों को ढहा दिया था।
'अमेरिका गया, चीन आया' जैसे नजरिए पर सवाल उठाने की एक और वजह है। अफगानिस्तान ऐसा विरला-सा देश है, जहां अमेरिका और चीन की प्रतिद्वंद्विता अपेक्षाकृत मामूली ही है। मोटे तौर पर कहें तो वहां वाशिंगटन और बीजिंग के लगभग एक जैसे हित हैं। वह यह कि अफगानिस्तान में जितनी स्थिरता रहेगी, अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का खतरा उतना ही कम होगा। बाइडन सरकार ने चीन और रूस के साथ अपने गहरे तनावों को अफगानिस्तान की क्षेत्रीय कूटनीति से अलग रखने की इच्छा का इजहार किया था। सो, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि वाशिंगटन अफगानिस्तान में आतंकवाद को लेकर बीजिंग के साथ साझा सरोकार रखे।
फिर भी इस तथ्य को कमतर करके नहीं आंका जा सकता कि अफगानिस्तान से वापसी के बाद इस इलाके में अमेरिका को झटका लगेगा। रूस और पाकिस्तान के साथ साझेदारी के बल पर चीन दक्षिण और मध्य एशिया में पैर जमाने के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश का सहारा ले रहा है और प्रतिद्वंद्वी भारत से उसे खास फर्क नहीं पड़ता। वाशिंगटन ने पूर्वी एशिया में चीन से होड़ लेने की कोशिश की है, जहां अमेरिका की रणनीतिक मौजूदगी है और करीबी रक्षा साझेदारियां भी हैं। दक्षिण और मध्य एशिया में उसे वैसी बढ़त हासिल नहीं है। यह चुनौती उसके लिए वर्षों पहले भी थी, जब उसके हजारों जवान अफगानिस्तान में मौजूद थे।
चीन की काट के लिए बाइडन सरकार की योजनाएं हैं। वह ट्रंप सरकार के दौरान बनी साझेदारियों का इस्तेमाल करेगी। मसलन, भारत-प्रशांत रणनीति, डेवलपमेंट फाइनांस कोऑपरेशन और ब्लू डॉट नेटवर्क। इन सभी का मकसद निवेश बढ़ाना है, जो चीन के मुकाबले अधिक पारदर्शी और बराबर हिस्सेदारी वाला है। इसके साथ नए करार भी हैं, जैसे जी-7 का बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड वैश्विक इन्फ्रास्ट्रक्चर निवेश। वाशिंगटन को उम्मीद है कि इससे सहमना राज्यों की साझेदारी का बड़ा गठजोड़ बनेगा। हालांकि ये सभी पहल नई हैं और समयसिद्ध नहीं हैं। ये 2005 से चीन के 20 खरब डॉलर के वैश्विक निवेश या 2020 में ही 47 अरब डॉलर के निवेश का मुकाबला नहीं कर सकते।
वाशिंगटन के लिए उम्मीद की किरण क्या है? चीन को दक्षिण और मध्य एशिया में बढ़त है, लेकिन अफगानिस्तान में अमेरिका के हटने से उसे उतनी बढ़त नहीं मिलेगी। एक नया रणनीतिक खेल शुरू है, मगर बीजिंग को इसमें आसान जीत नहीं मिलेगी।
(लेखक वाशिंगटन स्थित विल्सन सेंटर में एशिया प्रोग्राम के डिप्टी डायरेक्टर हैं)